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गांधी जयंती के अवसर पर पवन कुमार
अरविंद का आलेख-
वर्तमान
में गांधी के विचारों की प्रासंगिकता
भारतीय
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सत्य और अहिंसा का उद्घोष
कर आंदोलन की धार को और पैनी करने वाले महात्मा गांधी
किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उन्होंने स्वतन्त्र
भारत के पुनर्निर्माण के लिए रामराज्य का स्वप्न देखा
था। वे कहा करते थे कि “नैतिक और सामाजिक उत्थान को ही
हमने अहिंसा का नाम दिया है। यह स्वराज्य का चतुष्कोण
है। इनमें से एक भी अगर सच्चा नहीं है तो हमारे
स्वराज्य की सूरत ही बदल जाती है। मैं राजनीतिक और
आर्थिक स्वतन्त्रता की बात करता हूँ। राजनीतिक
स्वतन्त्रता से मेरा मतलब किसी देश की शासन प्रणाली की
नकल से नहीं है। उनकी शासन प्रणाली अपनी-अपनी प्रतिभा
के अनुसार होगी, परन्तु स्वराज्य में हमारी शासन
प्रणाली हमारी अपनी प्रतिभा के अनुसार होगी। मैंने
उसका वर्णन ‘रामराज्य’ शब्द के द्वारा किया है। अर्थात
विशुद्ध राजनीति के आधार पर स्थापित तन्त्र। मेरे
स्वराज्य को लोग अच्छी तरह समझ लें, भूल न करें।
संक्षेप में वह यह है कि विदेशी सत्ता से सम्पूर्ण
मुक्ति और साथ ही सम्पूर्ण आर्थिक स्वतंत्रता। इस
प्रकार एक सिरे पर आर्थिक स्वतंत्रता है और दूसरे सिरे
पर राजनीतिक स्वतंत्रता, परन्तु इसके दो सिरे और भी
हैं। इनमें से एक है नैतिक व सामाजिक और दूसरा धर्म।
इसमें हिन्दू धर्म, इस्लाम, ईसाई वगैरह आ जाते हैं।
परन्तु एक जो इन सबसे ऊपर है, इसे आप सत्य का नाम दें
सकते हैं। सत्य यानि कि केवल प्रासंगिक ईमानदारी नहीं
बल्कि वह परम सत्य जो सर्व व्यापक है और उत्पत्ति व लय
से परे है।”
मूलरुप से गांधी जी की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था करुणा,
प्रेम, नैतिकता, धार्मिकता व ईश्वरीय भावना पर आधारित
है। उन्होंने नरसेवा को ही नारायण सेवा मानकर
दलितोद्धार व दरिद्रोद्धार को अपने जीवन का ध्येय
बनाया। वे शोषणमुक्त, समतायुक्त, ममतामय, परस्पर
स्वावलम्बी, परस्पर पूरक व परस्पर पोषक समाज के प्रबल
हिमायती थे। उनका मानना था कि राजसत्ता और अर्थसत्ता
के विकेन्द्रीकरण के बिना आम आदमी को सच्चे लोकतन्त्र
की अनुभूति नहीं हो सकती। सत्ता का केन्द्रीयकरण
लोकतन्त्र की प्रकृति से मेल नहीं खाता। उनकी
ग्राम-स्वराज्य की कल्पना भी राजसत्ता के
विकेन्द्रीकरण पर आधारित है।
५ फरवरी २०१० को काशी के नागरी प्रचारिणी सभागार में
एक कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा
था-“मेरे सपनों का स्वराज्य गरीबों का स्वराज्य होगा।
जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग
करते हैं, वही उन्हें भी सुलभ होना चाहिए। इसमें फर्क
के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। ऐसे राज्य में
जाति-धर्म के भेदों का कोई स्थान नहीं हो सकता। उस पर
धनवानों और अशिक्षितों का एकाधिपत्य नहीं होगा। वह
स्वराज्य सबके कल्याण के लिए होगा। लेकिन यह स्वराज्य
प्राप्त करने का एक निश्चित रास्ता है।”
इसको समझाने के लिए वे कहते थे-“ध्येयवादी जीवन के चार
तत्व होते हैं- साधक, साधन, साधना और साध्य। साध्य का
अर्थ लक्ष्य या ध्येय से है। यदि किसी समय हमारा
लक्ष्य धन कमाना है, तो धन कमाने के भी कई तरीके हो
सकते हैं। यह धन चोरी करके भी प्राप्त किया जा सकता है
और पुरुषार्थ व पराक्रम से भी, लेकिन पुरुषार्थ व
पराक्रम से प्राप्त धन ‘पवित्र धन’ कहा जायेगा और चोरी
से प्राप्त धन ‘चोरी का धन’। ऐसी स्थिति में साध्य
पवित्र नहीं रह जायेगा। इसलिए साध्य की पवित्रता के
लिए यह आवश्यक है कि साधन, साधक व साधना तीनों पवित्र
हों। किसी एक के पवित्र होने से काम नहीं चलेगा।”
गांधी जी के विचार और वर्तमान के सम्बन्ध में चिन्तन
करने पर लगता है कि आज की स्थिति, परिस्थिति और लोगों
की मन:स्थिति में बहुत अन्तर है। सब येन-केन-प्रकारेण
साध्य तक पहुँचने को आतुर दिखते हैं। इस आतुरता की जिद
में सारे नीति, नियम, कायदे व कानून को तोड़कर हम
अनैतिक व हिंसक हो जाते हैं। यहीं से विकृति प्रारम्भ
होती है, और राष्ट्रहित के स्थान पर स्वहित दिखाई
देने लगता है। हर क्षेत्र में आधारभूत ढाँचे से हटकर
परिवर्तन हुआ है। इस सृष्टि की सर्वोच्च शासन व्यवस्था
‘लोकतन्त्र’ पूँजीवादी तन्त्र में परिवर्तित हो गयी
है। सामान्य निर्धन व्यक्ति जनता का प्रतिनिधित्व नहीं
कर सकता। संसद और विधानमण्डल के दोनों सदनों में लगभग
४५ प्रतिशत से अधिक सदस्य किसी न किसी प्रकार से
अपराधियों की श्रेणी में आ जाते हैं। कुल मिलाकर आज की
राजनीति में अपराधियों का बोल-बाला है।
आधुनिक भारत का निर्माण करने वालों ने आधुनिक शिक्षा
बनाने की आड़ में गांधी के विचारों को दरकिनार कर
दिया। जिससे आज ऐसी स्थिति हो गयी है कि एक गरीब बालक
के लिए वांछित शिक्षा प्राप्त करना दुष्कर हो गया है।
इन सारी स्थितियों और परिस्थितियों का एक कारण यह भी
है कि गांधीवादी विचारधारा का झंडा तथाकथित
गांधीवादियों ने थाम रखा है। जिस चरखे और खादी से
उन्होंने जन-जन को जागरूक किया था, वही आज हाशिये पर
धकेल दिया गया है। खादी पहनने वाले खादी की लाज भूल
चुके हैं। उनके लिए खादी स्वयं को नेता सिद्ध करने
वाली पोशाक भर बन कर रह गयी है। उनके सहयोगियों ने
उनके मूल्यों और कार्यक्रमों को तिलांजलि दे दी है।
सरकार के काम-काज में गांधीवादी सरोकारों और लक्ष्यों
को देखना निराश ही करता है।
गांधी के विचारों की प्रासंगिकता का सवाल उनकी जन्म और
पुण्यतिथि पर हमेशा उठता है, लेकिन गांधी तो आजादी
मिलने के बाद से ही अलग-थलग पड़ गये थे। गांधी का सपना
गांधी के सच्चे सपूतों ने ही तार-तार करके रख दिया
है। ऐसी स्थिति में लगता है कि गांधी का सपना केवल
स्वप्न बनकर रह जायेगा। फिर भी, तेजी से बदल रहे
परिवेश के कारण गांधी के विचारों की प्रासंगिकता आज
महती आवश्यकता के रुप में अनुभव की जा रही है। |