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१२. ७. २०१०

सप्ताह का विचार- पुरुषार्थ से दरिद्रता का नाश होता है और जप से पाप का। मौन से कलह की उत्पत्ति नहीं होती और सजगता से भय की।- चाणक्य

अनुभूति में-
भगवती चरण वर्मा, विमलेश चतुर्वेदी विमल, ज़किया ज़ुबैरी, उदयभानु हंस और राजेश्वरी पांढरीपांडे की रचनाएँ।

सामयिकी में- भारत में विदेशी शिक्षण संस्थानों की सार्थकता पर सवाल खड़े करती दिलीप मंडल की टिप्पणी- विदेशी शिक्षा : एक सपने का व्यापार।

रसोईघर से सौंदर्य सुझाव- उँगलियों पर ज़रा-सा बादाम या जैतून का तेल लेकर भौंहों और बरौनियों पर लगाने से वे घनी और चमकदार बन जाती हैं।

पुनर्पाठ में- विशिष्ट कहानियों के स्तंभ गौरव गाथा के अंतर्गत १ अगस्त २००४ को प्रकाशित शेखर जोशी की कहानी-- कोसी का घटवार।

क्या आप जानते हैं? कि यूनाटेड किंगडम में ८,५००  भारतीय भोजनालय हैं। यह इस देश के समस्त भोजनालयों का १५ प्रतिशत है।

शुक्रवार चौपाल- यह शुक्रवार रूहे इश्क की सफलता उत्सव के दूसरे दिन था इसलिये लोग कुछ देर से आए लेकिन सदस्यों की उपस्थिति... आगे पढ़ें

नवगीत की पाठशाला में- कार्यशाला-९ के नवगीतों का प्रकाशन प्रारंभ हो चुका है लेकिन कुछ नियमित सदस्यों की रचनाएँ की अभी भी आनी बाकी हैं।


हास परिहास
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सप्ताह का कार्टून
कीर्तीश की कूची से

इस सप्ताह
समकालीन कहानियों में भारत से
रमणिका गुप्ता की कहानी ओह ये नीली आँखें

'ओह ये नीली आँखें!`
मैं कुछ बदहवास, कुछ हताश-सी बुदबुदा उठी। दरअसल रेखा चिल्ला रही थी कि किचन में घुस कर बिल्ली सारा दूध पी गयी है। वह उसे खदेड़ते हुए मेरे बेडरूम तक ले आई थी। मैंने उसे कहा, 'इसे मारो मत।`
एक टुकड़ा टोस्ट का तोड़ कर मैंने जमीन पर फेंक दिया था। बिल्ली ने उसे खाकर पुन: मेरे हाथ में बचे टोस्ट पर अपनी नीली आँखें गड़ा दीं। जैसे ही मेरी आँखें उसकी आँखों से टकराईं मुझे बरसों पहले बंबई से मद्रास की यात्रा करते समय नीली आँखों वाला सहयात्री याद आ गया। वह इस बिल्ली की तरह ही मेरी देह को ललचायी आँखों से टकटकी लगाए रातभर देखता रहा था। वैसे मुझे बिल्ली का यों कातर होकर ताकना अजीब-सा लग रहा था!  आमतौर पर बिल्लियाँ कभी कातर नहीं होतीं। वे तो हिंसक होती हैं। वे प्राय: झपट्टा मारती हैं...  पूरी कहानी पढ़ें
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सुरेन्द्र सुकुमार का व्यंग्य
जूतों का महत्त्व
 
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राधेश्याम का आलेख
विश्व का पहला उपन्यास- गेंजी की कहानी
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अचला दीप्ति कुमार का संस्मरण
मेरा न्यायधीश
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विनीता शुक्ला और दीपिका जोशी से जानें
वट सावित्री पर्व के विषय में

पिछले सप्ताह

मनोहर पुरी का व्यंग्य
भ्रष्टाचार बिना बिचौलिया
 
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स्वाद और स्वास्थ्य के अंतर्गत
सेहत का नगीना पुदीना
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श्यामाचरण दुबे  के साथ साहित्य चर्चा
साहित्य का सामाजिक प्रभाव
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समाचारों में
देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक सूचनाएँ

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समकालीन कहानियों में भारत से
हृषीकेश सुलभ की कहानी वसंत के हत्यारे

लगभग तीस घंटे पहले वारदात हुई थी। कल की बात है। कल हुई थी हत्या। सुबह छह बजे। कल भी, आज सुबह जैसी ही ठंड थी। हाड़-हाड़ कँपा देने वाली ठंड। दिसम्बर महीने की शुरुआत में ऐसी ठंड पहले नहीं पड़ती थी। कल सुबह, जब मैं बन-सँवरकर घर से निकला, घना कोहरा था। ओस से गीली हो रही थी धरती। शहर की गंदगी समेटकर बहते नाले के बाँध पर पसरी दूब की नोक से शीत की बूँदें टपक रही थीं। इसी नाले के किनारे, बाँध के उस पार हमारी बस्ती थी। कुछ झुग्गियाँ... कुछ टिन के टप्परों वाले घर, ...और कुछ छोटे-छोटे कमरोंवाले छतदार पक्के मकान थे। अपने घर से निकलकर इसी बाँध की पगडन्डी पर चलते हुए मैं आता। दूसरी ओर के बाँध पर सड़क थी, जिसे एक पतली पुलिया जोड़ती थी। मैं सड़क किनारे इसी पुलिया पर खड़ा होकर सिगरेट...  पूरी कहानी पढ़ें

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