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गुसांई
का मन चिलम में भी नहीं लगा। मिहल की छाँह में उठकर वह फिर एक
बार घट (पनचक्की) के अंदर गया। अभी खप्पर में एक-चौथाई से भी
अधिक गेहूँ शेष था। खप्पर में हाथ डालकर उसने व्यर्थ ही
उलटा-पलटा और चक्की के पाटों के वृत्त में फैले हुए आटे को
झाड़कर एक ढेर बना दिया। बाहर आते-आते उसने फिर एक बार और
खप्पर में झाँककर देखा, जैसे यह जानने के लिए कि इतनी देर में
कितनी पिसाई हो चुकी हैं, परंतु अंदर की मिकदार में कोई विशेष
अंतर नहीं आया था। खस्स-खस्स की ध्वनि के साथ अत्यंत धीमी गति
से ऊपर का पाट चल रहा था। घट का प्रवेशद्वार बहुत कम ऊंचा था,
खूब नीचे तक झुककर वह बाहर निकला। सर के बालों और बांहों पर
आटे की एक हलकी सफेद पर्त बैठ गई थी।
खंभे का सहारा लेकर
वह बुदबुदाया, "जा, स्साला! सुबह से अब तक दस पसेरी भी नहीं
हुआ। सूरज कहाँ का कहाँ चला गया है। कैसी अनहोनी बात!"
बात अनहोनी तो है ही। जेठ बीत रहा है। आकाश में कहीं बादलों का
नाम-निशान ही नहीं। अन्य वर्षों में अब तक लोगों की धान-रोपाई पूरी
हो जाती थी, पर इस साल नदी-नाले सब सूखे पड़े हैं। खेतों की
सिंचाई तो दरकिनार, बीज की क्यारियाँ सूखी जा रही हैं। छोटे
नाले-गूलों के किनारे के घट महीनों से बंद हैं। कोसी के किनारे
हैं गुसाईं का यह घट। पर इसकी भी चाल ऐसी कि लू घोड़े की चाल
को मात देती हैं। |