सामयिकी भारत से

भारत में विदेशी शिक्षण संस्थानों की सार्थकता पर सवाल खड़े करती दिलीप मंडल की टिप्पणी-


विदेशी शिक्षा : एक सपने का व्यापार  


भारत में विदेशी शिक्षण संस्थानों के आने का रास्ता साफ होने वाला है। विदेशी शिक्षण संस्थान (प्रवेश एवं संचालन विनियमन) विधेयक २०१० लोकसभा में पेश किया जा चुका है और अब यह विधेयक मानव संसाधन विकास मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति के पास विचार के लिए भेजा गया है। संसदीय समिति की और से समाचार पत्रों में १६ जून को विज्ञापन देकर व्यक्तियों और संस्थाओं से यह कहा गया है कि वे १५ दिनों के अंदर इस विधेयक पर अपनी राय दे सकते हैं।

इस विधेयक में दो ऐसी बातें हैं, जिसपर गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है। सबसे महत्त्वपूर्ण और चौंकाने वाली बात यह है कि इस विधेयक में विदेशी शिक्षण संस्थानों पर आरक्षण लागू करने की शर्त नहीं लगाई गई है। यानी ये शिक्षण संस्थान दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और शारीरिक रूप से असमर्थ छात्रों को किसी भी तरह का आरक्षण देने को बाध्य नहीं होंगे। विधेयक की दूसरी बड़ी खामी यह है कि विदेशी संस्थान कितनी फीस लेंगे, इस बारे में उन पर कोई पाबंदी नहीं लगाई गई है। विदेशी शिक्षण संस्थानों पर फीस के मामले में पाबंदी सिर्फ इतनी है कि वे इसका जिक्र अपने प्रोस्पेक्टस यानी विवरणिका में करेंगे और बताएँगे कि अगर छात्र ने बीच में पढ़ाई छोड़ दी तो फीस का कितना हिस्सा वापस होगा।

सबसे पहले अगर आरक्षण की बात करें तो इस कानून के पास होने के बाद विदेशी शिक्षण संस्थान देश में शिक्षा के एकमात्र ऐसे संस्थान होंगे जो आरक्षण के दायरे से बाहर होंगे। भारत में उच्च शिक्षा का हर संस्थान (अल्पसंख्यक संस्थानों को छोड़कर) आरक्षण के प्रावधानों को मानने के लिए बाध्य है। संसद और विधानसभा इसके लिए कानून बना सकती हैं जिसे सरकारी और गैर सरकारी दोनों तरह के शिक्षा संस्थानों पर लागू किया जा सकता है। यह सरकारी आदेश या अदालत का फैसला नहीं है। यह एक संवैधानिक व्यवस्था है। भारतीय लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था- संसद ने संविधान में ९३वाँ संशोधन करके यह व्यवस्था दी कि राज्य यानी संसद या विधानसभाएँ किसी भी शिक्षा संस्थान (चाहे सरकार उसे पैसे देती हो या नहीं) में दाखिले के लिए सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान कर सकती हैं। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद १५ (४) के बाद एक नया खंड १५ (५) जोड़ा गया। इस संशोधन से सिर्फ अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को बाहर रखा गया है।

इस संविधान संशोधन की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि पी ए इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र सरकार और अन्य केस में सुप्रीम कोर्ट के ११ जजों की पीठ ने २००५ में यह आदेश दिया था कि संसद या विधानसभाएँ उन शिक्षण संस्थानों पर आरक्षण लागू नहीं सकतीं, जो सरकार से पैसे नहीं लेतीं। इस आदेश के दायरे में अल्पसंख्यक और अन्य सभी तरह के शिक्षण संस्थानों को रखा गया। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद से ज्यादातर गैर-सरकारी शिक्षण संस्थान आरक्षण के दायरे से बाहर हो गए थे। इस वजह से तत्कालीन सरकार को संविधान में संशोधन करना पड़ा। इस संविधान संशोधन में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों यानी ओबीसी के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था करने का प्रावधान है।

इसी संविधान संशोधन के बाद केंद्र सरकार ने अपने उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की नई व्यवस्था लागू करने के लिए कानून पास किया। केंद्रीय शिक्षण संस्थान (दाखिले में आरक्षण) कानून, २००६ के तहत केंद्र सरकार के उच्च शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जाति के लिए १५ प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति के लिए ७.५ प्रतिशत और पिछड़ी जातियों के लिए २७ प्रतिशत आरक्षण दिया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस कानून को दी गई चुनौतियों को खारिज कर दिया है। यह बात महत्त्वपूर्ण है कि केंद्रीय शिक्षण संस्थान (दाखिले में आरक्षण) कानून, २००६ को लेकर देश की संसद में आम राय थी। देश की राय को जानने के लिए संसद से ज्यादा प्रामाणिक और विश्वसनीय संस्था और कोई नहीं है। इसलिए कहा जा सकता है कि देश की भावना ऐसे कानून के पक्ष में है।

इस पृष्ठभूमि में देखें तो विदेशी शिक्षण संस्थानों को आरक्षण के दायरे से बाहर रखना ९३वें संविधान संशोधन कानून, २००५ का उल्लंघन है। संविधान में संशोधन किए बगैर किसी संविधान संशोधन को बदला नहीं जा सकता है। ९३वाँ संविधान संशोधन स्पष्ट रूप से कहता है कि संसद और विधानसभा अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को छोड़कर तमाम शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जाति जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू कर सकती है। अगर वर्तमान सरकार चाहती है कि कुछ (मौजूदा संदर्भ में विदेशी) शिक्षण संस्थानों को आरक्षण के दायरे से बाहर रखा जाए, तो इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा। संविधान की धारा १५ (५) में संशोधन किए बगैर सरकार विदेशी शिक्षण संस्थानों को आरक्षण के दायरे से बाहर नहीं रख सकती।

यह विषय भारत के संघीय ढांचे के लिहाज से भी काफी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ९३वें संविधान संशोधन के तहत विधानसभाओं को यह अधिकार प्राप्त है कि वे सरकारी मदद न लेने वाले शिक्षण संस्थानों में भी आरक्षण लागू कर सकती हैं। विदेशी शिक्षण संस्थान (प्रवेश एवं संचालन विनियमन) विधेयक २०१० की वजह से राज्य सरकारों का यह अधिकार कम हो जाएगा। इस तरह से केंद्र सरकार का यह अधिनियम भारत के संघीय ढांचे के विरुद्ध है। केंद्र सरकार एक सामान्य कानून लाकर राज्य सरकारों के अधिकारों को कम नहीं कर सकती है क्योंकि शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची का विषय है। केंद्र सरकार को या तो इस अधिनियम में संशोधन करना चाहिए और इसमें अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान करना चाहिए या फिर यह अधिनियम वापस लेना चाहिए।

केंद्र सरकार का यह कानून अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों (अल्पसंख्यकों समेत) के हितों के विरुद्ध है। इस तरह देश में शिक्षा के कुछ ऐसे केंद्र बन जाएँगे, जो भारतीय संविधान में वर्णित विशेष अवसर के सिद्धांत की अवहेलना करेंगे, क्योंकि संसद में पारित एक कानून उन्हें इसकी इजाजत देगा। साथ ही, विदेशी शिक्षण संस्थान (प्रवेश एवं संचालन विनियमन) विधेयक २०१० में विदेशी शिक्षण संस्थानों की परिभाषा भी ऐसी बनाई गई है कि देश के कई शिक्षण संस्थान या उनके कुछ हिस्से विदेशी शिक्षण संस्थान कहलाने लगेंगे। इस अधिनियम के खंड (१) (१) (ई) में विदेशी संस्थानों की परिभाषा बताई गई है। इसके तहत जो विदेशी संस्थान भारतीय संस्थान के साथ मिलकर या साझीदारी से चलेंगे, वे भी विदेशी शिक्षण संस्थान माने जाएँगे। विदेशी शिक्षण संस्थानों को मिलने वाली छूट (मिसाल के तौर पर आरक्षण लागू न होना) को देखते हुए कई भारतीय शिक्षण संस्थान इसी मकसद से विदेशी शिक्षण संस्थानों के साथ साझीदारी कर सकते हैं। अधिनियम के तहत सरकारी संस्थानों को भी ऐसी साझीदारी करने से रोका नहीं गया है। अधिनियम में इस बात की व्याख्या नहीं की गई है कि किस तरह के भारतीय संस्थान विदेशी संस्थानों के साथ तालमेल कर सकते हैं और किन संस्थानों पर इसके लिए रोक है। इस मामले को खुला रखने का मतलब है कि सरकारी संस्थान भी विदेशी संस्थानों के साथ तालमेल कर सकते हैं। इस तरह एक ऐसा सिलसिला शुरू हो सकता है जो भारत में शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान को खत्म कर देगा।

सरकार और खासकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय की नीयत पर संदेह इसलिए भी होता है क्योंकि हाल ही में कैबिनेट ने एक ऐसा कानून पारित किया है जिससे केंद्र सरकार के शिक्षण संस्थानों को ओबीसी आरक्षण लागू करने के लिए तीन साल की और मोहलत मिल जाएगी। उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण लागू करते समय केंद्र सरकार ने तीन साल की मोहलत दी थी, क्योंकि कुछ शिक्षण संस्थान एक साथ २७ प्रतिशत प्रतिशत आरक्षण लागू करने में असमर्थता जता रहे थे। इस प्रावधान के लागू हुए तीन साल बीत गए हैं। कुछ शिक्षण संस्थानों ने तीन साल की समय-सीमा में भी आरक्षण लागू नहीं किया है। ऐसे शिक्षण संस्थानों के संचालकों पर केंद्रीय शिक्षण संस्थान (दाखिले में आरक्षण) कानून, २००६ के उल्लंघन के आरोप में कार्रवाई की जानी चाहिए। लेकिन ऐसा न करके उन्हें ओबीसी आरक्षण को तीन साल तक और लंबित करने का वैधानिक अधिकार दिया जा रहा है। समय सीमा में आरक्षण लागू न करने पर कार्रवाई न करने से सभी शिक्षण संस्थानों को गलत संदेश भी जाएगा। लेकिन सरकार को इसकी परवाह नहीं है। सरकार ने आरक्षण लागू न करने ना को दंडनीय क्यों नहीं बनाया है, यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए। संवैधानिक प्रावधानों का पालन न करने वालों पर कार्रवाई करने की कोई व्यवस्था होनी चाहिए।

यह सच है कि वर्तमान में केंद्र और राज्य सरकारें निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण लागू करने से परहेज करती हैं। लेकिन ऐसा करने का कानूनी अधिकार उसके पास है। विदेशी शिक्षण संस्थान अधिनियम राज्य और केंद्र सरकारों को इस अधिकार से वंचित करने का रास्ता साफ कर देगा क्योंकि कोई निजी शिक्षण संस्थान नए कानून का हवाला देकर अदालत से यह माँग कर सकता है कि विदेशी शिक्षण संस्थानों की तरह उन्हें भी आरक्षण लागू न करने की छूट दी जाए। आरक्षण के सवाल पर अदालतों का आम तौर पर जो रूख रहा है, उसे देखते हुए निजी शिक्षण संस्थानों की यह बात मान ली जाए, तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वैसे भी सुप्रीम कोर्ट पी ए इनामदार केस में यह कह चुकी है कि निजी शिक्षण संस्थानों पर आरक्षण लागू करने की बाध्यता नहीं होनी चाहिए।

इसी तरह अभी केंद्र और राज्य सरकारों को निजी शिक्षण संस्थानों की फीस को नियंत्रित करने का अधिकार है, जिसका वह अक्सर इस्तेमाल नहीं करती। लेकिन नया अधिनियम उसके हाथ से यह अधिकार भी छीन लेगा। भारत जैसे गरीब देश में सरकारों को फीस के नियंत्रण की दिशा में सक्रिय होना चाहिए। लेकिन सरकार ऐसा करने की जगह अपने हाथ काट लेना चाहती है। विदेशी संस्थानों के भारत में आने के बाद देश में शिक्षा के कुछ अभिजन टापू बन जाने का खतरा बढ़ जाएगा क्योंकि ये संस्थान न तो आरक्षण लागू करेंगे न ही फीस के मामले में किसी के नियंत्रण में होंगे और वे यह सब कानूनी तौर पर करेंगे। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में विस्तार की असीम संभावनाएँ हैं। बड़ी संख्या में युवाओं को उच्च शिक्षा के अवसर मिलने चाहिए और इसके लिए बड़ी संख्या में शिक्षण संस्थान खुलने चाहिए। लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में विस्तार के नाम पर समता और समानता की संवैधानिक व्यवस्थाओं की धज्जियाँ उड़ाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। लोककल्याणकारी राज्यों में स्वास्थ्य और शिक्षा की मुख्य जिम्मेदारी सरकार की होती है। इसकी अनदेखी करके भारत लोककल्याणकारी राज्य नहीं बना रह सकता। 

इस पक्ष का एक दूसरा पहलू यह भी है कि - एक सपना बेचा जा रहा है- देश में रह कर विदेशी विश्वविद्यालयों से पढ़ाई और डिग्रियों का सपना। इससे उच्च मध्यवर्ग का एक हिस्सा खुश है और उसके साथ ही दूसरे तबके भी यह उम्मीद पाले हुए हैं कि उनके दिन सुधरेंगे। जो काम यह सरकार नहीं कर पाई, उसे विदेशी विश्वविद्यालय पूरा करेंगे। वे उच्च शिक्षा से वंचित रह गए बाकी के ८९ प्रतिशत छात्रों को पढ़ाएँगे। लेकिन जमीनी सच्चाइयाँ बताती हैं कि यह झूठ है और विदेशी विश्वविद्यालयों को कमाई करने और भारतीय छात्रों को लूटने की इजाजत देने के लिए इस सपने की ओट ली जा रही है। निजी क्षेत्र के लिए दरवाजे खोलते समय ऐसे ही दावे हर बार किए गए- भूख से बाजार बचाएगा, किसानों को बाजार अमीर बनाएगा, बीमारों की सेहत बाजार सुधारेगा, बच्चों को बाजार पढ़ाएगा। इस कह कर सार्वजनिक वितरण प्रणाली खत्म कर दी गई, किसानों को दी जा रही रियायतें बंद कर दी गईं, स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च में भारी कटौती हुई और सरकारी शिक्षा व्यवस्था को आपराधिक प्रयोगों की प्रयोगशाला बना दिया गया। और नतीजा? भूख से पीड़ित और मर रहे लोगों की संख्या बढ़ रही है। खेती बरबाद हो रही है और किसान आत्महत्या कर रहे हैं। साधारण इलाज से ठीक हो सकनेवाली बीमारियों से भी लाखों लोग (बच्चों समेत) हर साल मर रहे हैं। ६ से १५ साल के २० प्रतिशत बच्चे अब भी स्कूल से बाहर हैं और जो स्कूल जाते हैं, उन्हें निम्नस्तरीय शिक्षा हासिल हो रही है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में किए जा रहे दावे का भी यही परिणाम होगा, यह तय है। इसके जो लक्ष्य बताए जा रहे हैं, वे कभी पूरे नहीं हो सकेंगे। लेकिन इसके साथ ही, हम सामाजिक रूप से इसकी जो कीमत चुकाने जा रहे हैं और दशकों के संघर्षों के बाद हासिल किए गए अधिकारों को भी, जो वैसे अब भी पूरी तरह लागू नहीं किए जा रहे हैं, खोने जा रहे हैं।

 

१२ जुलाई २०१०