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साहित्य
का सामाजिक प्रभाव
- श्यामाचरण दुबे
यह आलेख
प्रसिद्ध समाज शास्त्री प्रो श्यामाचरण दुबे द्वारा गो व
पंत समाज संस्थान द्वारा आयोजित 'साहित्य एवं सामाजिक
परिवर्तन' विषय पर आयोजित संगोष्ठी में दिए गए व्याख्यान
पर आधारित है।
पिछले दशक में
साहित्य की स्वायत्तता की चर्चा बहुत हुई है। एक सीमा तक
साहित्य स्वायत्त भी हो सकता है। पर स्वायत्तता को उस
सीमा से बाहर ले जायें और कहें कि हम अपना अलग समाज
दर्शन विकसित करेंगे, इतिहास विधि विकसित करेंगे।
समाजशास्त्र विकसित करेंगे तो कुछ गम्भीर प्रश्न हमारे
सामने आते हैं।
इतिहास के अध्ययन की जो नई विधा विकसित हो रही है, उसमें
लोक साहित्य का बड़ी मात्रा में उपयोग किया जा रहा है।
एक जो विवरण का इतिहास था, उससे अलग इतिहास में प्रयोग
हो रहे हैं और ऐसे ग्रन्थ मौखिक विवरण पर आधारित होते
हैं।
जहाँ तक सामाजिक इतिहास की बात है, जिसे एक सीमा तक आप
सांस्कृतिक इतिहास कह सकते हैं, उसमें साहित्य का प्रचुर
प्रयोग हुआ है। आज का दार्शनिक भी एकान्त वैयक्तिक
चिन्तन में ही नहीं उलझा रहता, लोक दर्शन के प्रश्न भी
दार्शनिकों के लिए और उनके एक वर्ग के लिए महत्त्वपूर्ण
हो रहे हैं। जहाँ तक सामाजिक विज्ञानों की बात है हम
साहित्य को छोड़ नहीं सकते, क्योंकि सामाजिक दस्तावेज के
रूप में जो हमारे सामने आता है हम उसकी सामर्थ्य पर
चिन्तन करें। उसकी सीमाओं पर विचार करें और सामाजिक
प्रक्रियाओं को समझने के लिए चाहे वह निरन्तरता का
प्रश्न हो या परिवर्तन का प्रश्न हो, साहित्य का उपयोग
बहुत सार्थक रूप से किया जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ साहित्यकार ही चाहते हैं कि
इतिहासकार, दार्शनिक, समाज वैज्ञानिक साहित्य के क्षेत्र
में हस्तक्षेप न करें। हमारी अपनी कमजोरियाँ भी हैं। एक
समय अर्थशास्त्र का ऐसा रूप था, जब प्रो. मेहता उस समय
इलाहाबाद में थे। प्रो. राधाकमल मुखर्जी और प्रो. डी.
पी. मुखर्जी जो अर्थशास्त्री थे, लेकिन उनका क्षेत्र
व्यापक था। दोनों ने नैतिक प्रश्नों को अर्थशास्त्रीय
व्यवहार और सिद्धान्त से जोड़ा। डी. पी. साहित्य, संगीत,
कला इनको लेते हुए चलते थे और अर्थशास्त्र को एक आकर्षक
रूप देते थे, क्योंकि जीवन के सन्दर्भ उससे कटे नहीं थे।
धीरे-धीरे अर्थशास्त्र का रूप बदला। राधाकमल और डी. पी.
का अर्थशास्त्र कविता माना जाने लगा।
इकोनामिक्स का प्रचलन बढ़ा और जो गणित और सांख्यिकी के
सिद्धान्तों से प्रमाणित हो सके उन्हें ही असली
अर्थशास्त्रज्ञ माना जाने लगा। फिर भी एक प्रतिक्रिया हो
रही थी। भारत के एक बहुत समर्थ अर्थशास्त्री अमृत्य
कुमार सेन इस समय दो विषयों के एक साथ प्रोफेसर हैं--
अर्थशास्त्र के तो हैं ही और शायद मॉरल फिलासफी के भी,
हावर्ड जैसे विश्वविद्यालय में होने के कारण उनकी
स्वीकृति पर कोई प्रश्न चिन्ह लगाना बड़ा गलत होगा।
हमारे समाज विज्ञानों में एक बार हमने उसके इतिहास से
सम्बन्ध रखा था। परम्परा के प्रश्नों पर हम विचार करते
थे।
उसके बाद प्रकार्यवाद, संरचनावाद आया और उसके बाद हम
इसमें बुरी तरह से उलझ गये कि इतिहास बेकार है, दर्शन के
प्रश्न बेकार हैं, शुद्ध सामाजिक तथ्यों के ही रूप में
समझना चाहिए और इसमें हमें परम्परा और इतिहास में कोई
सहायता नहीं मिलती है। साहित्य और संस्कृति उनके उभरते
रूप के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी इन वादों से जुड़े
हैं। एक बड़ी संभ्रम की स्थिति है कि हम कहाँ जाये,
कितना दूसरों से संवाद करें और कर्मकाण्डीय शुचिता जो
हमारे विषयों के साथ जुड़ गई है उसमें हम नये-नये अछूत
पैदा कर रहे हैं। समाजशास्त्री ने दखल दिया तो साहित्य
बिगड़ जायेगा और समाजशास्त्री साहित्य से आखिर क्या
सीखेगा। उसमें कल्पनाओं की उड़ान ज्यादा है।
मेरा ख्याल है कि अब समय आ गया है कि हम विषयों के
अभिजात्य को छोड़कर एक अन्तरअनुशासनिक संवाद स्थापित
करें जो स्वायत्ता में हस्तक्षेप न करें। किन्तु नई
दृष्टियाँ विकसित करने में सहायक हो। जहां तक साहित्य की
बात है, मेरा ख्याल है कि मैं समाजशास्त्र भले पढता़
रहूँ पर कोई सत्ता ऐसी नहीं है जो मुझे साहित्य पढ़ने से
रोक दे। मुझे साहित्य पढ़ना अच्छा लगता है, इसीलिए पढ़ता
हूँ। पढ़ने के बाद यदि उसका कुछ उपयोग हो सकता है तो वह
उपयोग करना भी ठीक रहता है। कार्नेल विश्वविद्यालय में
मैं पढ़ रहा था। पारिवारिक स्थितियों का चित्रण करने के
लिए राजेन्द्र यादव के 'सारा आकाश' का उपयोग किया।
शिकागो में मुझे कुछ सेमिनार लेने थे। गाँव में जो
गुटबन्दी है उस पर बोलना था। ज्यादा कुछ कहना नहीं था।
तीन दिन दो-दो घण्टे मैं 'राग दरबारी' की कथा उन्हें
सुनाता रहा और जिसमें गुटबन्दी की बातें थीं, उन्हें कुछ
विस्तार से बताया। मैं समझता हूँ जो वर्णन दलबन्दी के
मिले हैं, उसे राग दरबारी एक सृजनशील साहित्यकार की रचना
हमें बहुत कुछ देती है। राजेन्द्र जी का कहना है कि
'सारा आकाश' उनकी दृष्टि से अच्छा उपन्यास नहीं है। मेरा
कहना है उपन्यास अच्छा है या नहीं, इसके निर्णय दो लोग
करते हैं।
आलोचक करते हैं -- उनका अभिमत महत्त्वपूर्ण होता है। पर
जहाँ तक उसके सामाजिक उद्देश्य की बात है आलोचक उस पर
विचार करें। यह शुद्ध शास्त्रीय दृष्टि होनी चाहिए।
आलोचक के साथ पाठक का भी अभिमत बहुत महत्त्वपूर्ण होता
है और मेरा ख्याल था कि जिस स्थिति का वर्णन हम करना
चाहते थे वह उपन्यास अच्छा था। मुझे बड़ी खुशी है कि
पाण्डेय जी के नेतृत्व में इलाहाबाद म्यूजियम और
नागेन्द्र जी के नेतृत्व में जी. बी. पन्त इन्स्टीट्यूट
इन अस्पृश्य विषयों पर भी जो विवादास्पद हो सकते हैं पर
जिन पर संवाद जरूरी हैं, इस तरह का आयोजन कर रहें हैं।
साहित्य दर्शन के बाद कैसे हुआ इसके बारे में
निश्चयात्मक रूप से कुछ कहना कठिन है। जहाँ तक वाक्शक्ति
की बात है मानव स्तम्भ प्राणी जो पूरी तरह से मानव कहीं
बन सका था, सीमित वाक् शक्ति उसकी विकसित कर गयी। वैसे
बड़े होते-होते रह गया। पर वाक्शक्ति वाणी, शब्दों को
अर्थ दे सकने की क्षमता को हमने धरोहर में पाई थी। यह
ठीक है कि वह सब विषय बहुत सीमित हैं, पर यह अनुमान करना
कठिन है कि उस सीमित शब्द शक्ति और मानव के (सर्जनात्मक
एवं चिंतन पक्ष में) अंत:संबंध कैसे विकसित हुए।
जब उसने साहित्य की रचना की, साहित्य के आद्य रूप की
रचना की, उस साहित्य के अवशिष्ट आज हमें नहीं मिलते। यह
कहना कठिन है कि इस आदि साहित्य का कितना अंश परम्परा से
लोक संस्कृतियों में आया और आज भी जीवित है। पर जहाँ तक
सृजन सौंदर्यबोध की बात है आस्ट्रेलिया के आदिवासी संसार
के सबसे विकसित आदिवासी माने जाते हैं। हालांकि इतनी
संश्लिष्ट सामाजिक संरचना दुनिया में बहुत कम जगह देखी
जा सकती है। पर अभी कुछ वर्ष पूर्व जो भित्तिचित्र
आस्ट्रेलिया में मिले, उनमें अमूर्त कला का बहुत सुन्दर
प्रदर्शन हुआ है। तो मानव का मस्तिष्क जो निर्माण करता
है, सांस्कृतिक विकास के स्तर से शायद उसका बहुत सम्बन्ध
नहीं होता।
भारत में, यूरोप में इस तरह की कला बहुत मिलती है जो कुछ
प्रश्न हमारे सामने प्रस्तुत करती है और वह यह कि
कलात्मक विकास और सांस्कृतिक विकास का कुछ सम्बन्ध हो
सकता है और कला के कुछ रूप ऐसे हैं कि जिनका शायद मानव
की सृजन शक्ति से ज्यादा निकट का सम्बन्ध है। निश्चय है
कि मौखिकता पहले आई, लिपिबद्धता उसके बाद आई। पर मौखिकता
आज भी लिपिबद्धता से अधिक महत्त्वपूर्ण है। हमें जो कहना
है वह हम लिखकर भी कहते हैं, पर सम्प्रेषण की दृष्टि से
मौखिकता का हमेशा आश्रय लेना पड़ता है अपने विचारों के
प्रसारण के लिए।
मौखिक साहित्य के आदि रूपों के सम्बन्ध में कुछ कहना
कठिन है। एक समूह जो (इस काम में जुटा) और समाज
वैज्ञानिक व्यवस्था से जुड़ा उन्हें समाज में, उन्हें
विश्व में पाँच हजार छ: सौ समाजों की गणना करनी पड़ी,
जिन्हें स्वतन्त्र समाज माना जा सकता है। इस गणना का
मानक आधार कुछ मूलभूत प्रश्न उठाता है, पर बहस की शुरूआत
के लिए मेरा ख्याल है कि हम इस संख्या को मान सकते हैं।
अब इसमें अट्ठाइस समाज ऐसे मिले जिनमें लोरियाँ नहीं थी।
अब गणना की भूल हो सकती है। उसके बाद उसमें एक टिप्पणी
थी कि उन्हीं लोरियों की गणना की गई है, जिनके शब्दों के
कुछ अर्थ होते हैं। सिर्फ ध्वनियाँ हैं जिनमें लय है ताल
है पर अर्थ नहीं है उन्हें हमने लोरियाँ नहीं माना है।
खैर वो तो साहित्य नहीं हो सकती। कोई ऐसा समूह नहीं है
जिसमें मिथक न हो। यह सम्भव है कि उसने अपने मूल मिथकों
को त्याग दिया हो और लय में स्वीकार कर लिया हो पर यह भी
सच है कि एक नया धर्म एक नई संस्कृति लेने के बाद
अफ्रीका में कुछ ईसाई हुए, कुछ मुसलमान बने और वहाँ
मैंने उनसे पूछा कि भई ये क्या हुआ तो उनका जवाब था कि
हमें तो एक पैकेज मिल रहा था और उसके साथ हमने इस्लाम भी
ले लिया।
यहाँ ईसाईयत को स्वीकार किया, पर इस्लाम़ी परिवेश में
ईसाई परिवेश में आज भी हमारी परम्परायें जी रही हैं।
मध्य दक्षिण अमेरिका में ईसाई धर्म तो स्वीकार कर लिया
गया पर आश्चर्य होगा कि वर्जित नारी का रूप वो दिव्य रूप
है, जिसने एक दिव्य बालक को जन्म दिया पर साथ ही उसका
खूंखार रूप भी है जो बदला लेती है, जो रक्त हो जाती है
जिसमें क्षमा नहीं और ये दो परम्परायें एक साथ उस मौखिक
साहित्य में हमें मिलती हैं। यदि साहित्य के सामाजिक
प्रभावों का हमें अध्ययन करना है तो निरंतरता के
दृष्टिकोण से और परिवर्तन के दृष्टिकोण से हमें अपनी
मौखिक परम्परा को बड़े गम्भीर रूप से देखना होगा। यह भी
सच है कि जो लिपिबद्ध परम्परा है, उसके निर्माण में
मौखिक परम्परा का बहुत जबर्दस्त हाथ रहा है।
आखिर पंचतंत्र, हितोपदेश या उससे अलग हटकर सहस्त्र रजनी
चरित इनका मौखिक परम्परा में विकास हुआ, ये लिपिबद्ध हुए
और आश्चर्य की बात यह है कि इस लिपिबद्ध परम्परा ने नई
मौखिक परम्पराओं को जन्म दिया। सहस्त्र-रजनी-चरित्र ईरान
में तीन रूपों में मिलता है और पुस्तकों में आ जाने के
बाद इन पुस्तकों का व्यापक प्रसार हुआ और यही कहानियां
नये चरित्र के साथ आकृति कृत हुई जिसके बारे में हमें
पता है, प्रामाणिक सन्दर्भ उपलब्ध हैं। पर जो अभिप्राय
था, मूल भाव इनका था वो नहीं बना।
वैसे तो होमर और इलियट को लेकर कहें कि मौलिक परम्परा से
लिखित परम्परा में आया तो कुछ विवाद हो सकता है, पर मेरे
ख्याल से अब निर्णायक मत इस पक्ष में है कि मौखिक
परम्परा का ही वह अंग था, जो सूक्ष्म विश्लेषण के बाद
लिपिबद्ध रूप में महाकाव्य से अधिक लोककाव्य के रूप में
(जिसका इस ग्रन्थ में बड़ा ही महत्त्व है), माना जाएगा।
जहाँ तक ईसाई देशों की परम्परा की बात है कह नहीं सकते
कि रामकथा मौखिक रूप में पहले आई या महर्षि वाल्मीकि ने
उसे प्रस्तुत और तुलसीदास ने लोकप्रिय किया। पर असम से
लेकर केरल तक भारत की प्राय: सभी भाषाओं में इसके स्वरूप
मिलते हैं। पर वह मर्यादा पुरूषोत्तम राम की परिकल्पना
है। मौखिक साहित्य पता नहीं वह नामवर जी की दूसरी
परम्परा में है या तीसरी में कि आन्ध्र प्रदेश की
महिलाएँ नारीवाद के आविष्कार के बहुत पहले ही अपने
संगीतात्मक संवाद में सीता को निर्मित मानकर नारी का जो
शोषण हुआ है; नारी पर जो अत्याचार हुआ है, उस पर गीत
गाया करती थीं। पुरूष उसमें सम्मिलित नहीं हो सकते थे।
अब तो प्रौद्योगिकी इतनी बढ़ गई है कि प्रो. रामानुजम ने
रेकार्डिंग से उसका टेक्स्ट प्राप्त किया और उसका गम्भीर
विश्लेषण कर रहे हैं और जाहिर है उनके कार्य को कोई न
कोई जरूर पूरा कर लेगा।
कर्नाटक को आप लीजिए। बात यह है कि दशरथ जातक में कुछ
लिख दिया तो उस पर तूफान उठ खड़ा हुआ, पर कर्नाटक में आज
भी सैंकड़ों गाँवों में यह रामकथा गायी जाती है जिसमें
यह बताया जाता है कि सीता रावण की पुत्री थी और हुआ यह
कि भगवान शिव से रावण आशीर्वाद माँगने गया। चौदह वर्षों
तक साधना की। पार्वती के हस्तक्षेप के बाद शिव ने कहा
माँगो क्या चाहते हो। उसने कहा कि मुझे अद्भुत गुणी
पुत्र चाहिए। शिव जी ने उसे आम दिया और कहा कि थोड़ा तुम
खाओ और ज्यादा मन्दोदरी को दो, तब तुम्हें पुत्र
प्राप्ति होगी। रावण ब्राम्हण थे, विद्वान थे पर वो जो
राक्षसी वृत्ति थी उन्हें चैन से नहीं रहने देती थी।
उन्होंने रास्ते में आम खाया बड़ा मीठा लगा और वह भूल
गये कि मन्दोदरी को ज्यादा खिलाना है और सारा आम खा गये।
गुठली बची और उसे मन्दोदरी को दिया। शिवजी का आम था उसका
प्रभाव होना ही था, सो रावण को खुद गर्भ रह गया। उसमें
भी अद्भुत शक्तियाँ थीं। जिस प्रकिया में नौ माह लगते
हैं, वह रावण के शरीर में नौ दिन में पूरी हो गई और
कन्नड़ भाषा में सीता छींक के अर्थ का प्रयोग होता है।
रावण सीता को किस तरह जन्म दे? उसे भयंकर छींक आई और एक
सुन्दर सुकोमल बालिका रावण की गोद में आ गयी।
मैं यह कह रहा था कि लोक परम्परा के कुछ अंश तो समृद्ध
साहित्य की धारा में आते हैं, पर उसके कुछ आकर्षण हैं
जिनका विश्लेषण करना चाहिए। इस परम्परा में नहीं आते,
फिर भी जहाँ तक लेन-देन की बात है मौखिक परम्परा और
सम्पृक्त परम्परा दोनों में विनिमय होता है। मिथक,
वीरगाथाएँ गीत जिन्हें कविता भी कह सकते हैं, ये सब लोक
परम्परा में हैं। पर यदि सहित्य के कुछ आदि नमूनों को हम
देखें मध्यपूर्व में, मिस्त्र में, कीलाक्षरों से लिखा
हुआ जो साहित्य है यह तो आप जानते हैं कि इस लिपि का
प्रयोग उत्कृष्ट साहित्य का सर्जना के लिए नहीं हुआ था।
ऐसी टिप्पणियाँ या ऐसे नोट्स के लिए इस लिपि का प्रयोग
हुआ था, जिसमें व्यापार का कुछ हिसाब-किताब रखा जा सके।
फिर भी यहां का जो प्रज्ञान साहित्य है, जिसके थोड़े से
नमूने हमें मिलते हैं जो कुछ नई कविता के जैसे दिखाई
पड़ते हैं, पर जिनमें लघुकथा की चमत्कारिता रहती है और
एक नैतिक सन्देश भी। इसके विपरीत चीन में जिस चित्राक्षर
से कविताएँ और उनके बाद छोटी-छोटी नीति कथाएँ लिखी गयीं,
उसमें बाहुल्य प्रकृति का सौंदर्य है और बिना उपदेशात्मक
हुए कुछ नैतिक संदेश दे देता है। वो आदि रूप आरम्भिक रूप
से एक विचित्र विविधता इस साहित्य में दिखाई पड़ती है और
मैं समझता हूँ कि समाज और संस्कृति को समझने के लिए हमें
मौखिक और लिखित दोनों परम्पराओं और अन्तरावलम्बन और उनके
अन्त:सम्बन्धों के सम्बन्ध में भी विचार करना चाहिए।
मौखिक साहित्य की बात छोड़िए, आज जो साहित्य हमारे सामने
है उसको लेकर कौन से प्रश्न महत्त्वपूर्ण हैं। पहला तो
यह कि लिखता कौन है -- भोजपत्र, ताड़पत्र पर जो साहित्य
लिखा गया लिखने वाले का वंशचरित किस समूह से आया है जो
लेखन को प्रभावित करता था। धर्म अधिक था पर उसके साथ-साथ
सृजनशीलता के भी कुछ पक्ष जुड़े थे। धर्म के रूप में
महत्त्व संदिग्ध था, पर लौकिक अर्थों में भी अलौकिक की
भावना को निकाल दें तो साहित्य का रूप उभर जाए।
दूसरा प्रश्न यह है कि पढ़ता कौन है? पण्डित जी ने पोथी
लिखी। कभी पढ़ने के समय उसका नमन किया गया, फिर बाँध कर
रख दी गयी और यह ज्ञान था जो बहुतों को उपलब्ध नहीं था,
इसकी पहुँच नहीं थी इससे भी समस्याएँ उठीं। ज्ञान पावन
था, पवित्र था, अलौकिक था इसकी पहुँच सीमित करने के
प्रयत्न किये गये कि इस ज्ञान की अलौकिक शक्ति का उपयोग
वर्ग हित में किया जा सके। साहित्य के रूप में निसं:देह
उत्कृष्ट था, पर जब तक उसकी पहुँच व्यापक नहीं होती,
उसका सामाजिक प्रभाव भी अत्यन्त सीमित होता। प्रयोग किये
गये- अशोक ने जो संदेश शिलालेखों पर देश भर में दिया वह
आज भी हमारे बीच है। पर उसका प्रभाव कितना हुआ? पढ़ने
वाले कितने मिले? इसके सम्बन्ध में कुछ कहना कठिन है।
चीन में लकड़ी के ब्लाक्स बनाये गये और उनकी संख्या इतनी
अधिक थी और इतना श्रम साध्य था उसे सीमित उद्योग करना कि
जिसका उपयोग जापान ने बाद में किया और वहाँ साहित्य का
प्रचार एवं सीमित हिस्से में हुआ। यह तो गुटवर्ग
क्रान्ति के बाद सचल टाइप के आविष्कार के बाद मुद्रण
सम्भव हुआ, पर उससे जो लिपिबद्ध रूप आया और सबसे पहली
किताब बाइबल अनेक रूपों और आकारों में छपी और जब वह छपी
तो चर्चा में एक खलबली मच गई। अब तक धर्म-प्रचारकों के
हाथ में जो शक्ति थी- वह ज्ञान सामान्य रूप से लोगों को
मिलेगा और इसका क्या परिणाम होगा?
ज्ञान को सीमित करने के प्रयत्न भारत में भी हुए।
रामानुज का किस्सा मशहूर है कि उन्हें ज्ञान की उपलब्धि
हुई तो उनसे कहा गया कि इस ज्ञान को आप स्वयं अपने पास
रखिए। स्वर्ग के द्वार आपके लिए खुले रहेंगे। रामानुज ने
सोचा कि व्यक्तिगत मोक्ष से सार्वजनिक लाभ ज्यादा
महत्त्वपूर्ण है और मन्दिर पर चढ़े तथा समाज के विपन्न
अस्पृश्य दलित वर्ग को उन्होंने ज्ञान दिया। पता नहीं वे
स्वर्ग पहुँचे या नहीं, लेकिन एक भावना उनमें जो विकसित
हुई वह बहुत महत्त्वपूर्ण थी। तो आज के भी सन्दर्भ में
हम देखें कि लिखता कौन है? और पढ़ता कौन है तथा कौन क्या
लिखता है क्या पढ़ता है? आज भी बहुत अच्छे साहित्य का
निर्माण हो रहा है, पर अच्छी साहित्यिक किताब दो या तीन
हजार भी बिक जाएँ तो बड़ी बात है। 'वर्दी वाला गुण्डा'
पाँच लाख छपी और बिक भी गई। मैंने उसे पढ़ा नहीं, परन्तु
पढ़ना चाहता हूँ।
तो लेखकों के धरातल हैं, पाठकों के धरातल और साथ में
प्रकाशकों के भी धरातल हैं। यह कहना कि हम शब्दों से
क्रान्ति कर सकते हैं, कविता से क्रान्ति कर सकते हैं,
मेरा ख्याल है कि यह फिजूल की बातें हैं। क्योंकि कविता
कबीर की जन-जन तक पहुँची, पर हम वह कविता नहीं लिख रहे
हैं, जो जन-जन तक पहुँच सके।
भारत-भवन में नई कविता की वापसी हो गई।
नई कविता आ गई, पुनर्स्थापित हुई और उसमें भी एक कवि आये
थे, मैंने उन्हें अपनी गाड़ी में लिफ्ट दिया। नामवर जी
को मैंने (सुना) उन्होंने अपना परिचय दिया और कहा
'देखिए प्रोफेसर साहब मैं जो कविता लिखता हूँ उसे कुल आठ
लोग समझ सकते हैं। मैंने बहुत ही प्रभावित होकर पूछा कि
अगर सिर्फ आठ लोग ही समझ सकते हैं तो उसे छपवाते क्यों
हैं? कार्बन पेपर लगाइए या टाइप कर दीजिए। आपकी रचना आप
कवि सम्मेलन में क्यों सुनते हैं अगर आठ ही लोग समझते
हैं तो आप अपनी छोटी-सी गोष्ठी अलग कर लीजिए हमें बोर
करने से क्या फायदा? जब आप जानते ही हैं कि मैं वो
समझूँगा ही नहीं तो फिर क्या फायदा?
मैं कहना यह चाहता हूँ कि साहित्य की पहुँच कितनी होती
है और पहुँच और प्रभाव में बड़ा निकट का सम्बन्ध है। आज
भी कबीर आस्थाओं को एक आधार देते हैं। नयी कविता चमत्कृत
करती है, कभी समझ में आती है, कभी समझ में नहीं आती। तो
एक शास्त्रीय परम्परा है एक प्रयोग की परम्परा है और एक
व्यावसायिक परम्परा है। जो कवि सम्मेलन बार-बार हमें
सुनने को मिलते हैं, उनकी बात मैं कर रहा हूँ। अलीगढ़ के
एक बड़े लोकप्रिय कवि हैं। वो कविता का जब पाठ करते हैं,
तब तो वह बहुत अच्छी लगती है, पर जब हम उसे पढ़ते हैं तो
वह कुछ जँचती नहीं। पर वैसे सम्मेलनों में कभी-कभी कुछ
अच्छी कविताएँ सुनने को मिलती हैं, लेकिन पढ़ने की
कविता, सुनने की कविता और व्यापक मंच से सुनने की में
बड़ा जबरर्दस्त अन्तर आ गया है।
वैसे मैं तो भोग चुका हूँ। मेरे पिताजी का ख्याल था कि
'भारत-भारती' मुझे कण्ठस्त करनी चाहिए क्योंकि गीता और
रामायण के बाद 'भारत-भारती' का प्रचार -प्रसार होगा और
आने वाली पीढ़ियाँ उसे देखेंगी। उस वक्त मुझे लग रहा था
कि मुझे तात्कालिक लाभ 'भारत-भारती' से हो सकता है। पर
अब जब नई पीढ़ी के लिए मैंने 'भारत-भारती' की प्रति
निकाली तो मुझे लगा कि अतीत को देखने की दृष्टि वर्तमान
को समझने की दृष्टि, भविष्य को प्रक्षेपित करने की
दृष्टि बड़ी ही सीमित थी। जिन प्रश्नों पर हमें विचार
करना है कि परिवर्तन साहित्य के रूप को किस तरह प्रभावित
करता है?
आज की नयी पीढ़ी जो पढ़ती
है, माइकल जैक्सन वाली पीढ़ी, साहित्य का एक नया रूप
चाहती है। हम कविता को 'रैप' बनाना चाहते हैं क्या? या
अर्थहीन शब्द योजना को कुछ रंगीन कर देना चाहते हैं।
वैसे जानकारी वाली किताबें बहुत आती हैं। अगर आप नोबुल
प्राइज की राजनीति और सेक्स नीति समझना चाहते हैं तो 'द
ब्राइस' पढ़ लीजिए। एयरपोर्ट में क्या घटित होता है
'एयरपोर्ट टू' पढ़ लीजिए। सेक्स सर्वे किस तरह से किए
जाते हैं 'चैपलिन रिपोर्ट' पढ़ लीजिए। इसी तरह की अन्य
पुस्तकें जानकारी बढ़ाती हैं और विचार शृंखला को निर्मित
करने में सहयोग देती है।