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१५. २. २०१०

सप्ताह का विचार- ईश्वर बड़े बड़े साम्राज्यों से ऊब उठता है किंतु छोटे-छोटे पुष्पों से कभी खिन्न नहीं होता  -रवीन्द्रनाथ ठाकुर

अनुभूति में- शिवाकांत मिश्र विद्रोही,  आलोक श्रीवास्तव, अरविंद चौहान और संजीव सलिल की वसंती रचनाओं के साथ संकलन- फागुन के रंग।

कलम गहौं नहिं हाथ- जब हम छोटे थे तो समझते थे कि वसंत पंचमी से लेकर होली तक वसंत की ऋतु होती है। वसंत के दिन...आगे पढ़ें

सामयिकी में- ताइवान के विकास, समृद्धि और स्वाभिमान का उल्लेख करते हुए वेद प्रताप वैदिक का आलेख- ताइवान से परहेज़ क्यों।

रसोईघर से सौंदर्य सुझाव - चाय के पानी में चुकंदर का रस मिलाकर ओंठों पर लगाने से उनका रंग गुलाबी होता है और वे फटते नहीं।

पुनर्पाठ में- फरवरी २००४ के अंक में प्रकाशित डॉ. मीनाक्षा स्वामी की वसंत ऋतु के अनुरुप मधुर प्रेम-में ढली कहानी - अमृत घट

क्या आप जानते हैं? कि वसंत पंचमी के दिन पूजी जाने वाली देवी सरस्वती को विद्या और ललित कलाओं की देवी माना जाता है।

शुक्रवार चौपाल- आज का दिन काजल ओझा वैद्य के गुजराती नाटक का हिंदी रूपांतर पढ़ने का था। रूपांतर डॉ. शैलेष उपाध्याय ने किया है... आगे पढ़ें

नवगीत की पाठशाला में- कार्यशाला-७ में वसंत विषय पर अभी तक २५ नवगीत आ चुके हैं। नई रचनाओं का प्रकाशन १५ फरवरी से प्रारंभ हो रहा है।


हास परिहास

1
सप्ताह का कार्टून
कीर्तीश की कूची से

इस सप्ताह वसंत विशेषांक में
समकालीन कहानियों में संयुक्त अरब इमारात से
स्वाती भालोटिया की कहानी- क्या लौटेगा वसंत

नदी किनारे, घास पर पग सहलाता, बौद्ध मंदिर को स्वयं में समाए टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर डोलता-सा रायन, अपने स्वच्छंद चेहरे पर धूप का ताप लिए, मेरी ओर ही चला आ रहा था। अपने गेरुए चोंगे में, सर मुँडाए, रायन मुझे सदा से किसी ऐतिहासिक बौद्ध भिक्षु की भाँति ही लगता है जो किसी ईश्वरीय माया से, धुंध उड़ाती दार्जिलिंग की पर्वत-शृंखलाओं के बीच, अनायास ही प्रकट हो गया हो। जब भी मैं ग्रीष्मावकाश में अपने वार्षिक भ्रमण के लिए दार्जिलिंग आती, रायन मुझसे यों ही रोज़ मिलने आता, पास बैठा-बैठा बातें करता, निहारता और लजायी-सी हताशा फैला जाता। इस बार भी पिता द्वारा सहेजकर बनवाई गई, बरसों पुरानी ईटों से बने श्वेत घर का पल्लवित आकर्षण कलकत्ता शहर के कोलाहल से दूर मुझे इस हरित भूमि में खींच ही लाया। प्रवेश द्वार पर पत्थर की सीढ़ियों के किनारे, गेरू पुते गमलों पर खिले, केसरी फूल, जीवन के किसी भी पड़ाव पर, मन को सुवासित करने में आज भी चूके नहीं हैं। आगे पढ़ें...
*

अशोक गीते का व्यंग्य
चल वसंत घर आपणे
*

ऋषभदेव शर्मा का निबंध
रंग गई पग पग धन्य धरा

*

कमला निखुर्पा का संस्मरण
ऋतुगीत की खामोशी

*

होली के स्वागत के लिए
नीलम जैन के साथ सजाएँ-सुंदर घर

पिछले सप्ताह

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' का व्यंग्य-
लूट सके तो लूट
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डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव का दृष्टिकोण
हिंदी के ये उत्सव ये सम्मेलन

*

विज्ञानवार्ता में डॉ. गुरुदयाल प्रदीप
का आलेख- हाय रे दर्द
*

समाचारों में
देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक सूचनाएँ

*

समकालीन कहानियों में भारत से
डॉ. श्यामसखा 'श्याम' की कहानी आखिरी बयान

मैंने जिन्दगी भर किसी से कुछ नहीं कहा, आज कह रहा हूँ, अगर आप सुन लें तो मेहरबानी होगी। वैसे भी मैं आज नौकरी से रिटायर हुआ हूँ, पूरे साठ साल का होकर। साठ साल तक जो आदमी पहले माँ-बाप की, फिर बीवी-बच्चों, सहकर्मियों की सुनता आ रहा हो, उसे इतना हक तो है कि वह आज कुछ कह सके। फिर आपने खुद ही मुझे दो शब्द कहने के लिए, मेरे विदाई समारोह के मंच पर बुलाया है। मेरे खयाल से जिन्दगी सचमुच एक दुर्घटना है और किसी के लिए हो ना हो कम से कम मेरे लिए तो जरूर है। दोस्तों! हालाँकि मैं नहीं जानता, आप में से कितने मेरे दोस्त हैं शायद कोई भी न हो। लेकिन आज सबने अपने भाषण में मुझे अपना दोस्त और एक अच्छा आदमी बतलाया है, जो शायद वक्त की नजाकत थी, वक्त का तकाजा था, क्योंकि हम हर दिवंगत को अच्छा ही कहते हैं यही रिवाज है पूरी कहानी  पढ़ें...

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