ऋतुगीत की
खामोशी
कमला
निखुर्पा
उत्तरांचल की
हरी-भरी पहाडि़यों में धीरे-धीरे सुबह का उजाला फैलने लगा। माँ
ने मुझे जगाया और खिड़की खोल दी। धूप की किरणें मेरे घर की
खिड़की से अंदर प्रवेश करने लगी। अलसाकर मैंने आँखें खोली।
गुलाबी ठंड के मौसम में खिड़की से छनकर आती धूप की गर्माहट से
मैं फिर से नींद के आगोश में चली गई।
चिडि़यों की
चहचहाहट, गाय का अंबे-अंबे कहकर रँभाना सुनकर मैं जाग गई, देखा
कि बाहर आँगन के कोने में स्थित शिलींग का विशाल पेड़ पीले फूलों
से लद गया है। उसकी महकती खुशबू पूरे वातावरण को सुवासित कर रही
है।अपने घर के सामने छोटे-छोटे सीढ़ीदार खेतों के किनारे
रंग-बिरंगे फूलों से ढँक गए हैं। पीले-पीले प्योंली के नाजुक फूल
मानो मुस्कराकर मुझे शुभ प्रभात कह रहे थे। प्रकृति के मनमोहक
रूप को देखकर मैं ठगी-सी रह गई।
अचानक मधुर स्वर लहरी गूँज उठी।
आयो बसंत...
सखी बन फूले रे...
ढोलक की थाप और
मधुर कंठ स्वर सुनते ही मानो मन-मयूर नृत्य करने लगा, पैरों को
पंख लग गए। आज रुक्मा और देबू ऋतुगीत गाने के लिए आ रहे हैं।
रुक्मा-दुबली-पतली मंझोले कद और सांवले रंग की युवती है। ढेर
सारा तेल लगाकर चोटी बाँधती है। गुस्याणी (मालकिन) से माँगी हुई
धोती पहनकर दुग्ध धवल दंतपंक्ति को चमकाती हुई सजी-धजी हमारे
आँगन में खड़ी हो गई। हम बच्चों की बानरसेना देखकर उसने अपनी
धोती के पल्लू को कमर में खोंस लिया और बड़े मान से पैरों में
घुँघरू बाँधने लगी। सीधा-सामग्री रखने के लिए वह हमेशा अपने साथ
सूप रखती थी जिसमें गृहस्वामिनी द्वारा दी गई सामग्री यथा चावल,
आटा, तेल और पहनने के कपड़े रखे रहते थे।
रुक्मा का पति
देबू अपने चितपरिचित अंदाज में बीड़ी फूँकने और खाँसने में
व्यस्त है। बीड़ी का एक कष लेता फिर खाँसता, जैसे ही खाँसी रुकती
फिर दूसरा कश लेता हुआ वह बीड़ी के टुकड़े को पूर्णत: समाप्त
करने में जुटा है। रुक्मा इशारा करती है कि बस करो, बीड़ी को
छोड़ो और ढोलक उठाओ। देबू बेमन से बीड़ी के ठूँठ को फेंककर ढोलक
की रस्सियों को कसने लगता है। ढोलक की थाप के साथ एक गुरु गंभीर
आवाज गूँज उठती है-
चाँदी की
दवात... सोने की कलम...
साथ ही थिरक उठते हैं रुक्मा के पैर और बज उठती हैं घुँघरू की
झनकार। एक मीठी स्वर लहरी पास की पहाडि़यों से गूँजती हुई हर घर
के लोगों को वसंत के आगमन की सूचना दे देती है। राह चलता राहगीर
ठिठक जाता और मंत्रमुग्ध होकर गीत सुनने के लिए दौड़ा चला आता।
छोटे-छोटे बच्चे भी खेलना भूलकर रुक्मा के गीत की मिठास और
घुंघरू की झनकार में खो जाते। कुमाऊँ का प्रसिद्ध ऋतुगीत रुक्मा
के सुरीले कंठ से मानो झरने की कलकल की तरह फूट रहा है।
तभी अंदर से
गृहस्वामिनी परात भरकर सीधा सामग्री (चावल, दाल, तेल, गुड़ आटा
आदि) लाकर रुक्मा के सूप में डालती है। देबू ढोलक की थाप के साथ
आशीषों की झड़ी लगा देता है। वापस जाती गृहस्वामिनी को रोक कर
रुक्मा उनसे पुरानी साड़ी के लिए मनुहार करती है, साड़ी मिलते ही
उसका उत्साह दुगुना हो जाता है। साड़ी को बडे़ प्यार से समेटकर
अपने सूप के किनारे सजा देती है फिर सूप को सिर पर उठाकर छम-छम
करती अगले घर की तरफ चल देती। हम सभी बच्चे भी उसके साथ-साथ
चलते।
वसंत ऋतु में
पूरे सप्ताह भर रुक्मा के गीतों से घाटियाँ, पहाडि़याँ गूँजती
रहती, उसके घुंघरू छम-छम करते रहते। चारों ओर खिले प्योंली के
फूल, शिलींग के फूलों की सुगंधित बयार, घुघूती पहाड़ी कबूतर की
घुर-घुर, न्योली की नीहू-नीहू वसंत ऋतु को और मादक बना देते। ऐसा
लगता कि प्रकृति भी रुक्मा के साथ गा रही है, नृत्य कर रही है।
हर दूसरे दिन
हमारे घर आना और कुछ न कुछ माँगना रुक्मा का नियम सा था। कभी
तेल, कभी मिर्च, कभी पैसा। मेरी दादी अक्सर उसे देखकर भी अनदेखा
कर देती। वह उपेक्षित-सी दरवाजे पर बैठी इंतजार करती रहती, चीज
मिलने पर ही जाती। मैं दादी से चाय बनाने की जिद करती ताकि
रुक्मा को भी चाय मिल जाए। मुझ पर उसका विशेष स्नेह था क्योंकि
मैं उसके ऋतुगीतों की श्रोता और उसके मधुर कंठ की प्रशंसक जो थी।
खेतों में, बगीचे में, पानी के धारे में जहाँ भी वह मिलती, मैं
उसे गीत सुनाने की जिद करती। वह मेरा आग्रह कभी नहीं टालती।
एक बार की बात
है काफी दिनों तक वह नजर नहीं आई मैंने उसके चारों बच्चों को
पूछा, कि रुक्मा कहाँ गई? पता लगा कि वह एस.एस. बी की ट्रेनिंग
के लिए गढ़वाल गई है। मैं उसके आने का व्यग्रता से इंतजार करने
लगी। जिस दिन वह आई दूर से तो मैं उसे पहचान ही नहीं पाई । नीले
बॉर्डर वाली सफेद साड़ी, स्लेटी रंग का स्वेटर पहने वह पूरी
मास्टरनी लग रही थी। हमारे घर पर काफी देर तक बैठी रही और
ट्रेनिंग कैम्प की बातें बताती रही। बड़े उत्साह से उसने बताया
कि विदाई समारोह में उसके गीत को सुनकर सी.ओ. साहब रो पड़े।
लोगों के अनुरोध पर उसने एक के बाद एक चार गीत सुनाए। उसे काफी
सर्टिफिकेट भी मिले थे। रुक्मा को मलाल था कि इन सर्टिफिकेटों
में क्या लिखा है उसे नहीं पता। उसका कहना था कि इसकी जगह एक
सिलाई मशीन मिल जाती तो अच्छा रहता। लोगों के कपड़े सिलकर वह
अपने बच्चों का पेट भर लेती।
समय धीरे-धीरे
गुजरता रहा। हम आठवीं पास कर गाँव के स्कूल से राजकीय इंटर कॉलेज
में पढ़ने के लिए जाने लगे। मेरे कॉलेज का रास्ता उनके घर के पास
से होकर जाता था। रोज कॉलेज जाते समय मैं उनके घर की ओर जरूर
देखती थी। कैसी विडम्बना! सुरों की स्वामिनी के घर से कभी संगीत
की ध्वनि नहीं सुनाई देती थी। राग मल्हार, मालकोंस राग के स्थान
पर रोने-पीटने और चीख-पुकार की आवाजें सुनाई देती थी। पीली
मिट्टी से लिपे-पुते उस जर्जर घर में रहने वाले जीवों का रुदन और
खीज भरी आवाजें उनके अभावों और दुखों की दास्तान सुनाती थी।
चाहते हुए भी कभी उस घर में जाने का साहस नहीं हुआ क्योंकि दादी
माँ की छड़ी के मार का भय हरदम मन में समाया रहता था।
इस बार भी हर
साल की तरह आम के वृक्षों में बौर आ गए हैं। आँगन में खड़ा
शिलींग का रुख फिर से फूलों से लदकर खु्शबू फैलाने लगा है। हमारे
आँगन और चबूतरे में पीले-पीले फूल बिखर गए हैं। शीतल मंद सुगंधित
मंद बयार बहने लगी है। पहाडि़यों में न्योली की नीहू-नीहू की
बेचैन रट लगाने लगी। शिलींग के पेड़ के नीचे बच्चे फूल एकत्र कर
रहे है। सभी के चेहरों में एक प्रश्न है, जिज्ञासा है। इस बार
बसंत पंचमी का दिन भी बीत गया पर ढोलक की थाप नहीं सुनाई दी।
कोकिल कंठी रुक्मा की सुरीली तान पहाडि़यों, घाटियों में नहीं
गूँजी। आखिर क्या बात है? क्या कारण है? सभी चकित स्वर में एक ही
प्रश्न कर रहे हैं- रुक्मा ऋतु गीत गाने नहीं आई, देबू नहीं आया।
हम अपनी उत्सुकता रोक नहीं पाते, दौड़ पड़ते हैं पहाड़ी के उस
छोर की ओर जहाँ गाँव से हटकर एक अलग ही बस्ती है। उनकी एक अलग ही
दुनिया है। डरते-डरते जाकर देखा तो पाया कि सदैव कोहराम मचे रहने
वाले रुक्मा के घर में आज मरघट की -सी शांति छाई हुई थी। अँधेरी
कोठरी में बैठी रुक्मा बुझ चुके चूल्हे की राख कुरेद रही थी।
हमें देखकर भी कुछ नहीं बोली चुपचाप सिर झुका लिया। बहुत पूछने
पर उसने बताया कि वह अब कभी नहीं गाएगी।
''रुक्मा क्यों नहीं गाओगी, बताओ ना?''
''धनुवा ने मना किया है, अगर मैंने गीत गाए तो वह घर छोड़कर चला
जाएगा। बच्चे जवान हो रहे हैं, उन्हे यह सब अच्छा नहीं लगता।''
आँसू पोछकर बोली, ''तुम लोग जाओ अपने घर, मैं अब कभी नहीं
गाऊँगी।'' हम सब उदास मन से घर लौट आए, ऐसा लगा कि कोई प्यारी-सी
चीज खो गई हो, जैसे किसी की मौत हो गई हो। सच में मौत ही तो हो
गई थी। पारंपरिक ऋतुगीत की मौत - सुरीले संगीत की मौत।
समय का चक्र अनवरत चलता रहा। दिन, महीने, साल बीतते गए। बचपन के
सभी संगी-साथी अपने-अपने जीवन में ऐसे रमे कि सब कुछ भूल गए। भूल
गए कि सुदूर उत्तर में पहाड़ी पर बसा एक सुंदर गाँव है, जहाँ आम
के बगीचे में कोयल कूकती है, चीड़ के जंगलों, नदी की घाटियों में
न्योली पक्षी की करुण पुकार से विरहिणी युवती अपने फौजी पति को
याद करके रो पड़ती है। जहाँ बसंत पंचमी के दिन से ऋतुगीत गूँजने
लगते थे। शिलींग का वह सदाबहार वृक्ष भी अब उदास और बूढ़ा-सा
दिखाई देने लगा है।
लंबे अरसे के
बाद उस कोकिल कंठी रुक्मा से बाजार में मुलाकात हुई तो देखा कि
वह सड़क के किनारे बोरी बिछाकर बैठी चूडि़याँ बेच रही थी। मुझे
देखकर वह खुशी से भावविभोर हो गई। कु्शल-क्षेम पूछने पर बताया कि
लंबी बीमारी के बाद उसके पति देबू की मृत्यु हो गई। पति की मौत
के बाद गाँव छोड़ दिया, अब तो गाँव का मकान भी खंडहर हो गया है।
यहाँ वह बेटे-बहू से अलग रहकर चूडि़याँ बेचकर अपने दिन काट रही
हैं। उसकी दुखभरी दास्तान सुनकर मैंने उसे कुछ दिन के लिए अपने
साथ गाँव चलने के लिए कहा। हम दोनों गाँव की तरफ चल पड़े।
वही सर्पीली
पगडंडियाँ, हरे-भरे सीढ़ीदार खेतों और बगीचे से गुजरते हुए जब
पानी के धारे (पनघट) पर पहुँचे तो थककर चूर हो गए और बैठ गए।
धारे का ठंडा पानी पीकर मैंने रुक्मा से कहा-रुक्मा बुआ कुछ
सुनाओ ना-
चेली क्या सुनाऊँ? सालों बीत गए गीत सुनाए हुए। सब भूल गए, गीत
के बोल, सुर, लय सब भूल गई।
मैंने जिद की -
मैं तो जरूर सुनूँगी। ऋतुगीत गाओ ना, वही वाला - आयो वसंता
....सखी बन फूले रे पिया...
मेरे बहुत आग्रह करने पर उसने ऋतुगीत की भूली-बिसरी पंक्ति को
गाकर सुनाया। गीत सुनकर हमेशा की तरह मैं रुक्मा को दाद नहीं दे
पाई। हैरान होकर मैं उसे देखती रह गई मानो मूक हो गई। रुक्मा की
फटी-फटी-सी आवाज, रुँधा-सा गला। थोड़ा-सा गाने पर ही वह हाँफने
लगी थी, सुनकर लगा समय की निर्मम चोट ने कोकिल कंठी के कोमल
कंठस्वर को सपाट कर दिया है। कहाँ गुम हो गई वह आवाज की मिठास?
स्वर का वह उतार-चढ़ाव जिसे सुनकर राह चलता राही भी राह भूल जाता
था। गाँव के बड़े-बूढ़े मंत्रमुग्ध हो जाते। यही नहीं छोटे-छोटे
बच्चे भी खेलना भूल जाते थे। कहाँ खो गई?
अब भी मैं
कभी-कभी गाँव जाती हूँ तो एक अजीब-सी उदासी मुझे घेर लेती है। अब
ढोलक की थाप सुनाई नहीं देती। घुँघरू की रुनझुन खामोश हो गई है।
मधुर स्वर लहरी अब घाटियों में नहीं गूँजती। सुनाई देते हैं तो
बस लाउडस्पीकर पर बजते फिल्मी गीतों का शोर, विज्ञापनों की न
खत्म होने वाली झड़ी, टीवी पर मार-काट के समाचार।
वसंत आज भी आता
है, उदास-सा जैसे रोकर चला जाता है। टीवी को छोड़कर कोई पंछियों
के गीत नहीं सुनना चाहता। आँगन में कोई भी शिलींग के फूल चुनने
नहीं आता। ओस से भीगे प्योंली के फूल भी रोकर मुरझा जाते हैं। |