बहुत पुराने वक़्त में दूकानों के
बोर्ड पर छूट ऑफ़र लिखे मिलते थे। छूट के मौके पर दूकान का कचरा निकल जाता था।
धीरे-धीरे छूट की गरिमा पीछे छूटती गई। इसका स्थान अब लूट ऑफ़र ने ले लिया है। आप घर
से निकलते ही लुटने या लूटने के लिए तैयार रहें। आप 'लुटने या लूटने' में से कौन-सा
खेल खेलेंगे,यह आपकी औक़ात पर निर्भर होगा। बीहड़ में अब सुविधाएँ नहीं रहीं, अत:
डाकू सीधे राजनीति में आ गए हैं। वे अब कुछ बन गए हैं। कम खाने से उन्हें सूखा रोग
होने का ख़तरा है। नेता केवल उँगली का इशारा करता है, बाकी सब कुछ अफ़सरों के जिम्मे
होता है। उगाही अभियान में छोटे-बड़े सभी अफ़सरों को अपनी भागीदारी निभानी पड़ती है।
ना-नुकर करने वाले ट्रांसफ़र से लेकर चार्जशीट और निलम्बन की यात्रा करने पर मज़बूर
हो जाते हैं।
नेता जब दौरे पर आते हैं, उस समय
उनका खाना-पीना, गाड़ी का डीज़ल-पेट्रोल आदि सभी मातहतों के जिम्मे होता है। मन्त्री
के पी.ए. से लेकर चपरासी तक भूखे बाघ जैसे नज़र आते हैं। अधिकारी की स्थिति उनके
सामने 'दयनीय विधवा' जैसी नज़र आती है। जहाँ लूट का फंडा नहीं होता, वहाँ अधिकारियों
को रो-झींककर अपनी जेब ढीली करनी पड़ती है। चाय-पानी का खर्चा न मिलने पर अमले का
चपरासी भी छोटे या मझोले अफ़सरों को खा जाने वाली नज़र से देखता है। आजकल चारों तरफ़
का वातावरण लूट की छूट के लिए उपयुक्त नज़र आता है।
शिक्षा-संस्थानों में अधपढ़े
प्रबन्धकों द्वारा डोनेशन की लूट,पास कराने के लिए लूट, नौकरी दिलवाने के लिए
गुप्तदान (घूस कहना शर्मनाक है) की तिकड़म। स्कूल क्यों पीछे रहें? सरकारी स्कूल हुए
तो पढ़ाने की छूट के साथ मिड डे मील की लूट, ट्यूशन की लूट,प्राचार्य जी का तो जन्म
ही लूट के लिया हुआ है। बच्चों को कॉपी-किताबें दिलवाने में लूट, ड्रेस सिलवाने में
लूट, टाई से लेकर आई कार्ड बनवाने में लूट। पुताई में लूट, खरीदारी में लूट, एडमिशन
में लूट। जो इन सबसे बच गया, उसे पास कराने के लिए जुगाड़ बिठाने में लूट। लगता है
सचमुच रामराज्य आ गया है। लूटने वालों के चेहरों की आभा देखते ही बनती है।
ट्रकवालों को पुलिसवाले दुह रहे
हैं तो पुलिसवालों को स्टिंग ऑपरेशन वाले चूस रहे हैं। वफ़ादार सिपाही दिनभर लूटकर
शाम तक सबको प्रसाद पहुँचा रहे हैं, बदले में खुद भी कुछ का पा रहे हैं। रेहड़ी
वालों से वसूली, फ़ुटपाथ पर दूकान लगाने की वसूली। किसान को नीतिनिर्धारक लूट रहे
हैं। जिन्हे फ़सल लूटने का मौका नहीं मिल पाया था, वे खाद ही लूट रहे हैं। न किसान
खाद डालेंगे न फ़सल ठीक-ठाक होगी। जितनी महँगाई उतनी लूट। एक दिन तो सबको मरना है।
कोई खाकर मरे या भूख से- हैं दोनों बराबर। दूध में यूरिया, घी में चर्बी सभी ताकत
देने वाले तत्त्व हैं। कम्पनियों को खुश कीजिए। उनका प्रोडक्ट जनता को खिलाइए। कोई
मरे तो मरने दीजिए। बदले में कुछ न कुछ ज़रूर लीजिए। जो मिलावट करेगा, बहुत कुछ
पाएगा। फँस गया तो बहुत कम गँवाएगा। मेहनत-मज़दूरी करने वालों से लूट, जीने वालों से
लूट, मरनेवालों से लूट। अस्पताल में लूट, श्मशान में भी लूट। ईश्वर की तरह लूट
सर्वव्यापक है। अगर आप परमात्मा को मानते हैं तो पीछे मत रहिए और इस पवित्र कीर्तन
में शामिल हो जाइए, भवसागर तर जाइए। कुछ नहीं कर सकते तो बाबा जी बन जाइए। मठाधीश
कहलाइए, जो मूर्ख नहीं बन सकते, उन्हें ईश्वर से डराइए। लूट मचाइए।
सबको पढ़ाने के फेर में सरकार का
दम फूला जा रहा है। सबको पढ़ाना अपना दर्द बढ़ाना है। फिर भी कुछ करके दिखाना है।
बैठक करना सबसे बड़ा काम है। समय को कूटना और बड़ा काम है। आधा समय 'शिक्षा की
परिभाषा' निकालने में लगाइए। एक महीने बाद कार्य योजना बनाइए। रिपोर्ट छपवाइए।
छपवाकर मंत्री जी को भेज दीजिए। इस प्रकार पूरा साल निकाल दीजिए। लीजिए हो गया
शिक्षा का प्रचार और प्रसार। टी.ए.डी.ए. लीजिए घर जाइए। देश को जहाँ जाना है, वह भी
चला जाएगा।
पुल बने तो लूटिए, पुल टूटे तो
लूटिए, सड़क बने तब भी लूटिए। सड़क के गड्ढे भरने से पहले अपने पेट का गड्ढा भरने की
सोचिए। उस गड्ढे में कोई गिर जाएगा तो सरकार निकाल लेगी। सड़क का गड्ढा आज भर दोगे
तो तुम्हारे पेट का गड्ढा खाली रह जाएगा। इसमें तुम्हारे घर का कोई भी सदस्य गिर
जाएगा। गिर गया तो निकल नहीं पाएगा। अत: छाती मत कूटिए, जमकर लूटिए। कुत्ता पाए तो
सवा मन खाए नहीं तो दिया ही चाटकर रह जाए। दिया चाटनेवाला मत बनिए, दीमक बनिए, जो
मिले उसे चाट जाइए। देश बडी बेसब्री से तुम्हारा इन्तज़ार कर रहा है। हे शूरवीर! जाग
जाइए और सिर पर क़फ़न बाँधकर निकल पड़िए। किसी भी दल का झण्डा उठाइए। जो भी सामने आए
उस पर डण्डा चलाइए। जिसके पास कुछ नहीं, उसको भी लूटिए। आम आदमी को आम की तरह
चूसिए। इस नई छूट में अगर चूक जाओगे तो उम्र भर पछताओगे।
१ फरवरी २०१० |