अभी कुछ दिन हुए
मुझे हिंदी साहित्य संबंधित एक उत्सव में भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जो बड़ा
अच्छा लगा सिवाय इसके कि उत्साही संयोजक ने घोषणा की कि वे हिंदी कथा साहित्य में
एक 'बुकर' के समकक्ष पुरस्कार की स्थापना की कल्पना कर रहे हैं। इस घोषणा से मेरे
मन में मिली-जुली प्रतिक्रिया हुई। जो चीज मुझे अखरी, वह यह कि 'बुकर' की परम्परा
की ही नकल हिंदी साहित्यकार क्यों करें। क्या यह जरूरी है कि हम पुरस्कार की
परम्परा पश्चिम से ही लें। ऐसा क्या है पश्चिमी परम्परा में जिसकी नकल किए बिना हम
जीवित नहीं रह सकते।
मेरे लिए यह कभी बड़े उत्साह का विषय नहीं रहा कि
बालीवुड को हालीवुड की फिल्मों के उत्सव में पुरस्कार के लिए होड़ लेना इतना जरूरी
हो जाए कि न मिलने पर एक क्षोभ की स्थिति फैल जाए। मुझे याद है जब 'लगान' फिल्म को
हालीवुड के आस्कर में पुरस्कार नहीं मिला तो मुंबई में एक निराशा का वातावरण बन
गया। ऐसा क्यों होता है? क्यों हमें जरूरी लगता है कि पश्चिम का हाथ हमारी पीठ पर
होना आवश्यक है। बालीवुड आज महान शक्ति में एक इयत्ता बन गया है। वह संसार में धूम
मचा रहा है, वह भी बिना आस्कर का कोई पुरस्कार जीते। तो क्या जरूरी है कि हम उसकी
ओर ललचाई आँखों से देखते रहें। क्या जरूरी है कि हमें हिंदी साहित्य की गरिमा को
ऊपर तक पहुँचाने के लिए एक बुकर जैसे पुरस्कार की जरूरत हो। बिना हिंदी बुकर के भी
प्रवासी हिंदी साहित्य काफी पनप रहा है, विकसित हो रहा है, अपनी उचित मान्यता पा
रहा है और उसको पश्चिमी हाथ की जरूरत नहीं है।
थैंक यू…मुझे चालीस वर्षों से
हिंदी भाषा और
साहित्य को पढ़ाते हुए जो एक बात बेहद अखरती रही, वो ये कि हिंदी के हितैषी भारतीय,
गोरी चमड़ी वाले प्राध्यापकों के प्रति अतिरिक्त भक्तिभाव का प्रदर्शन करते हैं। यह
बिल्कुल भी जरूरी चीज न थी और न है। इसमें कोई शक नहीं कि पश्चिमी विद्वानों ने
हिंदी साहित्य की गरिमा में जो अपनी सेवाएँ अनुसंधान और व्याकरण आदि क्षेत्रों में
दी हैं, जो कुछ अपना अतिरिक्त जोड़ा है, वह हिंदी साहित्य की स्थाई धरोहर है।
हिंदी के एक पुत्र के नाते मुझे ऐसे विद्वानों के प्रति बड़ा गर्व है, आदर है।
किंतु, मेरा सिर दर्द से फटने लगता है जब उन गोरी चमड़ी के प्राध्यापकों के प्रति
अतिशय भक्तिभाव दिखाया जाता है, ऐसे प्राध्यापकों के प्रति भी, जो शायद दो पृष्ठ भी
बिना हिंदी-अंग्रेजी कोष की सहायता के नहीं लिख सकते। ऐसी गोरी चमड़ी वाले कुछ
पंक्तियाँ जोड़ लेते हैं और उन्हें महाकवि के रूप में देखा जाने लग जाता है।
यह सब मुझे बिल्कुल अनावश्यक लगता है। १९९९ में
लन्दन में हुए, हिंदी समिति के द्वारा आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में यह बात
साबित हो गई है कि बिना ऊपरी तामझाम के भी बड़े पैमाने पर महान सम्मेलन का आयोजन
सफलता पूर्वक किया जा सकता है। मेरे लिए वह सम्मेलन तमाम हिंदी विश्व सम्मेलनों से
अधिक ऐतिहासिक महत्व का रहा है। मैं खुद कई सम्मेलनों में शामिल हो चुका हूँ, इसलिए
यह बात कह रहा हूँ।
अभी मुझे दिल्ली में अन्तरराष्ट्रीय
हिंदी उत्सव
में भाग लेने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में होने के नाते
मुझे कितने ही अन्तरराष्ट्रीय उत्सवों में भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा
है। किन्तु दिल्ली का १२-१३-१४ जनवरी का यह सम्मेलन इतनी गहराई से हिंदी भाषा और
साहित्य में पैठ करने वाला लगा, जिसकी और कोई मिसाल नहीं है। तीन दिनों में
गोष्ठियों पर गोष्ठियों में भाग लेने के बाद जब रात मैं होटल में पहुँचता तो बिस्तर
में घुसते ही बेहद थकान से गहरी नींद एक क्षण में आ जाती। दूसरे दिन जब सम्मेलन की
उपलब्धियों के बारे में सोचता तो मन इस आशा से भर जाता कि सचमुच हिंदी भाषा और
साहित्य विश्व पटल पर अपनी छाप छोड़ने के लिए पूर्णत: तैयार है, वह भी संपूर्ण
क्षमता के साथ। और यह महसूस करते ही मेरी आँखों में जो भविष्य दिखता उससे मुझे यह
लगता कि मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि ऐसी भाषा मेरी मातृभाषा है।
मुझे इस सम्मेलन के कुछ ही दिन बाद लंदन जाना पड़ा,
जहाँ मुझे एक पुरस्कार मिला। पर पुरस्कार से ज्यादा मुझे वह क्षण और अधिक मूल्यवान
लगा जब उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष माननीय सोम ठाकुर जी ने मंच पर
कहा कि मैं सत्येन्द्र जी को आमंत्रित कर रहा हूँ, प्रवासी हिंदी भाषा और साहित्य
पर कुछ बोलने के लिए। मैं इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। फिर भी कोई बीस मिनट बोल
गया, और जब बोल चुका तो हिंदी की महान विभूतियों ने, जो वहाँ पुरस्कार ग्रहण कर
बैठ चुके थे और जो मेरे लिए सदा माननीय रहे हैं- आदरणीय रामदरश मिश्र, आदरणीय
त्रिभुज सिंह जी, सांसद सदस्य भाई कन्हैया लाल नन्नदन, आदरणीय डॉ. प्रभाकर
श्रोत्रिय, नौटियाल और अन्य साहित्यकारों ने मुझे गले लगाया।
मुझे ऐसा लगा कि वो मुझे ही गले नहीं लगा रहे,
बल्कि प्रवासी हिंदी भाषा और साहित्य को भी गले लगा रहे हैं, उसकी पहचान को जता
रहे हैं। तो ऐसा है हिंदी का संसार जिसका एक छोटा अंश प्रवासी हिंदी संसार भी है।
उसके एक सदस्य के नाते मैं यह महसूस करता हूँ कि आज हम सब जहाँ पहुँचे हैं और कोशिश
कर रहे हैं, वह है विदेश में हिंदी की सेवा में हर भारतीय लेखक का योगदान। हर
हिंदी अध्यापक, साहित्यकार ने पूरी ईमानदारी और पूरी क्षमता के साथ हिंदी के
महासागर में अपने योगदान की एक-एक बूँद समर्पित की है। यह वह समय है जब हमें हिंदी
की उपलब्धियों का जश्न मनाना है और साथ ही अपने पास जो भी सर्वोत्तम है, उसे हिंदी
के चरणों में अर्पित करना है।
१ फरवरी २०१० |