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तो जनाब, हम बात कर रहे थे दर्द की। आइए सबसे पहले हम यह जान
लें कि दर्द होता क्या है और विज्ञान इसे किस रूप में देखता
है? वाकई न तो इसका कोई रूप होता है, न कोई रंग और न ही कोई
आकार, लेकिन है यह शाश्वत। जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारे साथ
किसी न किसी रूप में लगा ही रहता है। दर्द मात्र एक अनुभूति है
जिसका संबंध हमारे अस्तित्व से है। यह हमारे शरीर के विभिन्न
अंगों की असामान्य स्थिति एवं उनके क्रिया-कलापों में होने
वाली गड़बड़ियों का द्योतक है। यह एक प्रकार का अनिवार्य
सुरक्षात्मक परिवर्ती-क्रिया है, जो हमारा ध्यान उस गड़बड़ी की
ओर खींचता है और आसन्न विषम परिस्थति की चेतावनी देता है।
ध्यान रहे, हम यहाँ केवल शारीरिक दर्द की ही बात कर रहे हैं,
भावनात्मक खट्टे-मीठे दर्द की नहीं, जिसका संबंध प्रेम-मुहब्बत
से होता है। शारीरिक दर्द भी हमारी मांसपेशियों से लेकर
जोड़ों, हडि्डयों, दिल, गुर्दा, पेट कहीं भी हो सकता है और
इनके अधिकांश अनुभव दुखदाई ही होते हैं। इसीलिए सभी इससे बचना
चाहते हैं, लेकिन इसके बिना जीना भी मुश्किल है। ज़रा सोचिए,
यदि हमें दर्द न हो तो बड़ी बातों को तो छोड़िए, रोज़मर्रा की
ज़िंदगी में लगने वाली छोटी-मोटी चोटों का भी पता न चले।
ज़ाहिर है, तब हम इनकी तरफ़ ध्यान भी नहीं देंगे और कुछ समय
बाद ये चोटें भयानक रूप लेकर हमारे जीवन को संकट में डाल सकती
हैं।
इस संसार में
शायद ही कोई सामान्य मनुष्य होगा जिसे दर्द का एहसास न होता हो
और किसी न किसी रूप में उसने इसे भुगता न हो। इसके अपवाद रूप
में सुना है कुछ सच्चे मर्दों को दर्द नहीं होता, जिसका सच से
कोसों का रिश्ता नहीं है। उन्हें भी दर्द होता है लेकिन अपनी
तथा-कथित मर्दानगी को बरकार रखने के लिए इसकी अभिव्यक्ति से
बचने का प्रयास करते रहते हैं और चुपचाप दर्द को सहते रहते
हैं। दर्द के बर्दाश्त करने की सीमा लोगों में अलग-अलग हो सकती
है और यह सीमा बहुत-कुछ मनोवैज्ञानिक होती है। बच्चे ज़रा
ज़्यादा रो-गा कर दर्द की अभिव्यक्ति करते हैं तो बड़े चुपचाप
इसे बर्दाश्त करने का प्रयास करते हैं। हाँ, वाकई अगर कोई इसके
अनुभव से वंचित है तो वे ऐसे चंद दुर्भाग्यशाली लोग हैं, जो एक
प्रकार के अनुवांशिक रोग 'पेन डिसऑर्डर' से ग्रसित हैं और यह
उनके लिए कोई वरदान नहीं बल्कि अभिशाप ही है।
ऐसा क्यों
है, इस पर हम बाद में चर्चा करेंगे। आइए पहले यह जानें कि हमें
दर्द क्यों और कैसे होता है? शरीर के बाहर और अंदर की खोज-ख़बर
रखने के लिए प्रकृति ने हमें तरह-तरह की ज्ञानेंद्रियों से
सुसज्जित कर रखा है, यथा-आँख, कान, नाक, जीभ एवं त्वचा। इन सभी
में ऊर्जा के अलग-अलग रूपों के प्रति संवेदनशील विशिष्ट
कोशिकाओं की व्यवस्था होती है। जैसे आँख की भीतरी परत 'रेटिना'
में प्रकाश के प्रति संवेदनशील रॉडस एवं कोन्स जैसी कोशिकाएं
होती हैं तो कान के अंदरूनी हिस्से में ध्वनि के प्रति
संवेदनशील कोशिकाएँ। दर्द के प्रति संवेदनशील कोशिकाएँ किसी
अंग-विशेष तक ही सीमित नहीं होती और न ही इनकी रचना में कोई
विशेषता होती है। ऐसी कोशिकाएँ वास्तव में सामान्य स्नायु
तंतुओं के स्वतंत्र अंतिम सिरे ही होते हैं, जो त्वचा से लेकर
शरीर के लगभग हर प्रकार के ऊतकों, विशेषकर आंतरिक अंगों की
बाहरी सतहों पर पाए जाते हैं। त्वचा में इनकी संख्या ज़्यादा
होती है, लेकिन आंतरिक अंगों की सतह पर कम।
ये कोशिकाएँ
ताप, यांत्रिक, रसायनिक एवं विद्युत ऊर्जा के प्रति संवेदनशील
होती हैं। अपने आस-पास के क्षेत्र में इस प्रकार के ऊर्जा के
स्तर में सारगर्भित परिवर्तन (जो अंग विशेष में चोट, खिंचाव,
सूजन, बुखार आदि के कारण हो सकता है) संबंधी सूचना को ये
कोशिकाएँ संग्रहित कर स्नायु-तंतुओं के द्वारा मस्तिष्क के
मुख्य भाग सेरिब्रम के नीचे अवस्थित थैलमस तक पहुँचाने का
कार्य करती हैं। इस कार्य के लिए दो प्र्रकार के
स्नायु-तंतु-प्रणालिओं का उपयोग होता है। एक प्रणाली में २-५
मिली माइक्रॉन के व्यास वाले थोड़े मोटे एवं माइलिनयुक्त
तंतुओं का उपयोग होता है तो दूसरे में ०.४ - १.२ मिलीमाइक्रॉन
के व्यास वाले थोड़े पतले एवं माइलिन रहित तंतुओं का उपयोग
होता है। पहली प्रणाली द्वारा सूचना १२ से ३० मीटर प्रति
सेकेंड की रफ्तार से थोड़ी जल्दी पहुँचती है तो दूसरी प्रणाली
द्वारा ०.५ से २ मीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से थोड़ी धीमे।
दर्द को
मस्तिष्क तक संप्र्रेषित करने वाली ये दो अलग-अलग प्रणालियाँ
इस वात की द्योतक हैं कि दर्द संबंधी किसी भी उद्दीपन के
फलस्वरूप हमें दो प्रकार के दर्द का अनुभव होता है। पहला अनुभव
तीव्र, पैना एवं स्थान-विशिष्ट पर होता है। इसका संप्रेषण पहले
प्रकार की प्रणाली द्वारा होता है। इस प्रकार के दर्द के बाद
हमें थोडे धीमे, क्षीण, विसरित परंतु दु:खदायी दर्द का अनुभव
होता है, जिसका संप्रेषण दूसरी प्रणाली द्वारा होता है।
दोनों ही
प्रणालियों के स्नायुतंतु अंततोगत्वा स्पाइनल कॉर्ड के पृष्ठ
भाग में अवस्थित ग्रेमैटर से निर्मित डॉर्सल हॉर्न में समाप्त
होते हैं, फ़र्क सिर्फ इतना है कि पहली प्रणाली के तंतु डॉर्सल
हॉर्न के सतही हिस्से में अवस्थित न्युरॉन्स पर ही समाप्त हो
जाते हैं तो दूसरी प्रणाली के तंतु ज़रा इसके भीतरी हिस्से में
अवस्थित न्युरॉन्स पर। डॉर्सल हॉर्न के इन न्युरॉन्स में से
कुछ के ऐक्सॉन्स तो स्पाइनल कॉर्ड या फिर ब्रेन-स्टेम तक
समाप्त हो जाते हैं परंतु शेष न्युरॉन्स के ऐक्सॉन्स लैटरल
स्पाइनोथैलमिक ट्रैक्ट का निर्माण करते हैं जो अंततोगत्वा
थैलमस के पश्च भाग में अवस्थित न्युक्लियाई से जुड़ते हैं।
जाहिर है, इनके द्वारा दर्द संबंधी सूचना सर्वप्रथम थैलमस के
इन न्युक्लियाई तक पहुँचती है। यहाँ से इन्हें सेरिब्रल
कॉर्टेक्स के मध्य-पश्च भाग में अवस्थित गाइरी तक अन्य तंतु
प्रणाली द्वारा संप्रेषित कर दिया जाता है, जहाँ दर्द के
निश्चित स्वरूप, प्रकार और उसके अर्थपूर्ण विश्लेषण का कार्य
संपन्न किया जाता है।
दर्द संबंधी
उद्दीपन स्थानीय क्षेत्र में किसी न किसी प्रकार के
रसायन-विशेष के उत्पादन में सक्षम होते हैं जो उस क्षेत्र की
दर्द संवेदी स्नायु कोशिकाओं को उद्दीप्त करते हैं। उदाहरण के
लिए, अनिष्टकारी उद्दीपकों के कारण उत्पन्न होने वाली सघन
पीड़ा (जिसकी अनुभूति प्रचंडता लिए हुए लेकिन विसरित रूप में
होती है। ऐसी पीड़ा के साथ अक्सर मितली, पसीना एवं रक्तचाप में
परिवर्तन के लक्षण भी संबद्ध होते हैं) के मूल में उस क्षेत्र
में ऐसे उद्दीपकों के प्रभाव से उत्पादित होने वाले विशेष
रसायन काइनिन्स की मुख्य भूमिका होने की संभावना जताई जाती है।
हिस्टैमिन नामक एक अन्य रसायन भी यही प्रभाव उत्पन्न करता है।
मांसपेशियों में होने वाले दर्द के पीछे पी फ़ैक्टर नामक रसायन
के बहुतायत में जमाव को कारण माना जाता है। ये पी फ़ैक्टरर्स
संभवत: पोटैशियम आयन्स ही हैं।
इन रसायनों
के कारण दर्द के प्रति संवेदनशील कोशिकाएँ उद्दीप्त हो जाती
हैं। इन कोशिकाओं के अंतिम सिरे ग्लूटामेट नामक
न्यूरोट्रांमिटर का श्राव करते हैं, जो इनसे जुडे स्नायतंतु के
अगले न्युरॉन को उद्दीप्त करता है। इस न्युरॉन का अंतिम सिरा
भी यही प्रक्रिया दुहराता है और अगले न्युरॉन को उद्दीप्त करता
है। यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक उस स्नायुतंतु के अंतिम
न्युरॉन (जिसका जुड़ाव मस्तिष्क के थैलमस से होता है) द्वारा
सूचना थैलमस तक न पहुँच जाय।
दर्द उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों के कारण हमारे शरीर में
इन्हें नज़रअंदाज़ करने वाली एवं इनसे छुटकारा पाने वाली
सुरक्षात्मक प्रतिक्रियाओं का आरंभ होता है। अन्य संवेदनाओं की
तुलना में दर्द की एक और विशेषता यह होती है कि इनका गहरा
संबंध हमारी भावनाओं से भी होता है। रोना, चिल्लाना, दु:खी
होना आदि भाव दर्द के साथ अक्सर जुड़े होते हैं जो इसकी
असहनीयता तथा पूर्व अनुभवों के आधार पर इससे जुड़े भय को
अभिव्यक्त करते हैं। अन्य उद्दीपनों के अनुभव तो परिस्थिति के
अनुसार सुखकारक या फिर दु:खकारक भी हो सकते हैं परंतु दर्द
संबंधी अनुभव सदैव दु:खकारक ही होते हैं। कैंसर से जूझ रहे
रोगियों में तो यह पीड़ा असहनीय होती है एवं लगातार बनी रहती
है। कैंसर तो दूर, इस असहनीय पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए ही
वे मरने की इच्छा करने लगते हैं।
यह सच है कि
दर्द की अनुभूति हमारी उत्तरजीविता के लिए एक महत्वपूर्ण कवच
का काम करती है क्यों कि यह हमें शरीर के अंदर उत्पन्न
अनियमितता एवं खतरनाक परिस्थितियों के प्रति सचेत करती है।
लेकिन इससे जुड़ी अनुभूति अक्सर पीड़ादायक ही होती है, फलत:
सभी दर्द से निजात पाने चाहते है, वह भी शीघ्र से शीघ्र।
सदियों से वैज्ञानिक इस प्रयास में लगे हुए हैं कि दर्द की
अनुभूति को कैसे कम किया जाय या फिर उससे पूरी तरह निजात कैसे
पाया जाय। तरह-तरह के दर्द निवारक रसायनों से युक्त मलहम एवं
लिनीमेंट्स (जो त्वचा एवं माँसपेशियों में होने वाले सतही दर्द
को उस क्षेत्र के सूजन को कम कर या फिर वहाँ की कोशिकाओं की
संवेदनशीलता को घटा कर दर्द को कम करने में सहायक होते हैं) से
लेकर विभिन्न प्रकार की दर्द-निवारक दवाइयां (यथा एस्पिरीन,
टेलिनॉल, आइब्युप्रोफेन आदि जिन्हें खाकर या फिर इंजेक्शन
द्वारा शरीर में प्रविष्ट करा कर दर्द में कमी लाने का प्रयास
किया जाता है। ये दवाइयाँ प्रोस्टाग्लैंडिन्स जैसे
न्यूरोट्रांस्मिटर्स के शरीर में उत्पादन को रोक कर दर्द
निवारक का कार्य करती हैं) इसी प्रयास का परिणाम हैं। अफीम या
फिर इसी से प्रत्योत्पादित अन्य नशीले रसायनों जैसे कोडीन,
हेरोइन या फिर मॉरफीन का उपायोग भयानक दर्द को कम करने में
किया जाता है। इसके अतिरिक्त क्षेत्रीय स्तर पर कार्य करने
वाले एनेस्थेटिक रसायन यथा, बेंज़ोकेन के उपयोग द्वारा भी दर्द
के उद्दीपन का मस्तिष्क तक संप्रेषण रोका जा सकता है। दर्द के
निवारण हेतु कुछ अन्य प्रचलित तरीके हैं - एक्युपंक्चर,
हिप्नॉसिस, बॉयोफीडबैक, इलेक्ट्रोस्टीमुलेशन, या फिर सर्जरी
द्वारा स्नायु तंतुओं को अलग-अलग कर देना। इन सभी उपायों
द्वारा प्रयास यह रहता है कि दर्द संबंधी उद्दीपनों को किस
प्रकार मस्तिष्क के थैलमस तक संप्रेषित होने से रोका जाय।
जैसा कि पहले
भी जिक्र किया गया है, दर्द का संबंध व्यक्ति के मनोविज्ञान से
भी होता है। किसी कार्य को मनोयोग से करते समय लगने वाली चोट
को व्यक्ति तब तक महसूस नहीं करता जब तक कार्य समाप्त न हो
जाय। चोट वाली जगह को छुने या फिर हिलाने से भी दर्द में कमी
महसूस की जा सकती है। ये उद्धरण इस बात के द्योतक है कि दर्द
के संप्रेषण एवं इसकी तीव्रता को महसूस करने की क्षमता को
मनोवैज्ञानिक तरीकों से भी रोका या फिर थोड़ा-बहुत घटाया जा
सकता है।
किसी भी
स्नायुकोशिका के उद्दीप्त करने तथा इस उद्दीपन को उस कोशिका के
अंतिम सिरे- एक्सॉन तक विद्युत तरंगों के रूप में संप्रेषित
करने में इन कोशिकाओं के मेंब्रेन के बाहरी एवं भीतरी सतह पर
अवस्थित धनात्नक एवं ऋणात्म आवेश से युक्त ऑयन्स का मुख्य हाथ
होता है। उद्दीपन के पूर्व इस मेंब्रेन के दोनों ओर इन आयन्स
का वितरण इस प्रकार रहता है कि बाहरी सतह धनात्मक आवेशयुक्त
होती है एवं भीतरी सतह ऋणात्मक आवेशयुक्त। उद्दीप्त होने पर
उद्दीपन के आस-पास के क्षेत्र में मेंब्रेन की आयनों के प्रति
पारगम्यता में परिवर्तन होता है। परिणाम स्वरूप सोडियम आयन्स
बाहर से अंदर की ओर आने लगते हैं जिसके कारण उस स्थान पर भीतरी
सतह धनात्नक आवेशयुक्त होने लगती है और बाहरी सतह ऋणात्मक
आवेशयुक्त होने लगती है। इस प्रकार विद्युत तरंग का निर्माण
होता है जो उद्दीपन को एक्सॉन के अंतिम सिरे तक संप्रेषित करती
है। सोडियम आयन्स के आवागमन मेंब्रेन में अवस्थित सोडियम
चेनेल्स द्वारा होता है। इन चैनेल्स का निर्माण मुख्य रूप से
कई प्रकार की प्रोटीन्स द्वारा होता है। इन चैनेल्स को NaV
नाम दिया गया है तथा ये ९ प्रकार के होते हैं जिन्हें १.१ से
१.९ के नाम से जाना जाता है। यह भिन्नता इनके निर्माण मे
प्रयुक्त प्रोटीन्स की सबयुनिट में भिन्नता के कारण होती है।
आधुनातन शोध
के फलस्वरूप हमें ज्ञात कि इनमें से NaV १।७ चैनेल्स का संबंध
निश्चित तौर पर दर्द संबंधी उद्दीपन के संप्रेषण से है। ऐसे
चैनल्स दर्द संबंधी उद्दीपन के संप्रेषण से संबद्ध स्नायु
तंतुओं, विशेषकर डार्सल हॉर्न क्षेत्र की स्नायु कोशिकाओं में
बहुतायत में पाए जाते है एवं इनके निर्माण में प्रयुक्त
प्रोटीन्स की विशिष्ट सबयुनिट के संश्लेषण SCN9A नामक जीन
द्वारा किया जाता है।
इस आलेख के
प्रारंभ में कुछ ऐसे दुर्भाग्यशाली लोगों का ज़िक्र किया गया
है जो जन्म से ही एक प्रकार के पेन डिसआर्डर से ग्रसित होते
हैं, जिसके कारण इन्हें दर्द की अनुभूति होती ही नहीं हैं। हाल
ही में कैंब्रिज इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल रिसर्च के क्लिनिकल
बॉयोकेमिस्ट एवं इनके सहयोगियों ने ऐसे ही ६ बच्चों का अध्ययन
किया तो पाया कि इनमें NaV १.७ नामक सोडियम चैनेल के निर्माण
में प्रयुक्त प्रोटीन की विशेष सबयुनिट के संश्लेषण के लिए
ज़िम्मेदार SCN9A नामक जीन म्युटेटड है। ऐसे बच्चों के जेनेटिक
विश्लेषण के पश्चात डैद्वण्यह टीम इस नतीजे पर पहुंची है कि इस
विकार के कारण NaV १.७ के निर्माण में प्रयुक्त होने वाली
प्रोटीन की विशिष्ट सबयुनिट भी विकृत है। इस विकृति के कारण
ऐसे बच्चों के स्नायु तंतुओं में पाए जाने वाले सभी NaV १.७
सोडियम चैनेल निष्क्रिय पड़े रहते हैं। ऐसे बच्चे ठंडी-गरमी,
स्पर्श, दाब आदि नाना प्रकार के उद्दीपनों को किसी भी सामन्य
व्यक्ति की तरह महसूस करते हैं। बस इन्हें दर्द की अनुभूति
बिल्कुल नहीं होती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि
दर्द की अनुभूति के लिए NaV १.७ सोडियम चैनेल्स ही ज़िम्मेदार
होते हैं। सामान्य व्यक्ति में भी विशेष रसायनों की मदद से यदि
इन विशिष्ट चैनेल्स को अस्थाई रूप से निष्क्रिय बनाया जा सके,
तो दर्द से पीड़ित व्यक्ति को किसी भी प्रकार की तात्कालिक
पीड़ा से आसानी से छुटकारा दिलाया जा सकता है।
जहाँ चाह,
वहाँ राह। निश्चय ही हम निकट भविष्य में दर्द से छुटकारा पाने
के सक्षम एवं कारगर उपाय ढूँढ ही लेंगे। इस दिशा में प्रयासरत
वैज्ञानिकों को हम सबकी शुभकामनाएँ।
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