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एक थी -अमृता। समंदर के किनारे
रहती, रेत के घर बनाती। समुद्र के किनारे मिट्टी तो होती नहीं
इसलिए अमृता रेत के ही घर बनाती, पर रेत में मिट्टी की तरह लोच
नहीं होती, इसलिए मिट्टी के घरों की तरह अमृता के रेत के घर
टिक नहीं पाते, जैसे ही भीगी रेत का पानी सूखने लगता, घर
भरभराकर गिर पड़ते।
धीरे-धीरे अमृता ने घर बनाना छोड़ दिया। अब वह किनारे पर बैठकर
समंदर देखा करती। सुबह समुद्र की सतह पर सूरज के लाल होते
प्रकाश को देखती। दिन भर दहकते, तपते सूरज को शाम को समुद्र
में ठंडा होते देखती। लहरों का उल्लास से उछलना, दौड़ना और
आना-जाना देखती।
लहरें
दौड़ती हुई आतीं और अमृता को भिगो जातीं। जब वह रेत पर खड़ी
होकर समंदर देखती, तो लहरें बार-बार आतीं और अमृता के पैरों के
नीचे से रेत बहाकर ले जातीं। अमृता को यह भी बड़ा भला लगता।
अतल, अछोर समंदर को देखते हुए अक्सर दूर क्षितिज पर उसकी आँखें
टिक जाया करतीं। वहाँ आसमान का समंदर से मिल जाना, अमृता को घर
का-सा आभास देता।
एक दिन अमृता को एक छोटी-सी
किश्ती मिल गई। अमृता उस किश्ती पर सवार होकर समंदर में पानी
पर घूमने लगी। अगर उसे कहीं जाना था, तो क्षितिज पर। जहाँ घर
था जहाँ से उसे आसमान को छूकर देखना था। |