इस
सप्ताह उपन्यास
अंश में
भारत से रूपसिंह चन्देल के शीघ्र प्रकाश्य
उपन्यास 'गुलाम बादशाह' का एक अंश 'सुन्दरम'
वर्षों बाद, लगभग चार वर्ष बाद वह परिवार के साथ
घूमने निकला। वैसे ज़िन्दगी ने कभी उसे फ़ुर्सत ही नहीं दी कि वह उस तरह घूम सकता
जिसे घूमना कहा जाता है। शादी के समय भी उसकी नौकरी की स्थितियाँ आज जैसी ही थीं।
बमुश्किल दस दिन का अवकाश मिला था। उस समय के अपने बॉस सुन्दर को जब उसने बताया कि
वह शादी करने जा रहा है, तब उसने कहा था, "मिस्टर सुशांत, एक बार सोच लो...।"
"क्या सर?"
"शादी इंसान को गधा बना देती है।"
"वह तो मैं हूँ ही सर।"
"क्या?"
"जी सर, इस विभाग में नौकरी करके आदमी जो बन जाता है... शादी करके उसमें कुछ
और वृद्धि कर लूँगा।"
उसकी बात से सुन्दरम
चुप रह गया था। वह नहीं समझ पाया कि उस जैसा चीखने-चिल्लाने वाला अफसर चुप क्यों रह
गया था। वह यह भी नहीं समझ पाया था कि सुन्दरम के सामने वह ऐसा बोल कैसे गया था।
सुन्दरम अविवाहित था। महिला अधिकारियों की उसके सामने रूह काँपती थी।
सभी अधिकारी-कर्मचारी उससे भयभीत रहते...
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अतुल चतुर्वेदी का व्यंग्य
आना नए साहब का
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संस्कृति में रामकिशन नैन का आलेख
कहाँ गए वो चरखी-कोल्हू, कहाँ गई वो मधुर सुवास
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स्वाद और स्वास्थ्य में
पौष्टिक गुणों से मालामाल मूली
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साहित्य समाचार-
हैदराबाद में 'विश्वम्भरा' स्थापना
दिवस समारोह,
पाठ्य सामग्री लेखन कार्यशाला, चंडीगढ़
में
काव्योत्सव और दिल्ली में
दिशा फ़ाउंडेशन का कवि संमेलन
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पिछले सप्ताह
कैलाशचंद्र का व्यंग्य
खरबूजे के रंग
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पर्यटन में राजेन्द्र अवस्थी का आलेख
हरे समंदर में मोतियों की माला
गंगाप्रसाद विमल का विवेचन
ओदोलेन स्मेकल की कविता
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हजारी प्रसाद द्विवेदी का ललित निबंध
अशोक के फूल
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समकालीन कहानियों में
भारत से मनोहर पुरी की कहानी
क्रेडिट कार्ड
''मम्मी देखो तो दरवाज़े पर कोई हैं। कितनी देर से
घंटी बजा रहा है।'' रेणू ने खीज भरे स्वर में अपनी माँ को आवाज़ देते हुए कहा।
''तुम भी तो सुन रही हो कि घंटी बज रही है। क्यों नहीं खोल देती दरवाज़ा।'' माँ ने
फोन के रिसीवर को अपने कान से थोड़ा दूर हटाते हुए उत्तर दिया। फिर कहा, ''देखती
नहीं मैं किसी से फोन पर ज़रूरी बात कर रही हूँ।''
''मैं क्यों देखूँ। होगा कोई तुम्हारा डिलीवरी मैन या फिर कूरियर वाला। मेरा तो कोई
कूरियर आता नहीं है। जब देखो कोई न कोई दरवाज़े पर खड़ा रहता है।'' रेणू ने अपने
कानों से हैड़ फोन हटाया और पैर पटकती हुई दरवाज़े की ओर चली। वह बुड़बुड़ा रही थी,
''कमबख्त इतनी ज़ोर से घंटी बजाते हैं कि पूरी तरह से ढके होने के बाद भी कान के
पर्दे फटने लगते हैं।''
तभी फिर से घंटी बजी तो उसके सब्र का बांध टूट गया। वह ज़ोर से बोली, ''आ रहे हैं
भाई, खोलते हैं। थोड़ा भी सब्र नहीं है।''
दरवाज़ा खोला तो आशा के अनुरूप एक लड़का हाथ में एक पैकेट लिए खड़ा
था।
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अनुभूति
में-
क्षेत्रपाल शर्मा, अयोध्या प्रसाद हरिऔध, गौतम सचदेव, अभिजित पायें
और डॉ. भावना कुँअर की नई रचनाएँ |
कलम गही नहिं हाथ-
कृत्या-२००८ में जाना कविता की एक नदी से गुज़रना था। १२ से
अधिक देशों की २० से अधिक भाषाओं के ५० से अधिक कवियों के पंजाबी
रूपांतरण का तत्काल पाठ हृदयस्पर्शी रहा। कविताओं में प्रयोग और परंपरा
का संतुलन रहा। जबकि तकनीक से सँवरे रूपों ने ध्यान आकर्षित किया। वियना
के पीटर वॉग ने कविताओं के साथ ध्वनि के अनोखे प्रयोग प्रस्तुत किए और
नॉर्वे की ओडविंग क्लीव ने कविता को चलचित्र के साथ जोड़ा। पीटर
कविता पढ़ते हुए अनेक ध्वनियों को सम्मिलित करते हैं, एक कविता में तो
रूपांतरकार को चुप ही रह जाना पड़ा क्यों कि कविता में केवल ध्वनियाँ थीं
शब्द गायब थे। ओडविंग का पहला चलचित्र ब्रेकफास्ट टाइम मूक कविता था।
जबकि अन्य दो चित्रों में कविताओं का संयोजन भी किया गया था। चलचित्र में
कविता की उपस्थिति सुंदर थी। साथ ही चल रही चित्रकला प्रदर्शनी को
दर्शकों ने सराहा। पंजाब कला-भवन का आतिथ्य भारतीय संस्कृति और सौजन्य से
भरपूर था। प्रवेश आंगन में गुलाल और दीयों की रंगोली मनोहारी थी,
प्रेक्षागृह सभी सुविधाओं से लैस था और भोजन कक्ष के पीछे मुक्तांगन-प्रेक्षागृह की सीढ़ियों पर बैठकर हरे भरे परिसर में गरम तंदूर से उठता
धुआँ देखना जिस कविता का सृजन करता था वह रोटियों और गुलाब जामुनों से भी
अधिक मनमोहक था। इस सबको सफल बनाने में हम सबकी परिचित
रति सक्सेना की
महीनों की मेहनत थी जो सचमुच सफल रही।
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पूर्णिमा वर्मन (टीम अभिव्यक्ति)
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क्या आप जानते हैं?
कि वीरावल के प्रसिद्ध
सोमनाथ मंदिर के उद्धारकों में कुमारपाल का नाम प्रमुखता से लिया
जाता है। |
सप्ताह का विचार- जैसे पके हुए फलों को गिरने के सिवा कोई भय
नहीं वैसे ही पैदा हुए मनुष्य को मृत्यु के सिवा कोई भय नहीं
--वाल्मीकि |
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