हास्य व्यंग्य

खरबूजे के रंग
--कैलाशचंद्र


कहावत है खरबूजा खरबूजे को देखकर रंग बदल लेता है। मैंने देखा तो नहीं पर विश्वास किए लेता हूँ कि इस रंग बदलती दुनिया में ज़रूर बदल लेता होगा।  दोनों एक ही नस्ल के जो हैं। अपनों को देख कर कौन नहीं बदल जाता। फिर ये तो फल है। जब जैसा मौका होता है लोग उसी के अनुरूप अपने को रंग लेते हैं।

रंग बदलना एक कला है। हर एक को यह कला नहीं सधती। जो साध लेते हैं वे मनस्वी होते हैं। नेता जब भाषण देता है उसके सामने गरीब जनता बैठी होती है। उस क्षण उसके भीतर मसीहाई जाग उठती है। उसका रंग उस समय बदल जाता है। उसे गरीबी सूझने लगती है, गरीब याद आ जाता है, विकास दिखने लगता है, किसान की दुर्दशा याद आने लगती है। आम आदमी का रंग नेता पर चढ़ा होता है। वह जानता है कि यह वक्त ग़रीबों पर बोलने का है। लौटकर जब राजधानी जाता है, वह रंग बदल लेता है। क्योंकि अब उसके सामने माहौल बदल गया है। वह सेक्स में तल्लीन हो जाता है, घपले उसे लुभाने लगते हैं, अपनों को लाभ पहुँचाना याद आ जाता है, क्षेत्रीयता उस पर हावी हो जाती है। नेता वही बस उसकी फितरत के तरबूज़ रंग बदल लेते हैं।

आप कभी यूनिवर्सिटी गए हैं। बाहरी दीवारें चाहे सफ़ेद रंग में पुती हों पर वहाँ घुसते ही आपको जात-पात के रंगारंग कार्यक्रम दिखने लगते हैं। आप जाकर किसी विभाग के विभागाध्यक्ष नामक प्राणी की जात का पता करें। आप पाएँगे कि उस विभाग में अधिकांश उसकी ही जात के भरे हैं। उनमें से कुछ जो बेमेल जाति के हैं, वे पहले वाले विभागाध्यक्ष के द्वारा अपनी जात के भरे हुए हैं। चपरासी भी विभागाध्यक्ष की जात का मिल जाएगा। जैसे फिजिक्स फैकल्टी में सब कायस्थ भरे हुए मिलेंगे। क्योंकि विभाग का प्रमुख भटनागर कायस्थ था और देश के सभी भटनागरों को विभाग में नौकरी देना चाहता था। उस वक्त थोक में उतने मिले नहीं। मजबूरी में तब माथुर, सक्सेना और खरे लोगों को लेना पड़ा। इसी तरह दर्शन शास्त्र में विभागाध्यक्ष तिवारी जी थे और वहाँ बांभनों का परचम लहराए हुए थे। उन्होंने तो प्रतिज्ञा कर रखी थी कि शोध भी वे बांभनों के अलावा किसी दीगर जात वाले का नहीं कराएँगे। वे जब तक स्वर्गवासी नहीं हुए अपने इस अभियान को सफल बनाते रहे। अब उस जगह एक कुरमी आ गया है और उसे आते ही अपनी जात वालों की भरती की तलब लग आई है। विभागों के भीतर सफेदी कभी भी अपना आसन नहीं जमा पाईं।

चुनाव में तो जात का रंग इतना उभर कर आता है कि आँखें चौंधिया जाती हैं। जिस जात का उम्मीदवार होगा उसका रंग उसकी बिरादरी वाले टोलों में छपाक से गिरता है और तत्काल उस रंग में एक बड़े धब्बे में तब्दील हो जाता है। मंत्री बनाने के लिए जात के रंग की धौंस दिखाई जाती है। प्रतिनिधित्व की लड़ाई इसी के बूते पर लड़ी जाती है। उम्मीदवार भी जात के रंग के आधार पर खड़े किए जाते हैं। इस जात के रंग की इस क्षेत्र में बहुलता है इसलिए उसी जात वाले सोहन जी को टिकट देना ठीक रहेगा। वोटर का रंग उम्मीदवार की जात को देखकर रंग बदल लेता है। जब कभी मंत्री के विभाग में नियुक्तियाँ होंगी तो उसी की जात का रंग बरसेगा। उसी जात वाले के अवसर हैं अब आगे बढ़ने के। अब जितना भी लाभ है घंघोर कर उसे ही पिलाया जाएगा।

जब दो धर्मगुरु मिले तो पहले तो दोनों एक दूसरे को देखकर गुर्राए। एक दूसरे को पोंगा और अज्ञानी कहा, पहले ने दूसरे को ढोंगी कहा तो दूसरे ने पलट वार करते पहले को पाखंडी कह दिया। फिर उनकी समझ में जल्दी आ गया कि उनके उद्देश्य तो एक ही हैं अर्थात धर्मपरायण जनता को मूर्ख बनाए रखना। एक का रंग दूसरे के रंग में बदल गया। उन्होंने रास्ता बदल दिया, तुम अपनी दुकान चलाओ, हम अपनी चलाते हैं। तुम चमत्कार दिखाओ हम भी दिखाते हैं। तुम चेले बनाओ हम भी बनाए लेते हैं। झगड़ा किस बात का? हमारा सिंहासन इधर तुम्हारा उधर। बीच में जनता की बफर स्टेट। तुम अपना ब्रांड चलाओ हम अपना चलाते हैं। हैं दोनों पहुँचे हुए आध्यात्मिक गुरु। रंग से रंग बदल गया।

दंगे जब होते हैं तो घर और दुकान विधर्मी की जलाई जाती है, छूरा दूसरे कौम वाले के पेट में घोपा जाता है। इज़्ज़त अपने वालों की नहीं उनकी लूटी जाती है। संपत्ति उनकी हड़पी जाती है।

जो सबल होता है निर्बल उसके रंग में जबरन रंग जाता है। स्वार्थ के रंग भी इसी तरह बदलते हैं। इराक के मामले में अमरीका के रंग को देखकर ब्रिटेन और फ्रांस ने अपना रंग बदल लिया। अमरीका के रंग के सामने अन्य देशों के रंग फीके पड़ जाते हैं। इसलिए वे अमरीका के अनुरूप रंग बदल लेते हैं। अमरीका पर दादागिरी का रंग चढ़ा है। इसलिए सब उसकी दादागिरी मानते हैं उसके रंग के अनुरूप न चलें तो वह अपना रंग जमाने के लिए किसी भी देश पर आक्रमण कर देगा। आरोप लगाएगा कि उस देश ने जैविक हथियार बना कर छुपा रखे हैं, उसके यहाँ बमों का बहुत बड़ा जखीरा रखा है। उस देश में मानवाधिकारों का हनन हो रहा है, वहाँ कत्लेआम किया गया है, आदि।

अमेरिका पर पूँजी का रंग चढ़ा है जो काला होता है। यह कालिमा अमेरिका दूसरे देशों पर मलना चाहता है। कम्युनिस्टों का रंग लाल है। लाल रंग काले रंग के सामने नहीं दबता। अमेरिका में कम्युनिस्ट बहुत बड़े दुश्मन हैं। यही वजह है कि अमेरिका क्रांति की, आज़ादी और शांति का मुखालफत करता रहता है। उसके प्रजातंत्र का रंग तानाशाही के रंग में घुलकर चेहरा बदल देता है। वह तानाशाही को बल देने लगता है और वहाँ प्रजातंत्र की भावना को कुचलने में मुख्य भूमिका अदा करता है।

साहित्य में भी रंग बदलने का खेल जारी है। रचना, लेखक और समिति जब एक रंग के हो जाते हैं आप तब पुरस्कार का चटख रंग देख सकते हैं। लेखक और संपादक के एक रंग के हो जाने पर रचना बेरंग होते हुए भी छपकर यश की भागी बन जाती है। मैंने इधर बहुत से ऐसे साहित्यकार देखे हैं जो रचना की दृष्टि से नितांत फीके होते हुए भी ऐसे रंगीन मिजाज़ कि एकदम मटुकनाथ लगते हैं। कुछ की प्रगतिशीलता का रंग पुरस्कार, जुगाड़, नियुक्ति के अलग-अलग रंगों में घालमेल कर जाता है। सर्वहारा की संवेदना को वे अपनी अय्याशी की चाशनी में डुबकी देते हैं और मज़ा ये कि फिर भी क्रांतिकारी बने रहते हैं। मज़दूरों के लिए गुहार और बड़े नेता की अटैची की लदान एक साथ करते वे ज़रा भी नहीं शरमाते। वे अपना रंग बदल लेते हैं। रंग बदलना अगर कला है तो वे इस कला के सबसे बड़े कलाकार हैं। रंगों के ऐसे खिलाड़ी जिन्हें रंगहीन बनते भी देर नहीं लगती। उन्हें आप लाभ का पद दिला दो वे कीचड़ पोतने में संकोच नहीं करेंगे। कीचड़ को वे सर्वहारा का लेप कह देंगे और आप उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएँगे। साहित्य के अंगना में वे अपने स्वार्थों की रंगोली सजाए बैठे हैं आपकी रंगों की होली चाहे कितनी असरदार हो उनके कीचड़ पर भारी नहीं पड़ सकती।

तो मित्रो! रंग बदलो, बदलना सीख लो, यही गुण आपको जीवन भर रंग देगा।

१७ नवंबर २००८