इस
सप्ताह-
समकालीन कहानियों में-
भारत से ज्योतिष जोशी की कहानी
कितने अकेले
आधी
रात की गहन स्तब्धता में तेज बौछार के साथ वर्षा और बिजली की ज़ोरदार
गरज। खिड़की से रह-रहकर आते भीगी हवा के झोंके से तपते जिस्म को
थोड़ी-सी राहत मिल जाती थी। पर मन किसी अनजान कोने में टिका बार-बार
विचलित हो जाता था। इतनी देर रात गए आँखों में नींद नहीं और रह-रहकर
खाँसी की सुरसुरी सीने के बल को तोड़े जा रही थी। उसने कई बार पदमा
को आवाज़ दी पर वह अनसुना किए सोई रही। वह हिम्मत करके उठा और
जैसे-तैसे एक गिलास पानी लेकर हलक में उतारा। बार-बार खाँसने-खंखारने
के बाद भी छाती में जमा बलगम बाहर नहीं आता। नाक अब भी बंद थी। सिर
लगातार टनक रहा था और शरीर ऐसा पस्त था कि ज़ोर न लगे तो दो कदम चलना
भी मुश्किल। वह आहिस्ता-आहिस्ता चहलकदमी कर रहा था कि अचानक स्टूल पर
रखा गिलास हाथ के झटके से फ़र्श पर लुढ़क पड़ा...टनाक...
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डॉ. नरेन्द्र कोहली का व्यंग्य
मानव आयोग
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आज सिरहाने - डॉ. भावना कुँअर का हाइकु संग्रह
तारों की चूनर
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संस्कृति में मीरा सिंह का आलेख
बेटी की तरह उठती है डोली तुलसी की
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रचना प्रसंग में पूर्णिमा वर्मन का आलेख
ग़लती आखिर है कहाँ
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उमेश अग्निहोत्री
का व्यंग्य
अमेरिका में दर्पण
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जितेन्द्र भटनागर की लघुकथा
समय
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रंगमंच में
गली गली में नुक्कड़ नाटक
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साहित्य समाचार
यू. के. से,
भारत से,
अमेरिका से
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समकालीन कहानियों में-
भारत से
प्रभु जोशी की कहानी
एक चुप्पी क्रॉस
पर
अक्सर,
ऐसा ही होता है, पापा के सामने पड़ने पर। उनका ठेठ-रोआबदार, संजीदा-संजीदा चेहरा देख कर
अमि हमेशा से ही सहमी-सहमी रही है। इसीलिए पापा की उपस्थिति के
घनीभूत क्षणों में अमि चाहती रही है कि जितना भी जल्दी हो सके,
वह उनकी आँखों से ओझल हो जाए।
पापा रुके हुए थे।
रुके हुए और चुप। अमि को लगा, यह शायद पापा के बोलने के पहले
की ख़तरनाक चुप्पी है, जो टूटते ही अपने साथ बहुत हौले-से एकदम
ठंडे, लेकिन तीखे लगने वाले शब्द छोड़ेगी, जो उसे भीतर ही भीतर
कई दिनों तक रुलाते रहेंगे। उसे लग रहा था, पापा कुछ कमेंट
करेंगे। उसके इतनी देर तक बाथरूम में बन्द रहने पर। मसलन, 'अमि!
तुम्हें दिन-ब-दिन यह क्या होता जा रहा है?' मगर, वे कुछ कहे
बग़ैर ही आगे बढ़ गए।
अमि आश्वस्त हो गई। गीले पंजों के बल लम्बे-लम्बे डग भरती हुई,
अपने कमरे में चढ़ आई। |
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अनुभूति में-
भगवती चरण वर्मा, हरबंस सिंह
अक्स, रुचि, अनामिका और डॉ. राधेश्याम शुक्ल की नई रचनाएँ |
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कलम
गही नहिं हाथ
"नोकिया के सभी भारतीय मॉडलों में
जितना आप बेहतर श्रेणी में जाएँ, भारतीय भाषाओं की सुविधा कम
होती जाती है।" संक्षेप में- जितना अच्छा हैंडसेट, उतनी ही भारतीय
भाषाओं की सुविधा कम! एक भारतीय होने के नाते यह आपको लज्जास्पद नहीं
लगता?" यह पत्र लिखा है दायशान चीन से हमारे एक लेखक
कौन्तेय
देशपांडे ने। वे आगे लिखते हैं- "६०८५
मॉडल से मैं खुश था। मराठी/
हिन्दी में बड़ी सरलता के साथ लिख-पढ़ लेता था फिर स्क्रीन का आकार
छोटा पड़ने लगा इसलिए ५३०० ख़रीदा। लेते समय उसमें हिन्दी भाषा हो
इसका भी ध्यान रखा। घर आकर देखता हूँ तो उसमें हिन्दी मेनू तो दिखता
है, किन्तु देवनागरी अक्षर लिखे नहीं जा सकते! ग्राहकों की आंखों में इस तरह से
धूल झोंकना बुरी बात है। स्क्रीन का आकार ३२०
x
२४० होना मेरी तरह बहुतों के लिए
महत्त्वपूर्ण होगा। फिर मैंने ६३०० ख़रीदा,
पर रोना तो वही। नोकिया फ़ोरम या गूगल पर देखें तो पता चलेगा कि मेरे जैसे न जाने कितने लोग
यही दर्द झेल रहे हैं। जब आप भारतीय भाषाओं की सुविधा सस्ते मॉडल
पर बड़े सुंदर रूप में देते हैं तो अच्छे मॉडल में देने में
हिचकिचाहट क्यों?"
कौन्तेय भैया नोकिया वाले जानते हैं कि भारत में ज्यादा पैसे खर्च
करने वाले लोग हिन्दी के मामले में अनपढ़ ही हैं। -पूर्णिमा वर्मन (टीम
अभिव्यक्ति)
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क्या
आप जानते हैं?
कथाकार प्रेमचंद ने एक फिल्म की कहानी भी लिखी थी। यह फिल्म १९३४
में मजदूर नाम से बनी थी। |
सप्ताह का विचार
थोड़े दिन रहने वाली विपत्ति अच्छी
है क्यों कि उसी से मित्र और शत्रु की पहचान होती है।
--रहीम |
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