मैं और
तुम
किसी भी अच्छे लेख के लिए ज़रूरी है कि उसमें मैं और तुम
या आप का प्रयोग न किया जाए। 'मेरा यह विचार है', 'मैं यह
सोचता हूँ', 'मेरा अनुभव है' इत्यादि वाक्यांश आज के युग
में कोई भी सुनना नहीं चाहता। ऐसा वाक्य आते ही पाठक
सोचता है वाह वाह अपना अनुभव अपने पास रखें, हमें चैन से
रहने दें। अगर लेख में यह लिखा हो आपको यह करना चाहिए या
आप ऐसा करें या आप को इससे यह फायदा हो सकता है तो पाठक
की प्रतिक्रिया होती है- शुक्रिया जी, अपने विचारों से
पहले अपने को सुधारें, बाद में हमसे बात करें। यह सब
वाक्य केवल केवल उन लोगों के लिए ठीक हैं जो दुनिया पर
राज करते हैं जैसे नेता, अभिनेता इत्यादि हर कोई उनके
विचार और अनुभव ही सुनना चाहता है।
इसलिए बहुत ज़रूरी हो तो भी वाक्य की संरचना इस
प्रकार की जाए कि आप या तुम और मैं की ज़रूरत न पड़े।
विषय पर टिके रहना
कुछ लेखों की भाषा शैली
कथ्य सब कुछ रोचक होते हुए भी यह पता नहीं चलता कि आखिर
यह लेख किस विषय में लिखा गया है। शुरू होता है एक विषय
से मध्य तक आते आते विषय कुछ और हो जाता है और अंत किसी
और विषय से होता है। ऐसे में यह निश्चित करना कठिन हो
जाता है कि
इस लेख को किस विषय के साथ रखा जाय। इस प्रकार के लेख
कितने ही रोचक और तथ्यपूर्ण हों लेख का
दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं होता। यह सही है कि विषय के
विस्तार के लिए कुछ न कुछ तो इधर उधर जाना ही होता है
लेकिन विस्तार के समय इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि
लेख में एक केंद्रीय विषय हो और पूरा लेख इस विषय के ही
चारों ओर बुना गया हो। जिससे ठीक से पता चल सके कि लेखक
क्या कहना चाहता है और लेखक का दृष्टिकोण क्या है।
उदाहरण बहुत न हों क्यों कि उससे भी विषय से भटकने का डर
होता है।
प्रारंभ मध्य अंत
विषय पर टिके रहने के
लिए ज़रूरी है कि लेख के तीनों भागों का ठीक से निर्वाह
हो। लेख में प्रारंभ, मध्य और अंत होने से लेख का आकार
स्पष्ट होता है। उसमें जो कुछ कहा गया है वह पाठक तक ठीक
तरह से पहुँचता है। साथ ही यह संपादक और पाठक पर प्रभाव
भी अच्छा डालता है। लेख का पहला अनुच्छेद प्रारंभ होता
है। इसमें संपूर्ण लेख की रूप-रेखा आकर्षक रूप में होनी
चाहिए। पहले या दूसरे वाक्य में लेख का स्वरूप निश्चित
हो जाना चाहिए। पहला ही वाक्य इतना रोचक हो कि पाठक इसे
छोड़ना न चाहे। मध्य में इतना विस्तार हो कि विषय ठीक से
स्पष्ट हो सके। यह न हो कि पाठक अंत में कहे कि आखिर आप
कहना क्या चाहते हैं। अंत में लेख का निष्कर्ष होना
चाहिए। जिस लेख में आदि अंत और मध्य का बंटवारा ठीक से
नहीं होता वह लेख की बजाय ग़लतियों का पुलिंदा बन जाता
है।, जिस लेख के प्रारंभ में पता ही नहीं चलता कि लेख
किस विषय में है और जिसके अंत में यह पता नहीं चलता कि
आखिर लेखक कहना क्या चाहता है उस लेख का अस्वीकृत होना
ज़रूरी है।
तथ्य और आँकड़े
अपनी बात को प्रमाणिक
रूप से कहने के लिये तथ्य और आँकड़ों की आवश्यकता होती
है। ये लेख को रोचक और
ज्ञानवर्धक भी बनाते हैं। लेख का मध्य इनसे विस्तार पाता
है। घटनाएँ, तथ्य, आँकड़े और विभिन्न विचार धाराएँ लेख के
शरीर का निर्माण करती हैं। इनके बिना कोई भी लेख अधूरा
है। इनके अभाव में एक लेख, लेख नहीं रहता वह बेसिर-पैर की
कहानी सा प्रतीत होता है। कुछ समर्थ लेखक आँकड़ों के
सुंदर प्रयोग से लेख के पहले वाक्य में चमत्कार पैदा कर के
पाठक और संपादक को आकर्षित कर लेते हैं। कभी कभी
निष्कर्ष के लिए भी तथ्य, आँकड़ों, दृष्टांतों, ऐसा
प्रयोग किया जाता है। इसलिए इनका एक संग्रह अपने पास
ज़रूर रखें। इसके लिए अखबार को ध्यान से पढ़े और उसकी
कटिंग निकाल कर विषयानुसार फ़ाइल करें। कटिंग पर अखबार
का नाम और तिथि लिखना न भूलें। इससे समाचार के स्रोत का
पता रहता है और यह ध्यान देने में आसानी होती है कि तथ्य
बहुत पुराना तो नहीं है। क्यों कि तथ्य पुराना हुआ तो
लेख गया कचरे में।
विषयानुसार भाषा शैली
लेख या किसी भी रचना
में उपयुक्त भाषा शैली का बहुत महत्व होता है। व्यंग्य
की भाषा तरल होती है और निबंध की सुदृढ़। व्यंग्य की
भाषा तरल नहीं होगी तो वह पाठक तक सरलता से बह नहीं
सकेगा और पाठक में तुरंत समा नहीं सकेगा। निबंध की भाषा
सुदृढ़ नहीं होगी तो वह ठीक से बँधेगा नहीं और अपना
स्थाई प्रभाव नहीं बना सकेगा। यहाँ यह ध्यान भी रखना
ज़रूरी है कि सुदृढ़ का मतलब कठिन नहीं होता और तरल का
मतलब सरल नहीं होता। ललित निबंध की भाषा भी तरल होती है
पर उसमें लालित्य का ध्यान रखना होता है। हिन्दी पाठक के
लिए सारी हिन्दी सरल होती है, जिसको गंभीर विषय पढ़ने
में रुचि नहीं होती वह उस तरह के लेख पढ़ता ही नहीं है।
जिसको रुचि होती है वह श्रम कर शब्दकोश में नए शब्द का
अर्थ ढूँढता है। इसलिए सरल कठिन को भूलकर अपने लेख के
अऩुसार सही भाषा शैली को अपनाया जाना चाहिए। लेख की भाषा
शैली उपयुक्त न होना लेख के अस्वीकृत होने का एक बड़ा
कारण होता है।
पृष्ठभूमि का ध्यान
किसी भी लेख को लिखने
से पहले उसकी पृष्ठभूमि का अच्छी तरह अध्ययन करना ज़रूरी
है। कहीं ऐसा न हो कि लेख योग के विषय में लिखा जा रहा
है और रविशंकर की पद्धति की जगह बाबा रामदेव की पद्धति
और बाबा रामदेव की जगह रविशंकर की पद्धति का नाम चला
जाए, या कोई तकनीकी शब्द बार बार गलत लिखा जाए। लेखक को
यह ध्यान रखना चाहिए कि वह भले ही हर विषय का विशेषज्ञ
नहीं पर उसके लेख को हर विषय के विशेषज्ञ पढ़ते हैं
इसलिए गलती हुई नहीं कि चोरी पकड़ी जाएगी। अगर किसी विषय
का ठीक से ज्ञान नहीं है तो हर संभव कोशिश करके
संदेहास्पद आँकड़ों, नामों, घटनाओं और पद्धतियों को
जाँच-परख लेना चाहिए तभी लेख को प्रकाशन के लिए भेजना
चाहिए क्यों कि हर संपादक के पास ऐसी ग़लतियों को पकड़ने
और खोज निकालने के असीमित साधन होते हैं और वे ऐसे
गप्पबाज़ लेखों को रद्दी की टोकरी के हवाले करने से
चूकते नहीं।
कबीर, नेहरू, गाँधी या बच्चन
ये तीन-चार नाम ऐसे हैं
जिनका हज़ारों लेखों में करोड़ों बार उपयोग हो चुका
होगा। इन नामों से बचें। प्रसिद्ध व्यक्तियों पर लिखे गए
व्यंग्य सबसे पहले रद्दी की टोकरी में जाते हैं। वे जनता
के प्रिय नायक हैं उनकी टाँग बिना मतलब न खींचें। अगर
किसी संदर्भ में उनका नाम लेना ज़रूरी ही हो तो पर्याप्त
आदर प्रदर्शित करें। यह भी याद रखने की बात है कि धर्म,
भाषा राजनीति, पुलिस या भ्रष्टाचार से संबंधित लेखों का
क्षेत्रीय महत्व होता है। किसी अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका
में इनको जगह नहीं मिलेगी। हम अपने देश, अपनी संस्कृति,
अपनी व्यवस्था और अपनी भाषा के विरोध में लिखेंगे तो
उनका आदर कौन करेगा। अगर उसमें कमी है तो उसके लिए हमें
खुद प्रयत्न करना है ना कि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उसके
लिए शोर मचाना है। सारी दुनिया यह जानती है कि शोर वही
मचाता है जो कुछ करता नहीं। जो कुछ करता है उसको शोर
मचाने का समय नहीं होता। ऐसे शोर मचाने वाले लेखों को
संपादक सबसे पहले अलग कर देते हैं।
अंत
में-
एक अच्छे हिन्दी लेखक
को वर्णमाला ठीक से याद होती है। जिसको वर्णमाला ठीक
क्रम से याद नहीं वह अच्छा लेखक कभी नहीं बन सकता क्यों
कि वर्णों का क्रम ठीक से याद किए बिना शब्दकोश का
प्रयोग नहीं किया जा सकता। और जो शब्दकोश निरंतर देखता
नहीं रहता वह अच्छा लेखक बन ही नहीं सकता। इसलिए अगर अभी
तक वर्णमाला क्रम से याद नहीं तो पहली कक्षा की हिन्दी
किताब लाएँ और उसको ठीक से याद कर लें।
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