इस
सप्ताह गांधी जयंती के
अवसर पर
समकालीन कहानियों में भारत से ओम प्रकाश
मेहरा की
लंबी कहानी सुराजी कॉलोनी का स्वच्छता अभियान का पहला भाग
कॉलोनी
में उस दिन सुबह से ही बड़ी गहमा-गहमी थी। गांधी जयंती का दिन था और ख़बर
थी- ख़बर क्या थी पक्का ही था कि ज़िले के प्रभारी मंत्री कॉलोनी में
स्वच्छता सप्ताह का श्रीगणेश करेंगे। 'कॉलोनी'
शब्द से आप भ्रम में न पड़ें। दरअसल यह कुछ छोटी-कुछ बड़ी, कुछ कच्ची-कुछ
अधपक्की गोया तमाम किस्म की झोपड़ियों का एक बेतरतीब-सा झुंड था जो शहर
के बीचोबीच बहने वाले नाले की पूरब दिशा वाली कगार पर उग आया था। दूसरी
कगार पर इसी तरह का दूसरा झुंड था जिसे भी उधर वाले कॉलोनी कहते। यहाँ के
बाशिंदों ने दुर्गंध, सीलन, कीचड़ और गंदगी से भरी अपनी इन बेतरतीब
बस्तियों को फलाँ-फलाँ कॉलोनी के नाम दे लिए थे।
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फ़िल्म इल्म में
अनहसिर्क अमर की कलम से
गांधी जी और सिनेमा
गाँधीवाद
से उत्प्रेरित अच्छे चित्रों का निर्माण सन 1935 से प्रारंभ होता है, जब
पुणे स्थित प्रभात स्टूडियो के लिए महात्मा के नाम से वी. शांताराम ने एक
कथा-चित्र बनाया। उन्हीं दिनों गांधी जी ने अस्पृश्यता के विरोध में अपनी
आवाज़ उठाई थी और इस फ़िल्म का निर्माण उसी के आधार पर किया गया था।
महाराष्ट्र के संत के रूप में गांधी जी से मिलता-जुलता एक ऐसा चरित्र
उसमें प्रस्तुत किया था जिसने स्पष्ट शब्दों में अस्पृश्यता को युग का
सबसे बड़ा अभिशाप घोषित किया था। 'मिल' में अहिंसात्मक उपायों से अपने
अधिकार प्राप्त करने पर ज़ोर दिया गया था, और 'अमृत-मंथन' में बलि-प्रथा
के विरोध में आवाज़ उठाई गई थी।
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साहित्यिक निबंध में
मनमोहन सरल का आलेख कला और महात्मा गांधी
कहा
जाता है कि महात्मा गांधी में सौंदर्य-बोध बहुत अल्प था। एक बार पं. जवाहरलाल
नेहरू ने इस विषय पर कहा था, ''यह सही है कि सौंदर्य और कलात्मकता की समझ
गांधी जी में कम थी, ख़ासकर मानव-निर्मित चीज़ों की सुंदरता उन्हें विशेष
आकर्षित नहीं करती थी पर वे प्राकृतिक सुषमा की प्रशंसा किया करते थे। उनके
निकट विश्वप्रसिद्ध ताजमहल निरीह मज़दूरों से जबरन करवाया गया काम ही था।
पेरिस के प्रसिद्ध एफ़िल टॉवर को वे बच्चों का खिलौना मानते थे। उन्होंने
अपनी तरह से जीवन जीने की कला आविष्कृत की थी और उससे अपनी पूरी ज़िंदगी
कलात्मक बनाई। गांधी जी कला को आत्मा की अभिव्यक्ति मानते थे।
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दृष्टिकोण में
प्रवीण शुक्ला की व्यक्ति-विवेचना
गांधी और गाँधीगिरी
गांधी,
एक व्यक्ति नहीं विचार है। मैंने हाल ही में लैरी कांलिन्स और दॉमिनिक लैपियर
की एक पुस्तक 'आधी रात को आज़ादी' पढ़ी। उन्होंने इस पुस्तक में गांधी जी के
बारे में उनकी नोआखाली की यात्रा का वर्णन करते हुए लिखा है- ''77 साल का वह
बूढ़ा आदमी, जिसका पोपला चेहरा, आत्मविश्वास से चमक रहा था, इतना शक्तिशाली
था कि अंग्रेज़ साम्राज्य की जड़े जितनी उस बुढ़ऊ ने खोदी थी, उतनी अन्य किसी
जीवित व्यक्ति ने नहीं। बुढ़ऊ ही वह व्यक्ति था, जिसके कारण अंग्रेज़
प्रधानमंत्री ने मजबूर होकर रानी विक्टोरिया के प्रपौत्र को नई दिल्ली की
तरफ़ रवाना किया था, ताकि भारत को आज़ादी देने का कोई सही तरीका ढूँढ़ा जा
सके।''
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संस्मरण में
समीर लाल का मर्मस्पर्शी चित्रण
मैं गांधी से मिला हूँ
उस रात कुछ
मित्र परिवारों के साथ जुआघर गया। सभी मित्र हिंदुस्तानी थे। दरवाज़े पर
पहुँचते ही हम ठिठक गये। मेरे मित्र के मुँह से अनायास ही निकल पड़ा-वो देखो
गाँधी जी! एकाएक धक्का लगा-कहाँ ये जुआघर और यहाँ कहाँ गाँधी जी! फिर भी हम
पलटे तो देखा लॉबी के दायीं ओर एक मंचनुमा पत्थर पर मेनीकुइन - आदमी जो पुतला
बना खड़ा रहता है, गाँधी जी के रुप में खड़ा था। कभी ज्ञानप्रकाश विवेक की
कहानी तमाशा में गांधी के मेनीकुइन के बारे में पढ़ा था आज साक्षात देख रहा
हूँ वैसा ही माजरा। गांधी-जुआघर में। गाँधी-लोगों को जुआघर में आने का
निमंत्रण देता, गाँधी-एक जिंदा पुतला, न हिलता न डुलता, बस तटस्थ भाव से सबको
ताकता गांधी।
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