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कॉलोनी में उस दिन सुबह से ही
बड़ी गहमा-गहमी थी। गांधी जयंती का दिन था और ख़बर थी- ख़बर
क्या थी पक्का ही था कि ज़िले के प्रभारी मंत्री कॉलोनी में
स्वच्छता सप्ताह का श्रीगणेश करेंगे।
'कॉलोनी' शब्द से आप भ्रम में न
पड़ें। दरअसल यह कुछ छोटी-कुछ बड़ी, कुछ कच्ची-कुछ अधपक्की
गोया तमाम किस्म की झोपड़ियों का एक बेतरतीब-सा झुंड था जो शहर
के बीचोबीच बहने वाले नाले की पूरब दिशा वाली कगार पर उग आया
था। दूसरी कगार पर इसी तरह का दूसरा झुंड था जिसे भी उधर वाले
कॉलोनी कहते। यहाँ के बाशिंदों ने दुर्गंध, सीलन, कीचड़ और
गंदगी से भरी अपनी इन बेतरतीब बस्तियों को कम से कम एक
इज़्ज़तदार नाम देने की गरज से और शायद इस तरह अपने दिलों को
एक तरह की राहत बख़्श करने की ख़्वाहिश के चलते फलाँ-फलाँ
कॉलोनी के नाम दे लिए थे। क्रूर सच्चाई यह थी कि वे सब एक
सचमुच की कॉलोनी का सिर्फ़ सपना देखता-देखते सर खप जाने के लिए
अभिशप्त लोग थे. . .लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच था कि अपनी
बस्ती को एक खुशगवार और इज़्ज़त बख्श नाम देने जितनी गुंजाइश
का हक़ तो उनका बनता ही था। किस्सा कोताह उधर वाली का नाम समता
कॉलोनी था और इधर वाली का जिसका यह किस्सा है सुराजी कॉलोनी।
बस्ती के बुजुर्गों ने सुराज नगर नाम सुझाया था लेकिन बस्ती की
युवा जमात ने सिरे से उसे नामंज़ूर कर दिया था। |