राजनीति का अपना एक संसार है, जिसमें इज़्ज़त होती
है, कीचड़ होती है। कीचड़ और इज़्ज़त जब उछलती हैं, तो राजनीति में गतिशीलता के दर्शन
होते हैं। वरन राजनीति कीचड़ भरे नाले के समान प्रवाहहीन-सी दिखलाई पड़ती है। नाले की
कीचड़ उछल कर जब सड़क पर आती है, तब पूर्व में कीचड़ के नीचे जारी मंद-मंद प्रवाह गति
पकड़ लेता है और उसकी गति व दिशा दोनों स्पष्ट होने लगती हैं। यही स्थिति राजनीति
की। कीचड़ राजनीति का स्थाई भाव है। राजनीति है जहाँ, कीचड़ है वहाँ!
इज़्ज़त राजनीति का स्वाभाविक अंग है, क्यों कि
इज़्ज़त मनुष्य के साथ सदैव से चिपकी है। मनुष्य है, तो इज़्ज़त होगी ही। इज़्ज़त,
इज़्ज़त है, भले ही वह किसी भी स्तर की क्यों न हो। इज़्ज़त वेश्या की भी होती है,
क्यों कि किसी क्षण वह भी बेइज़्ज़त महसूस करती है! इसी प्रकार राजनीति और उसके
मुख्य तत्व नेता भी इज़्ज़तदार होते हैं। वेश्या के समान राजनीति भी कब किस के
बिस्तर पर करवटें बदलने लगे, कोई भरोसा नहीं है। फिर भी दोनों की अपनी-अपनी इज़्ज़त
होती है। दोनों के मध्य बस एक अंतर है, वेश्या का अपना एक चरित्र होता है, किंतु
नेता इस मामले में प्रगतिवादी है, इसलिए उसकी इज़्ज़त बहुआयामी है!
'इज़्ज़त पर कीचड़ उछाली जा रही है!' राजनीति में
यह जुमला अक्सर सुनने को मिलता है, क्यों कि इज़्ज़त और कीचड़ दोनों ही राजनीति के
स्थाई भाव हैं। किंतु मैं इस जुमले से इत्तफ़ाक़ नहीं रखता। दरअसल राजनीति में कीचड़
इज़्ज़त पर उछाली ही नहीं जाती। जिस प्रकार नाले से कीचड़ उछाली जाती है, उसी प्रकार
इज़्ज़त से कीचड़ उछाली जाती है। यह प्रक्रिया जनहित में है। इसके विपरीत कहावत है
कि इज़्ज़त और कीचड़ जब तक दबी रहे तभी तक ठीक है, किंतु मैं इससे भी इत्तफाक नहीं
रखता। मेरे विचार से इज़्ज़त और कीचड़ दबी-ढकी रहे तो एक दिन बदबू का प्रसारण करने
लगती हैं। वायुमंडल को प्रदूषित करने लगती हैं। अत: दोनों का उछलना आवश्यक है।
इज़्ज़त जितनी उछलती है, उतनी ही चमकती है। दबी-ढकी इज़्ज़त क्या ख़ाक चमकेगी?
उछलना इज़्ज़त का स्वाभाविक गुण है!
जो लोग कीचड़ और इज़्ज़त को दबा कर रखना चाहते हैं,
वे 'जमाखोर' प्रवृत्ति के होते हैं और जमाख़ोरी सर्वजन हित में नहीं है! इज़्ज़त से
कीचड़ का उछलना सर्वजन के हित में तो है ही, व्यक्तिगत हित में भी है। जब तक इज़्ज़त
कीचड़ में दबी रहेगी, तब तक इज़्ज़तदार का यथार्थ स्वरूप प्रगट नहीं होगा। उसके
सद्गुण सार्वजनिक नहीं हो पाते, अत: वह सार्वजनिक जीवन से वंचित रहता है। वह
सर्व-जन के गौरव से वंचित रहता है। अत: सर्व-जन होने के लिए इज़्ज़त से कीचड़ उछालना
परमावश्यक है। आवरण से ढके व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता है।
व्यक्तित्व-विकास तभी होता है, जब वह आवरणहीन होता है, अर्थात नंगा हो जाता है।
कीचड़ उछलने के बाद राजनीति में व्यक्ति नंगे से भी दो कदम आगे होता है, अर्थात वह
नंग हो जाता है। कहावत है, ''नंग बड़ा बादशाह से'' इस आर्ष-वचन से मैं इत्तफ़ाक़
रखता हूँ। जिस किसी विद्वान ने हितकारी इस सूत्र की स्थापना की है, उसे किसी
राष्ट्रीय सम्मान से नवाज़ा जाना चाहिए। नंगेपने के इसी मूलमंत्र के सहारे कई
महानुभाव बादशाहत तक पहुँच चुके हैं।
कीचड़ उछलने के बाद इज़्ज़त पर कुछ दाग़ चिपके रह
जाते हैं। किंतु वे दाग़ शत्रु नहीं मित्र प्रवृत्ति के होते हैं! ऐसे दाग़ इज़्ज़त
पर सलमा-सितारों की तरह चमकते हैं! जिसकी इज़्ज़त दाग़दार नहीं, राजनीति में वह
व्यक्ति दमदार नहीं! दाग किसी डिटरजेंट से धोने की धूर्तता मत करना! पछताना पड़ेगा!
अत: कीचड़ उछल रही है, उछलने दो। इज़्ज़त दाग़दार हो रही है होने दो! जन-नायक का
यथार्थ स्वरूप जन-जन के समक्ष व्यक्त होने दो! नाक कट भी जाए तो क्या ग़म है! जितनी
बार कटेगी, हर बार सवा हाथ बढ़ेगी! नाक कट रही है, जन-नायक का हो रहा है, होने दो!
लोकतंत्र सुदृढ़ हो रहा है, होने दो! कीचड़ उछल रही है उछलने दो!
२४
सितंबर २००७ |