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आप तो न जाने कैसे आई. पी. एस.
में आ गए?
महेश चंद्र द्विवेदी
''द्विवेदी जी! आप तो न जाने
कैसे आई. पी. एस. में आ गए? आप तो बिल्कुल पुलिस वाले लगते
ही नहीं हैं।''
जब से मैंने आई. पी. एस. ज्वाइन की है अनेक बार यह बात लोगों
न मुझसे कही है और अब जब मैं रिटायर हो चुका हूँ, तब भी
कभी-कभी कोई-कोई मुझसे कह ही देता है। ऐसे अवसर पर मैं
कभी-कभी भ्रमित हो जाता हूँ कि यह बात मेरी प्रशंसा में कही
जा रही है अथवा मेरी अयोग्यता पर छींटाकशी की जा रही है, एवं
मैं उसे धन्यवाद दूँ या उसका मुँह नोचूँ। 'आप तो न जाने कैसे
आई. पी. एस. में आ गए?' यह सुनकर प्राय: मुझे लगता है कि वह
यह बात अप्रत्यक्ष रूप से यह जताने को कह रहा है कि जाने
'किस चुग़त ने तुम्हें आई. पी. एस. में ले लिया? बच्चू खूब
नकल टीपी होगी, नहीं तो तुममें योग्यता तो मूँगफली बेचने भर
की भी नहीं है?', और 'आप तो पुलिस वाले लगते ही नहीं हैं`
सुनकर मुझे लगता है कि चूँकि मैं उसे मोटा-ताज़ा, बड़ी
मूँछों और रोबीले चेहरे वाला नहीं दिख रहा हूँ अत: उसे मेरे
प्रभावशाली पुलिस वाला होने के विषय में चिंताजनक संदेह है।
गंभीरता से विचार करने पर मुझे
लगता है कि उनका मेरी योग्यता पर संदेह करना ठीक ही है।
मैंने 'न जाने कैसे' फैक़्टर को बार-बार अपनी ज़िंदगी को
प्रभावित करते पाया है और मुझे अक्सर लगता है कि मेरी
ज़िंदगी में बहुत-सी अच्छी बातें 'न जानें कैसे` होतीं रहीं
हैं और मेरा आई. पी. एस. में चयनित होना भी न जाने कैसे हुआ
है।
वर्ष १9५७ में जब मैंने
लखनऊ विश्वविद्यालय में बी. एस. सी. में प्रवेश लिया था और
सुभाष होस्टल में रहने आया था, तब मन में सबसे अधिक डर
रैगिंग का था। परंतु जिस दिन सीनियर लोग मेरे विंग में
जूनियर्स की रैगिंग करने आए, उस दिन मुझे बुखार आ जाने के
कारण मैं होस्टल छोड़कर लोकल गार्जियन के यहाँ चला गया था।
मेरे कमरे के बाद का कमरा हरदोई के एक पहलवान छाप फ्रेशर
कृष्ण बिहारी शुक्ला को अलाट हुआ था। मेरा कमरा बंद पाकर वे
लोग जब आगे बढ़े और हरदोई के उस पहलवान का दरवाज़ा खटखटाया
तो उसने दाहिने हाथ में हॉकी स्टिक लेकर दरवाज़ा खोला और फिर
दोनों हाथों में हॉकी स्टिक लहराते हुए रैगिंग करने वालों को
दौड़ा लिया। रैगिंग करने वाले सीनियर्स ने इतने भव्य स्वागत
की कल्पना भी नहीं की थी, अत: वे ऐसे भागे जैसे गधे के सिर
से सींग। भविष्य में किसी ने मेरे विंग में रैगिंग करने की
हिम्मत ही नहीं की, क्यों कि सबको पता चल चुका था कि मेरा
पड़ोसी पहलवान हरदोई ज़िले का है।
एम. एस. सी. फ़ाइनल के
कोर्स में सबसे कठिन पेपर थ्योरेटिकल फ़िज़िक्स का था
क्यों कि उसे पढ़ाने वाले डॉ. वाचस्पति ब्लैक बोर्ड पर
ऐसे-ऐसे मैथमेटिकल इक्वेशन्स लिखते रहते थे जिनका कोई भी
हिस्सा हममें से अधिकतर की समझ में नहीं आता था और हममें से
अधिकतर का खय़ाल था कि डॉ. वाचस्पति की समझ में भी नहीं आता
होगा। फाइनल इग्ज़ाम में मैंने इस पेपर के सभी प्रश्न ऐसे हल
किए कि मैं भी समझ न सकूँ कि मैं क्या और क्यों लिख रहा हूँ।
फिर 'न जाने कैसे` इस पेपर में मुझे इतने अधिक मार्क्स मिल
गए कि मैं एम. एस. सी. में टाप कर गया।
एम. एस. सी. पास करते ही
फ़िज़िक्स विभाग के हेड डॉ. पी. एन. शर्मा ने मुझे बुलाकर
कहा, ''आई. टी. कालेज की प्रिंसिपल का फ़ोन आया था कि उन्हें
इंटर और बी. एस. सी. की लड़कियों को पढ़ाने के लिए एक सीधा
लड़का चाहिए। मैंने तुम्हारा नाम बता दिया है। कल जाकर उनसे
ऑफ़िस में मिल लेना।'' डा. शर्मा को 'न जाने कैसे` मैं
हार्मलेस लगा जब कि सच तो यह था कि मैं २४ घंटे में २6 घंटे
सिर्फ़ लड़कियों के ख़यालों में बिताता था।
आई. पी. एस. की परीक्षा में
मैंने कंपल्सरी सब्जेक्ट्स के अतिरिक्त फ़िज़िक्स और
स्टेटिस्टिक्स विषय लिए थे और स्टेटिस्टिक्स के पेपर को खूब
चौपट कर दिया था। पेपर के बाद मैंने उसमें अपने को २०० में
कुल १०८ मार्क्स दिए थे, परंतु 'न जाने कैसे` इग्ज़ाम़िनर ने
उसमें मुझे १५१ मार्क्स दे दिए और मै इंटरव्यू चौपट करने के
बाद भी आई. पी. एस. में 9वीं पोज़ीशन से आ गया।
आई. पी. एस. की सेवाकाल में
मैंने ऐसा कोई कर्म नहीं छोड़ा था जो मुझे 'डायरेक्टर जनरल
पुलिस` बनने देने के लिए अवांछनीय हो। मैंने ट्रेनिंग में दी
गई प्रशासकीय एवं वैयक्तिक प्रकरणों को अंग्रेज़ों की तरह
अलग-अलग रखने की सीख को इतनी गंभीरता से ओढ़ लिया था कि
नेताओं, संबंधियों, मित्रों और अपने उच्चाधिकारियों तक से
प्रशासकीय प्रकरणों में प्रशासकीय भाषा में बोलने लगता था,
जब कि ये सभी उम्मीद रखते थे कि उनकी बात चाहे सही हो या
ग़लत, उन्हें मदद का आश्चासन अवश्य मिलेगा। बात ग़लत होने पर
मेरे मुँहफट तरीक़े से मना कर देने पर मुझसे सब का मुँह फूल
जाता था। छिद्रान्वेषण की अपनी कुटैव के कारण मैं अपने
सीनियर्स की कमियों के विषय में बोलने में भी नहीं चूकता था
और मेरे एक दो 'मित्रगण' उन सीनियर्स से अपनी निकटता बढ़ाने
हेतु मेरे द्वारा कही हुई बात को नमक मिर्च लगाकर उन
सीनियर्स तक पहुँचा देते थे। मेरे एक दो वेल-विशर्स ने मुझे
समझाया था कि मुझे किसी के सामने सीनियर्स के विरुद्ध नहीं
बोलना चाहिए और उनसे निकटता बनाने हेतु थोड़ी बहुत बटरबाजी
एवं पारिवारिक सेवा के गुण सीखने चाहिए। उनमें से एक ने बड़ा
ही सही सूत्रवाक्य भी बोला था, 'योर एनुअल रिपोर्ट इज़ ए
रिफ्ल़ेक्शन औफ़ योर पर्सनल रिलेशन्स विद योर बौस ऐंड हैज़
नथिंग टु डू विद योर वर्क, परंतु मैं था कि 'सबसे भले वे
मूढ़ जिन्हैं न व्यापै जगत गति`।
अत: मैंने सीनियर अफ़सरों
एवं नेताओं में काफी अप्रियता अर्जित कर ली थी। कुछ मुख्यमंत्री अफ़सरों
की
ईमानदारी को तो बरदाश्त कर लेते हैं परंतु ईमानदारी पर
अड़ियलपन बिरला ही बरदाश्त कर पाता है और मेरी 'कुख्याति`
ऐसी ही बन गई थी। परिणामस्वरूप मेरे सीनियरमोस्ट होते हुए और
मेरे विरुद्ध अन्य कोई बात न होते हुए भी तीन बार मेरे से
जूनियर को डायरेक्टर जनरल पुलिस बनाया गया, परंतु 'न जाने
कैसे` चौथी बार रिक्ति होने पर मैं ही डायरेक्टर जनरल पुलिस
बना दिया गया।
इन अनुभवों से मुझे विश्वास हो गया है कि जीवन में बहुत कुछ
'न जाने कैसे' हो जाता है।
२४ सितंबर
२००७ |