वैसे तो पौराणिक ग्रंथ महाभारत
और उसमें वर्णित अद्भुत दिव्य अलौकिक शक्तियों से युक्त तमाम
नायक-नायिकाओं की जानकारी हममें से अधिकांश को है ही, लेकिन
यहाँ इस ग्रंथ के एक महानायक कर्ण का उल्लेख करना प्रासंगिक
है। यह तथाकथित सूर्य-पुत्र विशिष्ट प्रकार के कवच एवं कुंडल
के साथ ही पैदा हुआ था। कवच इसकी त्वचा एवं कुंडल उसके कान के
अभिन्न हिस्से थे। इनके रहते इस पर किसी अस्त्र-शस्त्र का असर
नहीं हो सकता था। कर्ण को युद्ध में हराने एवं मारने के लिए
स्वयं इंद्र को उसके पास जाकर इस सुरक्षा प्रणाली का दान
माँगना पड़ा था। कितना भाग्यशाली था न कर्ण?
लेकिन उससे ईर्ष्या करने और
अफ़सोस करने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार की अलौकिक
शक्तियाँ हम साधारण मनुष्यों के पास भले ही न हों, लेकिन
प्रकृति हम पर भी काफ़ी मेहरबान है। प्रकृति ने हमें भी एक
मज़बूत सुरक्षा प्रणाली प्रदान कर रखी है। यह प्रणाली नाना
प्रकार के घातक अस्त्र-शस्त्रों के प्रति भले ही अभेद्य न हो,
परंतु तमाम प्रकार के सामान्य या फिर घातक रोग उत्पन्न करने
वाले जीवाणुओं से लगातार हमारी रक्षा करने का प्रयास करती रहती
है और इस प्रयास में अक्सर सफल भी रहती है। यह सुरक्षा
प्रणाली, जिसे प्रतिरोधक तंत्र के नाम से जाना जाता है, सदैव
सक्रिय रहती है और अपना काम इतने चुपचाप तरीक़े से करती रहती
है कि हमें इसका भान भी नहीं होता है। विज्ञानवार्ता में इसी
तंत्र को समझने-बूझने का प्रयास किया जाएगा।
अगर मैं यह कहूँ कि इस
प्रतिरोधक तंत्र में अर्धसैनिक-बल से ले कर तरह-तरह के हरबा-हथियारों
से लैस, आमने-सामने की लड़ाई में दक्ष सैनिकों के दस्ते, नाना
प्रकार के रसायनिक हथियारों को स्वयं ही संश्लेषित करने एवं
उनका उपयोग करने की क्षमता से लैस उच्चकोटि के तकनीकि सैनिक-बल
एवं यहाँ तक कि मरे हुए सैनिक भी इस सुरक्षा प्रणाली में शामिल
हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वास्तव में, ये सैनिक बल और
कोई नहीं हमारी अपनी कोशिकाएँ ही हैं जो अलग-अलग विशिष्टताओं
से लैस होती हैं। आखिरकार सूक्ष्म जीवाणुओं से लड़ने के लिए
सूक्ष्म कोशिकाएँ ही कारगर हो सकती हैं न। बड़े-बड़े विशालकाय
योद्धा भला किस काम के! इस प्रणाली की संरचना कैसी है और यह
कैसे काम करती है, आइए अब इसे समझा जाए।
इस प्रणाली का एक हिस्सा हमें
जन्म के साथ विरासत में मिलता है और दूसरा हिस्सा हम जन्म के
बाद नाना प्रकार के जीवाणुओं का सामना करते हुए अर्जित करते
हैं। नैसर्गिक (INNATE) अथवा जन्म से मिली सुरक्षा प्रणाली
लगभग सभी प्रकार के जीवाणुओं या फिर अन्य प्रकार के अनजाने,
अनचीन्हे पदार्थों का शरीर में प्रवेश अवरुद्ध करने का प्रयास
करती है। इस नाकेबंदी के बाद भी यदि बाहरी तत्व शरीर में
प्रवेश कर पाने में सफल हो जाते हैं तो इसी प्रणाली के अन्य
अवयव उन्हें तुरंत मार डालने या फिर कम से कम उन्हें निष्क्रिय
करने का प्रयास अवश्य करते हैं। हमारे शरीर की खूबसूरत त्वचा
एवं आंतरिक अंगों की अंदरूनी सतह का निर्माण करने वाला
एंडोथीलियल मेंब्रेन, इस प्रणाली के महत्वपूर्ण अवयव हैं। ये
दोनों ही सीमा पर तैनात सजग प्रहरियों के समान सदैव सक्रिय
रहते हैं। सबसे पहले तो ये विदेशी तत्वों को शरीर में घुसने ही
नहीं देते यदि वे किसी तरह घुस भी गए तो उन्हें पकड़ना और बाहर
खदेड़ना भी इनके ज़िम्मे है। त्वचा का बाहरी हिस्सा
लाखों-करोड़ों कोशिकाओं की कई परतों का बना होता है। इसकी सबसे
भीतरी परत की कोशिकाओं में ही विभाजन की क्षमता होती है एवं यह
प्रक्रिया इनमें सदैव चलती रहती है। इस प्रकार नवनिर्मित
कोशिकाएँ पुरानी कोशिकाओं की परतों को बाहर की ओर ठेलती रहती
हैं। जैसे-जैसे पुरानी परतें बाहर की ओर आती हैं, इनकी
कोशिकाएँ चिपटी होती जाती हैं एवं इनके अंदर पाया जाने वाला एक
विशेष प्रोटीन अघुलनशील किरैटिन में बदलता जाता है। त्वचा की
बाहरी सतह तक आते-आते ये कोशिकाएँ मृतप्राय: हो जाती हैं और
सूख कर त्वचा से अलग होती रहती हैं। इन किरैटिनयुक्त मृतप्राय:
कोशिकाओं को जीवाणुओं के लिए भेद पाना मुश्किल होता है और यदि
इसे भेदने में ये सफल भी हो जाते हैं तो जब तक ये त्वचा की
भीतरी परतों में प्रवेश करें, इन्हें मृतप्राय: कोशिकाओं के
साथ शरीर से अलग कर दिया जाता है। यही नहीं, यह त्वचा हमें
गर्मी-सर्दी के साथ-साथ वातावरण के तमाम हानिकारक अवयवों यथा
रेडिएशन, अम्लीय, क्षारीय वस्तुओं के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान
करती है।
शरीर के कई आंतरिक अंगों की
अंदरूनी सतह का निर्माण करने वाली एंडोथीलियल मेंब्रेन की
कोशिकाएँ प्राय: एक ही परत में सिमटी होती हैं लेकिन ये कई
प्रकार की होती हैं और तरह-तरह से हमें सुरक्षा प्रदान करती
है। यथा- आहार नाल, श्वसन तथा प्रजनन तंत्र के विभिन्न हिस्सों
में ये एक प्रकार के गाढे द्रव का श्राव करती है जो इन तंत्रों
में घुसे जीवाणुओं तथा अन्य बाहरी तत्वों को फँसाने का कार्य
करती हैं एवं अन्य प्रकार की कोशिकाएँ जिनके बाहरी सतह पर
अत्यंत बारीक बालनुमा संरचनाएँ होती हैं, इन जीवाणुओं को इन
अंगों से बाहर निकालने के प्रयास में लगी रहती हैं। छींकना,
खाँसना आदि इसी प्रयास के उदाहरण हैं। कई अंगों में ये
एंडोथिलियल कोशिकाएँ ग्रंथि का रूप ले लेती हैं, जिनके श्राव
तरह-तरह से हमारी सुरक्षा करते हैं। यथा- मुख में लार, आँखों
में आँसू या फिर स्तन में दूध का उत्पादन करने वाली ग्रंथियाँ
लाइसोज़ाइम एवं फास्फोलाइपेज़ नामक एंज़ाइम का श्राव भी करती
हैं, जो बैक्टीरिया के सेलवाल को ही पचाने की क्षमता रखती हैं
और इस प्रकार इन अंगों में उनका विनाश करती रहती हैं। हमारे
आमाशय में ऑक्ज़िटिक नामक एंडोथीलियल कोशिकाएँ हाइड्रोक्लोरिक
एसिड के उत्पादन में संलग्न रहती हैं। यह एसिड भोजन के साथ घुस
आए अधिकांश बैक्टीरिया का सफाया कर देने की क्षमता रखता है।
त्वचा एवं श्वसन तंत्र की कोशिकाएँ भी बीटा डिफेंसिन जैसे
एंटीबैक्टीरियल रसायन का श्राव करती हैं, जो जीवाणुओं के विनाश
में काम आते हैं।
हमारे शरीर की कुछ विशिष्ट
कोशिकाएँ जब वाइरस से संक्रमित होती हैं तो एक विशेष प्रकार के
ग्लाइकोप्रोटीन्स इंटरफेरॉन्स का उत्पादन करती हैं। ये रसायन
आसपास की कोशिकाओं को वाइरस संक्रमण के विरुद्ध प्रतिरोधक
क्षमता से सुसज्जित करने में सहायक होते हैं। परिणाम स्वरूप
व्यक्ति की वाइरस प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है।
इसके अतिरिक्त प्रकृति ने हमारे जनन, उत्सर्जन एवं आहार नाल के
शरीर के बाहर खुलने वाले छिद्रों एवं उनसे जुड़ी नलिकाओं में
हानिरहित सहभोजी बैक्टीरिया का जंगल उगा रखा है। इन रास्तों से
शरीर में घुसने वाले हानिकारक जीवणुओं का प्रतिरोध ये सहभोजी
बैक्टीरिया भी करते हैं। ये बैक्टीरिया इन संक्रामक जीवाणुओं
से भोजन एवं आवास के लिए प्रतिस्पर्धा करने के साथ-साथ इन
स्थानों की क्षारीयता एवं अम्लीयता मे परिवर्तन कर संक्रामक
जीवाणुओं का जीवन दूभर कर देते हैं। इन कारणों से इन रास्तों
से घुसने वाले जीवाणुओं की संख्या उस सीमा तक नही पहुँच पाती
जिससे व्यक्ति रोग-ग्रसित हो जाए।
नाना प्रकार के
प्रतिरोधकों-अवरोधकों से सुसज्जित नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली का
वरदान प्रकृति ने हमें दिया है। भला हम किस कर्ण से कम
सौभाग्यशाली हैं? लेकिन बहुत खुश होने की आवश्यकता नहीं है। इन
तमाम व्यवस्थाओं के बावजूद भी रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु
हमारे शरीर मे घुस ही जाते हैं एवं तरह-तरह के रोगों का कारण
बनते हैं। आख़िर ये संक्रामक जीवाणु कोई हँसी खेल तो है नहीं।
इनके पास भी तरह-तरह के रसायनों के रूप मे सक्षम आक्रमक क्षमता
होती है, जो हमारी नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली को ध्वस्त कर सकती
है और इन्हें हमारे शरीर में प्रवेश दिला सकती है। ये रसायन
मुख्य रूप से एंज़ाइम्स ही होते हैं जो हमारी बाह्य सुरक्षा
प्रणाली की कोशिकाओं को नष्ट कर शरीर में इनके प्रवेश को सुगम
बनाते हैं।
शरीर में ये जीवाणु येन-केन
प्रवेश पा गए इसका मतलब यह नहीं है कि बस, अब शरीर पर इनका
साम्राज्य स्थापित हो गया। शरीर के अंदर भी इनसे निपटने के
हमारे पास तमाम कारगर तरीक़े हैं। कुछ तरीक़े तो ऊपर वर्णित
नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली के ही अंग हैं लेकिन बाकी हमारे
द्वारा अर्जित सुरक्षा प्रणाली के हिस्से हैं, जिनकी कार्य
प्रणाली जटिल परंतु ज़्यादा कारगर है। आइए, पहले इस अंक में
नैसर्गिक तरीक़ों की जाँच पड़ताल कर ली जाए, फिर अगले अंक में
अर्जित सुरक्षा प्रणाली (AQUIRED) पर बातचीत की जाएगी।
जैसा कि पहले भी उल्लेख किया
गया है, नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली के सभी अवयव निर्विश्ष्टि
प्रकार के होते हैं अर्थात ये रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं
अथवा अन्य हानिकारक तत्वों के (जिनका प्रवेश शरीर में बाहर से
होता हो) खिलाफ़ समान रूप से कार्रवाई करते हैं। इस कार्रवाई
में ऐसे जीवाणुओं एवं हानिकारक तत्वों की पहचान से लेकर उनका
विनाश सब कुछ शामिल होता है। जीवाणुओं के किसी अंग या ऊतक में
प्रवेश करते ही सबसे पहली प्रतिक्रिया उस अंग विशेष अथवा ऊतक
में प्रदाह के रूप में देखी जाती है। यह प्रदाह उस अंग या ऊतक
में सूजन एवं लालिमा के साथ-साथ दर्द एवं बुखार के रूप में
परिलक्षित होता है। इसका कारण है, इस संक्रमित क्षेत्र में
रक्त प्रवाह का अचानक बढ़ जाना। संक्रमण के कारण घायल अथवा
संक्रमित कोशिकाएँ मुख्य रूप से दो प्रकार के रसायन समूहों का
उत्पादन एवं श्राव करने लगती हैं- एइकोसैन्वाएड्स तथा
साइटोकाइन्स। एइकोसैन्वायड्स समूह का एक उदाहरण
प्रोस्टाग्लैंडिंस है, जो ताप बढ़ाने एवं रक्त वाहिनियों को
फैला कर उस क्षेत्र मे रक्त प्रवाह को बढ़ाने का काम करते हैं।
इसी समूह के रसायन का दूसरा उदाहरण है- ल्युकोट्रीन्स, जो
संक्रमित क्षेत्र में ल्युकोसाइट्स (श्वेत रक्त कणिकाओं) को
अधिक से अधिक संख्या में आकर्षित करती है। बढ़ा हुआ ताप
जीवाणुओं को मारने या फिर उनकी संख्या कम करने में सहायक होता
है क्योंकि उच्च ताप पर जीवाणुओं के एन्ज़ाइम्स नष्ट होने लगते
हैं। ल्युकोसाइट्स (जो हमारी मुख्य सुरक्षा सेना है) की
उपयोगिता के बारे में आगे बताया जाएगा। इंटरल्युकिंस,
ल्युकोसाइट्स के मध्य संचार माध्यम का कार्य करती हैं तथा
इंटरफेरॉन्स, जो वाइरस-संक्रमित कोशिकाओं में प्रोटीन संश्लेषण
को बंद कर वाइरस प्रतिरोधी प्रभाव उत्पन्न करते हैं-
साइटोकाइन्स समूह के उदाहरण हैं।
साइटोकाइन्स तथा इसी प्रकार
के अन्य रसायन संक्रमित क्षेत्र मे अधिक से अधिक संख्या में
नाना प्रकार के प्रतिरोधी कोशिकाओं को आकर्षित करते हैं ताकि
घायल ऊतकों की मरम्मत के साथ-साथ जीवणुओं का सफाया भी किया जा
सके।
उपरोक्त प्रतिरक्षा उपायों
में ल्युकोसाइट्स ज़िक्र आया है। वास्तव में ये मुख्य रूप से
पाँच प्रकार के होते हैं - इयोसिनोफिल्स, बेसोफिल्स,
न्युट्रोफिल्स, मोनोसाइट्स एवं लिम्फोसाइट्स। इन सभी का
उत्पादन हमारी अस्थियों की श्वेत मज्जा में ही होता है, परंतु
इनकी संरचना एवं कार्यविधि में अंतर होता है। न्युट्रोफिल्स
तथा मोनोसाइट्स स्वतंत्र रूप से विचरण करने वाली भक्षक
कोशिकाओं की श्रेणी मे आती हैं। मोनोसाइट्स संक्रमित ऊतक में
पहुँच कर मैक्रोफेजेज़ में पविर्तित हो जाती हैं। ये कोशिकाएँ
संक्रमित ऊतकों में घूम-घूम कर जीवाणुओं का न केवल पहचान करती
हैं, बल्कि उनसे चिपट कर (यदि वे आकार में बड़े हैं) या फिर
उनका भक्षण कर (यदि वे आकार में छोटे हैं), सफाया करती हैं।
इनके अतिरिक्त ऊतकों में उपस्थित नेचुरल किलर सेल्स वाइरस
संक्रमित एवं ट्युमर कोशिकाओं के मेंब्रन में छिद्र बनाते हैं
जिनके द्वारा इनमें पानी घुसने लगता है और अंत में ये कोशिकाएँ
फट कर नष्ट हो जाती हैं। इनके अतिरिक्त कुछ सीमा तक
इओसिनोफल्सि, बेसेफिल्स, ऊतकों में पाए जाने वाले डेंड्राइटिक
तथा मास्ट कोशिकाएँ भी इस नैसर्गिक प्रतिरक्षा प्रणाली
के हिस्से
हैं जो येन-केन-प्रकरेण जीवाणुओं का सफाया करनें में सहायक
होती हैं।
इनके अतिरिक्त तीस से भी अधिक
प्रोटीन्स से सुसज्जित एक पूरक तंत्र भी होता है जो न केवल
नैसर्गिक अपितु अर्जित सुरक्षा प्रणाली में भी भागीदार है। इस
तंत्र के प्रोटीन्स तरह-तरह के तरीक़ों से इन संक्रामक
जीवाणुओं से हमारी रक्षा करने में जुटे रहते हैं। कैसे? इसकी
चर्चा अगले अंक में अर्जित सुरक्षा प्रणाली की चर्चा के साथ की
जाएगी। |