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दृष्टिकोण

गांधी और गांधीगिरी
प्रवीण शुक्ल

गांधी, एक व्यक्ति नहीं विचार है। मैंने हाल ही में लैरी कांलिन्स और दॉमिनिक लैपियर की एक पुस्तक 'आधी रात को आज़ादी' पढ़ी। उन्होंने इस पुस्तक में गांधी जी के बारे में उनकी नोआखाली की यात्रा का वर्णन करते हुए लिखा है- ''७७ साल का वह बूढ़ा आदमी, जिसका पोपला चेहरा, आत्मविश्वास से चमक रहा था, इतना शक्तिशाली था कि अंग्रेज़ साम्राज्य की जड़े जितनी उस बुढ़ऊ ने खोदी थी, उतनी अन्य किसी जीवित व्यक्ति ने नहीं। बुढ़ऊ ही वह व्यक्ति था, जिसके कारण अंग्रेज़ प्रधानमंत्री ने मजबूर होकर रानी विक्टोरिया के प्रपौत्र को नई दिल्ली की तरफ़ रवाना किया था, ताकि भारत को आज़ादी देने का कोई सही तरीका ढूँढ़ा जा सके।''

आख़िर क्या था, उस व्यक्ति में जिसे पूरे संसार ने महात्मा के रूप में स्वीकार किया। वह व्यक्ति जिसके बारे में यह कहा गया कि- ''वह पूर्णतः मौलिक क्रांतिकारी थे और जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई लड़ने की एक कठोर शैली ढूँढ़ निकाली थी, जिसकी मौलिकता की पूरी दुनिया में कोई मिसाल नहीं है।'' मैं इस पुस्तक की भूमिका में यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ, गांधी जी पर अब तक अनेक पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं, अनेक स्थानों पर उनके विचार और विचारधाराओं को लेकर शोधकार्य हुआ है। लेकिन हिंदुस्तान की आज़ादी के लगभग ६० वर्ष बाद भी यह प्रश्न अपनी जगह कायम है कि गांधी जी इस देश और समाज के लिए वर्तमान स्थितियों में कितने प्रासंगिक हैं। मैंने अनेक यात्राओं में यह महसूस किया है कि आज जब कहीं गांधी जी की चर्चा चलती है तो समाज का एक वर्ग विशेष गांधी का ज़िक्र आते ही उनकी और उनकी विचारधारा की आलोचना करने में आगे बढ़कर रुचि लेता है। इधर आप गांधी का ज़िक्र करेंगे तो तुरंत आप के आसपास के लोग, विशेष रूप से युवा, दो बातों के लिए गांधी को दोष देना शुरू कर देते हैं। एक तो गांधी ने पाकिस्तान बनवा दिया और दूसरी यह कि अहिंसा के द्वारा इतने बड़े देश पर शासित अंग्रेज़ी सरकार को जिसके साम्राज्य में सूरज नहीं छुपता था, आख़िरकार कैसे झुकाया या भगाया? इस तरह के वार्तालाप में गांधी समर्थक को प्रायः इसलिए चुप होना पड़ता है क्यों कि आप जिस व्यक्ति से तर्क या बातचीत कर रहे हैं, उस व्यक्ति ने निश्चित रूप से या प्रायः गांधी के बारे में कुछ भी पढ़ा-लिखा नहीं होता। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि गांधी जी के बारे में बात करने वाले ये तथाकथित बुद्धिजीवी जो उनकी आलोचना करने में लगे रहते हैं, उनमें अधिकांश लोग ऐसे है जिन्होंने गांधी और उनकी विचारधारा को जानना तो दूर वे उसके आस-पास से भी नहीं गुज़रे हैं। इसलिए मैंने अक्सर अपने मित्रों से कहा है कि यदि आप उस महामानव के बारे में बात करना चाहते हैं तो पहले एक बार उनके बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करें और उसके बाद, क्यों कि गांधी वो शक्ति है जिसका अंदाज़ा उनके जीवनक्रम को जाने बिना हो ही नहीं सकता।

हम जब भी ऐतिहासिक दृष्टि से किसी व्यक्ति के बारे में बातचीत करते हैं तो हमें उस व्यक्ति के जीवन काल के समय की परिस्थितियों का भान होना बहुत ही आवश्यक है। गांधी जी का जन्म २ अक्तूबर १८६९ में पोरबंदर में हुआ। उन्होंने जिस स्वरूप में अपना राजनीतिक, दार्शनिक और वैचारिक जीवन जिया, उस पर उसकी पूरी जीवन यात्रा का प्रभाव था। मैं अभी पिछले दिनों एक काव्य समारोह में भाग लेने के लिए यूनाइटेड किंगडम (यू. के.) गया हुआ था, वहाँ हम लोग यू.के. के एक बहुत पुराने बसे हुए शहर बुलवरहैम्पटन में ठहरे हुए थे। मैं अपने कवि मित्रों के साथ जब सुबह नाश्ते की टेबल पर था, तो उस समय यू.के. में भारत के सांस्कृतिक अधिकारी श्री राकेश दुबे भी मेरे साथ उपस्थित थे। उनसे होने वाले वार्तालाप में उन्होंने मुझसे कहा कि प्रवीण शुक्ल जी यहाँ जो महिला आपके लिए नाश्ता तैयार कर रही है, यही महिला कुछ समय बाद यहाँ से फ्री होकर आपके कमरे में सफ़ाई करेगी, उसमें झाडू लगाएगी और फिर यही आपके बाथरूम, टायलेट और संडास आदि को साफ़ करेगी। यदि आप इस समय भारत में होते और आपको यह बताया जाता कि जो व्यक्ति आपका नाश्ता तैयार कर रहा है, यह वही व्यक्ति है, जो इस होटल में स्वीपर का भी काम करता है, तो शायद आप उस व्यक्ति से नाश्ता ग्रहण करना स्वीकार नहीं करते। क्यों कि हमारे मुल्क में आज भी जातिवाद की जो बेड़ियाँ हैं वो पूरी तरह टूटी नहीं हैं। गांधी इसलिए गांधी बने क्यों कि उन्होंने अपने छात्र जीवन से ही इंग्लैंड प्रवास के दौरान यह महसूस किया कि एक व्यक्ति को ही अपने सारे कार्य स्वयं करने चाहिए। इसलिए एक स्थान पर उन्होंने लिखा है, ''जो मेरे साथ है, उन्हें नंगे फ़र्श पर सोना, खुरदरे कपड़े पहनना, सूर्योदय से पहले उठना, सादा और स्वादहीन भोजन करना, यहाँ तक की संडास भी स्वयं साफ़ करना होगा।''

गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका पहुँचे तो उन्होंने देखा कि वहाँ भारतीयों की स्थिति लगभग ऐसी थी जैसी हमारे देश में अछूतों की थी। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में जो समय बिताया उस दौरान उन्हें लगा कि ये गोरे लोग काले लोगों के साथ जो भेदभाव कर रहे हैं वो उचित नहीं है। क्यों कि प्रभु ने हम सबको एक जैसा इंसान बनाया है। केवल रंग भेद से हमारे बीच इतना भेद कैसे हो गया है कि हम इंसान होते हुए भी दूसरे इंसान का तिरस्कार करने लगे? मुझे लगता है कि भेदभाव की जिस पीड़ा को गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में भोग चुके थे, उसी पीड़ा को उन्होंने हिंदुस्तान आने पर अछूत भाइयों के भीतर महसूस किया। उन्हें लगा कि अछूत भाइयों को बेवजह समाज में तिरस्कृत किया जाता है और इसलिए उन्होंने हरिजन उद्धार का कार्यक्रम चलाया। आज़ादी के ६० वर्ष बाद बेशक शहरों में चमक-दमक बढ़ गई है, अधिक आर्थिक संसाधन हमने जुटा लिए हैं, लेकिन अपराधों में होने वाली बढ़ोतरी, समाज में पनपने वाला असंतोष, लगातार घटित होने वाली आतंकवाद की घटनाएँ, गिरते हुए सामाजिक मूल्य और निरंतर नैतिक पतन की इस प्रक्रिया में हमें गांधी जी की तरफ़ देखना ही होगा। इन सारी स्थितियों में गांधी जी वो प्रकाश स्तंभ हैं जिनकी रोशनी व्यक्ति के मन में कहीं भीतर फैले हुए अँधेरे का हरण करके उसे एक नया रास्ता दिखाती है।

इस दौर में आदमी की आत्मनिर्भरता, सरलता, नैतिकता, कर्तव्यनिष्ठा, सादगी और सहजता का गांधी से बड़ा कोई भी दूसरा उदाहरण नहीं है। जिन दिनों द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूरा संसार आग की लपटों से घिरा हुआ था, हिटलर और मुसोलिनी के सिद्धांत बम और गोलियों के रूप में अंगारे बरसा रहे थे। उस समय भी गांधी जी ने उस ब्रिटिश शासक के सम्मुख जो जर्मनी और इटली पर विजय प्राप्त कर चुका था, अहिंसा का एक ऐसा सिद्धांत रखा, जिसका कोई भी जवाब उस महाशक्ति के पास नहीं था। उन्होंने हिंदुस्तान के लोगों से कहा, ''हथियार से नहीं, मनोबल से लड़ो। मशीनगन की गोलियों से नहीं, प्रार्थनाओं से लड़ों। बमबारी और चीख-पुकार से नहीं, खामोशी और धैर्य से लड़ो।'' उनके इस संदेश ने भारत के जनमानस में जैसे बिजली दौड़ा दी। भारतीय जनता अंग्रेज़ों के विरुद्ध उठ खड़ी हुई। धीरे-धीरे गांधी जी की आवाज़ करोड़ों भारतीयों की आवाज़ बन गई।

जिस व्यक्ति को इस सदी के महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने अपने प्रमाण भेजे। लियो टॉलस्टाय जैसे विश्वविख्यात चिंतक और दार्शनिक जिसकी विचार धारा से प्रभावित हुए बिना न रह सके, अंग्रेज़ हुकूमत के प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने जिसकी शक्ति को स्वीकार किया। आखिर साँवले रंग के उस आदमक़द शरीर में कुछ तो ख़ास रहा होगा। उनकी तर्कहीन आलोचना करने से बेहतर है कि पहले हम उसके बारे में विस्तार से जाने, उसके बाद अपने विचार पस्तुत करें। आज जब हम २००६ में गांधी जी की बात करते हैं तो इस समय हमारी आज़ादी को अपने पाँवों पर खड़े हुए लगभग ६० वर्ष का समय व्यतीत हो चुका है। गांधी जी ने १९१९ में कांग्रेस के साथ मिलकर कार्य शुरू किया, ये आज़ादी से लगभग ३२ वर्ष पहले की स्थिति थी और एक ऐसी स्थिति जिसमें उन्हें बर्बर अंग्रेज़ हुकूमत के साथ अपना तालमेल बिठाना था और उस तालमेल को बिठाकर आज़ादी के आंदोलन को भी आगे बढ़ाना था। ये काम एक तलवार की धार पर चलने जैसा काम था। गांधी जी ने एक तरफ़ अंग्रेज़ों को ये विश्वास दिलाया कि मेरा काम देश में अशांति फैलाना नहीं है, दूसरी तरफ़ विभिन्न आंदोलनों के माध्यम से जनता को अपना विरोध प्रकट करने के लिए अहिंसक तरीक़ों का इस्तेमाल करते हुए आंदोलित किया।

मुझे कई बार यह सोचकर आश्चर्य होता है कि उस अद्भुत व्यक्तित्व में ऐसा क्या चुंबकत्व था कि उस समय के देश के सबसे बड़े उद्योगपति घनश्याम दास बिरला, जमनादास बजाज से लेकर सड़क पर नंगे पाँव चलने वाला एक आम आदमी तक उनके एक इशारे पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तैयार हो गया था। उस महामानव के पास ऐसी कौन-सी शक्ति थी कि राजनैतिक रूप से उनके विचारों से सहमत न होने वाले दूसरे नेता जैसे नेताजी सुभाष चंद्र बोस आदरपूर्वक उन्हें राष्ट्रपिता के नाम से संबोधित करते थे। वो समय ऐसा था जिसमें यदि अंग्रेज़ी सरकार को ऐसा आभास होता था, कि फलाँ व्यक्ति उसके खिलाफ़ आवाज़ भड़काकर देश में अशांति फैलाना चाहता है, तो वे तुरंत उसकी आवाज़ को दबाने के लिए उसकी जीवन लीला समाप्त कर देते थे। हिंदुस्तान जैसे विशाल देश में अंग्रेज़ों की बर्बर हुकूमत को हिलाने के लिए आंदोलन खड़ा करना और उसे जनसामान्य के साथ जोड़ना बहुत अधिक महत्वपूर्ण कार्य था। हमारे कई युवा मित्र गांधी जी की तुलना अक्सर शहीद भगतसिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, लाला लाजपत राय और वीर सावरकर आदि क्रांतिकारी विचारधारा से करने लगते हैं। मुझे लगता है कि यह तुलना बेईमानी है, क्यों कि ये सारे के सारे ऐसे राही थे, जिनके रास्ते बेशक भिन्न हो सकते थे लेकिन मंज़िल एक थी, जिसका नाम था आज़ादी। ये सारे के सारे ही भारत माता के पैरों में पड़ी हुई गुलामी की बेड़ियों को काटना चाहते थे। मैंने पहले भी स्पष्ट किया है कि किसी भी क्रांतिकारी या स्वतंत्रता सेनानी की देश भक्ति पर किसी भी स्थित में कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगाया जा सकता।

लेकिन हिंदुस्तान जैसे विशाल देश में जनसामान्य को साथ लेकर अपना जो पहला आंदोलन गांधी जी ने चंपारण में खड़ा किया था, उससे लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक आते-आते उनके स्वर में वह तल्ख़ी आ चुकी थी, जिसकी गूँज हिंदुस्तान की सीमाएँ पार करके ब्रिटिश हुकूमत और पूरे संसार में उसी स्वर में सुनाई देने लगी थी, जो स्वर क्रांतिकारियों के स्वर जैसा ही था। जो गांधी १९१५ में हिंदुस्तान में अपनी नींव जमा रहा था उसने १९४२ में अहिंसक स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा बनाये हुए अपने आंदोलन के क़िले पर चढ़कर भारत की आज़ादी का झंडा फहराने के लिए 'करो और मरो' का संदेश देते हुए ये घोषणा की थी कि मैं आज़ादी को लेकर ही रहूँगा। गांधी जी ने राष्ट्र को 'करो या मरो' का महामंत्र देते हुए कहा था, ''हमारी संपूर्ण योजना स्पष्ट है। इसमें गोपनीयता के लिए कोई स्थान नहीं है। यह एक खुला आंदोलन है, खुला विद्रोह है। हमारी टक्कर एक विशाल और शक्ति संपन्न साम्राज्य से है। हमारा यह संघर्ष एक धर्मयुद्ध है जो सीधा और सच्चा है। आज से प्रत्येक भारतीय स्वयं को पूर्ण रूप से स्वतंत्र समझे। उसके सामने आज एक ही लक्ष्य है, एक ही उद्देश्य है और वह है अहिंसा के मार्ग पर चल कर स्वतंत्रता प्राप्त करना—अब तो करना या मरना है। हमारा एक ही मंत्र है, एक ही नशा है—'करो या मरो'। इस बार हमें भारत की स्वतंत्रता का अंतिम युद्ध लड़ना है। इस युद्ध में प्रत्येक भारतीय अपने आपको सेनापति मान कर भाग लेगा। सुझाव देने या मार्गदर्शन के लिए समिति का कोई सदस्य जीवित रहे या न रहे। प्रत्येक भारतवासी को यह मानकर इस युद्ध को अपनी अंतिम साँस तक जारी रखना है कि यह स्वतंत्रता का अंतिम युद्ध है और हमें हर हालत में विजय प्राप्त करनी है।''

गांधी जी के इस स्वर को सुनने के बाद आप महसूस करेंगे कि अहिंसा, सत्य, निष्ठा और अपनी विचार शीलता के द्वारा शक्ति प्राप्त करके स्वतंत्रता संग्राम के इस सेनानी ने अंग्रेज़ों को किस भाषा में ललकारा है। आज आज़ादी के ६० वर्ष पश्चात जब भारत एक शक्ति के रूप में पूरे संसार का नेतृत्व करने के लिए अग्रसर है हमें सत्य, अहिंसा और स्वराज्य के आजीवन पुजारी का जीवन संदेश पूरे संसार में फिर से फैलाना होगा। क्यों कि राजनीति और समाज-नीति उनके लिए धर्म-नीति का ही पर्याय थी। राजनीति में उन्होंने राज्य से अधिक नीति को महत्व दिया और राम-राज्य को अपना आदर्श घोषित किया। जिसमें आसुरी शक्ति, तानाशाही और हिंसा का नामों-निशान नहीं था। समाज सुधारक और विचारक के रूप में गांधी जी का योगदान अद्वितीय है। भारतीय समाज के संपूर्ण विकास के लिए उन्होंने अपने विचारों में आत्मिक उत्थान पर सर्वाधिक बल दिया है। राष्ट्र का गौरव बढ़ाने के लिए जातिवाद, छुआछूत, पर्दा प्रथा, बाल विवाह, विधवाओं की दुर्दशा आदि को सुधारने के लिए उन्होंने व्यापक कार्यक्रम शुरू किए थे और वे मानते थे कि एक श्रेष्ठ समाज के निर्माण के लिए उसमें आई हुई विषमताओं को समाप्त करना पड़ेगा। इसलिए उन्होंने जातिवाद और छुआछूत जैसी बुराइयों को मिटाने पर भी बल दिया।

गांधी जी भारत की ग्रामीण संस्कृति को पहचानकर ग्रामीण विकास पर विशेष बल देते हुए भारत के ग्रामीण जीवन को लघु और कुटीर उद्योगों से जोड़ना चाहते थे। हमारी सरकार आज भी यह महसूस करती है, कि यदि श्रेष्ठ भारत का निर्माण करना है तो ग्रामीण जीवन का उत्थान करना ही पड़ेगा इसलिए पिछली अनेक पंचवर्षीय योजनाओं के साथ-साथ हाल ही में ग्रामीण विकास के लिए सरकार द्वारा लिए गए निर्णय, इस बात की घोषणा करते हैं कि गांधी जी केवल अपने सामाजिक और राजनैतिक जीवन में ही नहीं बल्कि उनके आर्थिक सोच और विचार भी हमें नई दिशा देते हैं। यद्यपि पिछले ६० वर्षों में स्वतंत्रता और लोकतंत्र के अनेक रूप देख चुके हैं। आज अनेक परिभाषाएँ और मुहावरे बदले हुए हैं, लेकिन आज भी जीवन की विसंगतियों पर विजय प्राप्त करने के लिए समाज और देश का नवनिर्माण करते हुए नैतिक और आत्मिक संबल प्राप्त करने के लिए गांधी और गाँधीवाद की ओर देखना ही पड़ेगा।

अंत में केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि वह समाज जो अपने पूर्वजों और अँग्रेजों का आदर करना छोड़ देता है, धीरे-धीरे पतनोन्मुख होकर गर्त में चला जाता है। मैं संसार के अनेक देशों की यात्राएँ कर चुका हूँ और इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हिंदुस्तान की सबसे बड़ी पूंजी आज भी उसकी संस्कृति है। हमारे जैसा समाज और संस्कृति किसी भी दूसरी सांस्कृतिक धरोहर के पास नहीं है। आइए हम अपने पूर्वजों और देश के महामनीषियों के बारे में विस्तार से जाने और उनकी समस्त अच्छाइयों को अपने व्यक्तित्व के भीतर उतारने की कोशिश करें। समाज और देश के नवनिर्माण का संकल्प लें। आप जब इस पुस्तक से गुजरेंगे तो आपको महसूस होगा कि गांधी जैसे विराट व्यक्तित्व पर यदि हजार पृष्ठों की पुस्तक भी लिखी जाए तो भी उनके व्यक्तित्व की केवल एक झलक ही मिल सकती है। मैंने उस महामानव के जीवन सागर में से कुछ बूँदें निकालने की कोशिश की हैं। यदि इन बूँदों में से एक बूँद भी आपके मन को आप्लावित कर सकी तो मैं अपने प्रयास को सफल समझूँगा। अंत में केवल इतना ही कहता हूँ कि देश की नई पीढ़ी को गांधी के बारे में और उनकी विचारधारा को जिसे गाँधीवाद का नाम दिया गया है, अपनाकर निश्चित रूप से एक नई दिशा मिलेगी।

१ अक्तूबर २००७

  
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