इस
सप्ताह स्वतंत्रता
दिवस के अवसर पर-
समकालीन कहानियों में
भारत से एस आर हरनोट की कहानी
नदी ग़ायब है
टीकम हाँफता हुआ घर के नीचे के
खेत की मुँडेर पर पहुँचा और ज़ोर से हाँक दी,
'पिता! दादा! ताऊ! बाहर निकलो। नदी ग़ायब हो गई है।
हाँक इतने ज़ोर की थी कि जिस
किसी के कान में पड़ी वह बाहर दौड़ा आया था।
टीकम अब खेत की पगडंडी से ऊपर चढ़ कर आँगन में पहुँच गया था।
उसका माथा और चेहरा पसीने से भीगा हुआ था। चेहरे पर उग आई नर्म
दाढ़ी के बीच से पसीने की बूँदें गले की तरफ़ सरक रही थी। आँखों
में भय और आश्चर्य पसरा हुआ था जिससे आँखों का रंग गहरा लाल
दिखाई दे रहा था। उसका पिता और दादा सबसे पहले
बाहर निकले और पास पहुँच कर आश्चर्य से पूछने लगे,
"टीकू बेटा क्या हुआ?
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हास्य-व्यंग्य में
डॉ राम प्रकाश सक्सेना का मौसम है
फीलगुडयाना
साहित्यकार
और सरकार में चोली-दामन का संबंध है। सरकार समय-असमय कभी पुरस्कार, कभी
प्रकाशन या साहित्य यात्रा अनुदान देकर साहित्यकारों को फीलगुड कराती
रहती है। हम जैसे कुछ चमचे-साहित्यकार भी इस अहसान के बदले नेताओं की
जन्मदिन-पार्टियों में काव्य-गोष्ठी का आयोजन कर, कभी उनके सम्मान में
वृहत प्रोग्राम कर अपना कर्तव्य निभाते रहते हैं। और दोनों एक दूसरे को
फीलगुड कराते रहते हैं। वैसे तो 'फीलगुड' शब्द पिछले चुनाव के पूर्व
भाजपा के कुछ कारिंदों ने गढ़ा था। पर यह नारा उन्हें ले डूबा। अब लोग उस
शब्द की चर्चा करना भी पसंद नहीं करते। वैसे शब्द शब्द ही है। शब्द भला
किसी का क्या बिगाड़ सकता है।
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फ़िल्म इल्म में रक्षाबंधन के अवसर पर
ममता सिंह की फ़िल्मी-पड़ताल
हिंदी फ़िल्मों में
रक्षाबंधन
राखी
का ज़िक्र करें तो सबसे पहले याद आती है फ़िल्म 'रेशम की डोरी'। सन 1974
में आई इस फ़िल्म के निर्देशक थे गुरुदत्त के भाई आत्माराम। धर्मेंद्र
की बहन बनी अभिनेत्री कुमुद छुगानी गाती हैं- 'बहना ने भाई की कलाई पे
प्यार बाँधा है, प्यार के दो तार से संसार बाँधा है, रेशम की डोरी से
संसार बाँधा है'। ये गाना सुमन कल्याणपुर ने गाया था, शैलेंद्र ने लिखा
था और संगीत था शंकर जयकिशन का। फ़िल्म 'अनपढ़' सन 1962 में आई थी। इस
फ़िल्म में भी भाई-बहन का प्रसंग आता है, इस फ़िल्म में राजा मेंहदी
अली खाँ ने राखी का एक बेहतरीन गीत लिखा था। 'रंग बिरंगी राखी लेकर आई
बहना, राखी बँधवा ले मेरे वीर'।
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प्रेरक प्रसंग में
दीपिका जोशी की कलम से दादी की मीठी
चिज्जी
एक
दिन मुंबई के लोकल ट्रेन में सफ़र कर रही थी। दोपहर का समय था इसलिए ज़्यादा
भीड़ नहीं थी, सो बैठने के लिए जगह भी मिल गई। सामने वाले बेंच पर एक बहुत ही
बुड्ढी औरत बैठी थी। सारा बदन झुर्रियों से भरा, बिना दाँत का मुँह भी
गोल-गोल, सफ़ेद बालों का सुपारी जितना जूड़ा, और हाथ में एक थैला था जिसमें
चिप्स, नमकीन, कुछ मिठाइयों के पैकेट। शायद अपने नाती-पोतों के लिए ये सब
चीज़ें ले जा रही हैं दादी जी... सोचकर ये बात बड़ी मज़ेदार लगी। एक दो
स्टेशन जाने के बाद वो दादी उठी, हाथ-पैर थरथर काँप रहे थे, बैठे हुए लोगों
का कंधा और जो भी सहारा मिले, पकड़-पकड़कर आगे बढ़ने लगी।
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साहित्य समाचार में-
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