एक दिन मुंबई के लोकल ट्रेन
में सफ़र कर रही थी। दोपहर का समय था इसलिए ज़्यादा भीड़
नहीं थी, सो बैठने के लिए जगह भी मिल गई। सामने वाले बेंच पर
एक बहुत ही बुड्ढी औरत बैठी थी। सारा बदन झुर्रियों से भरा,
बिना दाँत का मुँह भी गोल-गोल, सफ़ेद बालों का सुपारी जितना
जूड़ा, और हाथ में एक थैला था जिसमें चिप्स, नमकीन, कुछ
मिठाइयों के पैकेट। शायद अपने नाती-पोतों के लिए ये सब
चीज़ें ले जा रही हैं दादी जी... सोचकर ये बात बड़ी मज़ेदार
लगी।
एक दो स्टेशन
जाने के बाद वो दादी उठी, हाथ-पैर थरथर काँप रहे थे, बैठे
हुए लोगों का कंधा और जो भी सहारा मिले, पकड़-पकड़कर आगे
बढ़ने लगी। मैं हैरान तब हुई जब वह बुढ्ढी औरत अपनी धीमी
गहराती आवाज़ में कहने लगी, ''चिप्स, मिठाई ले लो, अपने
बच्चों को खुश करो।''
जब तक मेरे कान पर वो शब्द
पड़े, दादी काफ़ी आगे निकल चुकी थी। वहाँ भी उसका चिप्स ले
लो. . मिठाई ले लो. . .चल ही रहा था। मेरे मन में आया कि एक
कोई चीज़ इससे ख़रीदनी चाहिए। लेकिन मुझे अगले स्टेशन पर
उतरना था और वह औरत मुझसे काफ़ी दूर निकल गई थी। समय बहुत कम
था, शायद उतनी देर में कोई चीज़ लेना और पैसे चुकता करना
संभव नहीं था। फिर यह भी लगा कि 'क्या करना अपना बोझ बढ़ा
कर, पहले ही मेरा थैला समान से ठसा-ठस भरा हुआ है, और
मैं चुप बैठी स्टेशन की राह देखने लगी। जहाँ मैं बैठी थी
वहाँ से दूर दिखाई दिया कि एक आभिजात्य घराने की सी लगती
महिला ने काफ़ी समान उससे ख़रीद कर उस दादी को जीवन-यापन के
इस कठिन कार्य में मदद कर दी। वह देखकर मुझे अच्छा तो लगा,
पर खुद को कोसती रही कि अगर मैंने भी दो प्यार भरे बोल बोल
के उसकी दुखभरी ज़िंदगी में कुछ तो खुशी दी होती तो शायद मैं
उस खुशी को ज़िंदगी भर अपने दिल में सँजो कर रख सकती।
आज भी मुझे उस दादी से
मिलने की बड़ी ख्वाहिश है। उसके पास से चिज्जी ले कर अपने
बेटे को 'दादी की चिज्जी' कहकर खिलाना चाहती हूँ क्यों कि
बातों ही बातों में मैंने उसे दादी के बारे में काफ़ी बताया
था (शायद यह सोचकर कि जो ग़लती मैंने की, मेरा बेटा आगे
ज़िंदगी में न करें)। यदि आपको भी ऐसी दादी कहीं नज़र आए तो
इधर-उधर कुछ भी सोचे बिना मदद का हाथ आगे बढ़ाएँगे ना? उसे
जरूरत है हमारे दो मीठे बोलों की, मदद के हाथों की, शायद
सहानुभूति उस जैसी खुद्दार को पसंद ना भी आए। मैंने ग़लती की
है, आप न करिए!! |