हम साहित्यकारों के लिए वसंत ऋतु वैसे भी फीलगुड का
मौसम होता है। पेड़-पौधों में नए पत्ते अंकुरित होते हैं। पलाश अपने शबाब पर होता
है। चंदन-बदन मृगलोचनी सालियों और भाभियों से होली खेलने के बहाने स्पर्श-सुख
प्राप्त होता है। इस मौसम में अच्छे-अच्छे चरित्र वालों का मन मचल जाता है और पाँव
फिसल जाता है।
साहित्यकार और सरकार में
चोली-दामन का संबंध है। सरकार समय-असमय कभी पुरस्कार, कभी प्रकाशन या साहित्य
यात्रा अनुदान देकर साहित्यकारों को फीलगुड कराती रहती है। हम जैसे कुछ
चमचे-साहित्यकार भी इस अहसान के बदले नेताओं की जन्मदिन-पार्टियों में काव्य-गोष्ठी
का आयोजन कर, कभी उनके सम्मान में वृहत प्रोग्राम कर अपना कर्तव्य निभाते रहते हैं।
और दोनों एक दूसरे को फीलगुड कराते रहते हैं।
वैसे तो 'फीलगुड' शब्द पिछले चुनाव के पूर्व भाजपा
के कुछ कारिंदों ने गढ़ा था। पर यह नारा उन्हें ले डूबा। यह शब्द अपसगुनिया माना
जाने लगा। अब लोग उस शब्द की चर्चा करना भी पसंद नहीं करते। वैसे शब्द शब्द ही है।
शब्द भला किसी का क्या बिगाड़ सकता है।
लेखक होने के नाते मुझे इस शब्द में बहुत दम लगता
है, उतना ही दम जितना दम लोकभाषा में माँ-बहिन की गालियों का। मैं सोचता हूँ कि जिस
प्रकार अकेले राजीव गांधी ने 'कीजिए' की जगह हिंदी मे 'करिए' चला दिया, उसी प्रकार
आगे चल कर 'फीलगुड' भी हिंदी शब्दकोश में अवश्य स्थान पा लेगा, क्यों कि इसमें 'जान'
है।
हमारे देश के खटमल रूपी नेता इतने माहिर हैं कि वे
किसी भी नारे को लोकप्रिय बना सकते हैं। यदि साहित्यकार उनका साथ दे दें तो सोने
में सुहागा। वैसे भी साहित्यकार के लिए कोई भी शब्द अछूत नहीं है।
सरकार किसी भी पार्टी की हो, वह जनता का 'गुड' तो करती नहीं या कर नहीं पाती, बस
उसका उद्देश्य यही रहता है कि जनता 'फीलगुड' करती रहे।
आज़ादी के कई वर्षों तक कांग्रेस ने दलितों और
मुसलमानों का कुछ ख़ास 'गुड' नहीं किया, किंतु उन्हें 'फीलगुड' कराते रहे। अब तो
दूसरी पार्टियाँ भी इन लोगों को 'फीलगुड' कराने लगी हैं। इस शुभ कार्य को पूरा करने
के लिए बहुजन पार्टी और समाजवाद पार्टी तो एक दूसरे से होड़ करने लगीं।
एक नेता ने सन ८४ के दंगों में सिक्खों को मरवाने
में अहम भूमिका निभाई। जब उन्हें अपनी गद्दी डगमगाती नज़र आई, तो उन्होंने इसका
निराकरण भी निकाल लिया। एक सिख बहुल मोहल्ले में उन्हीं नेता ने एक गुरुद्वारा
बनवाने के लिए एक करोड़ की धन राशि अपनी सांसद निधि से दे दी। सिख जनता अपना दुख
भुलकर 'फीलगुड' करने लगी।
एक सेक्युलर पार्टी के शासन काल में सवर्णो ने
दलितों के घर जला दिए। शासक नेता ने सवर्ण दंगाइयों को पुलिस से ज़मानत दिलवा दी।
और दलितों के मोहल्ले में अपने सांसद निधि से एक बौद्ध विहार का निर्माण करा दिया।
साथ ही, डॉ. आंबेडकर की मूर्ति एक चौराहे पर स्थापित करा दी। नेताजी ने अपनी
कूटनीति से दोनों को 'फीलगुड' करा दिया।
लेखक का कार्य सामान्य जन को रास्ता दिखाना भी है।
मैंने सारे भारत की यात्रा की यह जानने के लिए कि देश में फीलगुड कहाँ-कहाँ है।
मेरा समाज के प्रति कर्तव्य बनता है कि मैं अनपढ़ या अल्प-पढ़ जनता को अपनी आँखों
से फीलगुड दिखाऊँ।
मैंने कई कार्यालयों में जाकर देखा। आश्चर्य हुआ
कि सभी लोग जागरूक होकर काम कर रहे थे। भारतीय सरकारी कार्यालयों में काम होता देख
मैं गद्गद हो गया। अपनी आँखों-देखी को सत्यापित करने के लिए मैंने एक क्लर्क से
पूछा, ''भइए, जब मैं पिछले दिसंबर में यहाँ आया था, तब या तो लोग सो रहे थे या
रूम-हीटर से ताप रहे थे। आज सब जागरूक कैसे हो गए?''
क्लर्क बोला, ''सर, मार्च का महीना फीलगुड का है। इसी महीने सब ठेकेदारों के रुके
हुए बिल पास होते हैं और बदले में वे हमें फीलगुड कराते हैं।''
मुझे पुरे भारत में फीलगुड का मौसम लगा। लेकिन जिन
राज्यों में भाजपा की सरकार है वहाँ का मौसम मुझे शत-प्रतिशत फीलगुडयाना लगा। ऐसे
ही एक राज्य के मुख्यमंत्री ने घोषणा कर दी कि उन्होंने अपने एक आदिवासी-बहुल
क्षेत्र में ऐसी व्यवस्था कर दी है कि हर छोटे-बड़े को फीलगुड होने लगा है।
देशी-विदेशी पत्रकारों को यह सब दिखाने के लिए विशाल सभा का आयोजन किया गया।
इस आयोजन का प्रबंध एकदम टिप-टॉप! क्षेत्र के
ठेकेदारों ने दिल खोलकर खर्च किया जिससे पत्रकारों को पूरा माहौल ही फीलगुड़ लगे।
पत्रकारों के समक्ष आम जनता को संबोधित कर मुख्यमंत्री ने कहा, ''हमारा यह क्षेत्र
आदिवासी बहुल है। हम गर्व से कह सकते हैं कि हमने इस क्षेत्र में अल्प समय में ही
सबको फीलगुड करा दिया है। यदि आज केंद्र में भी हमारी पार्टी का शासन होता, तो हम
फीलगुड की जगह 'फील-बेटर करा देते।''
एक युवा पत्रकार ने मुख्यमंत्री को चैलेंज किया,
''सर, आपका दावा झूठा है। इस सभागृह के बाहर सुक्खू सहरिया खड़ा है। ग़रीबी के कारण
वह भूखों मर रहा है। यहाँ दया की गुहार लगाने आया है। उसे फीलगुड कैसे होगा?''
इस अप्रत्याशित सवाल से मुख्यमंत्री सकपका गए। कुछ ही क्षणों में उन्होंने अपने आप
को सँभाला। रक्षात्मक उत्तर के लिए मुख्यमंत्री ने अपने पालक मंत्री की ओर देखा।
पालक मंत्री ने कलेक्टर की ओर, और कलेक्टर ने निकट खड़े पुलिस इंस्पेक्टर की ओर
देखा।
पुलिस इंस्पेक्टर तत्काल सभागृह के बाहर आया। उसे
देखते ही तीन-चार सिपाही उसकी ओर दौड़े। आज्ञा मिली, ''सुक्खू सहरिया को पकड़ कर
लाओ।''
एक सिपाही ने आवाज़ लगाई, ''कौन है, सुक्खू सहरिया?''
थोड़ी देर में एक मरियल-सा आदमी इंस्पेक्टर के सामने खड़ा था। काँपते हुए बोला,
''माई-बाप, मैं हूँ सुक्खू सहरिया।''
इंस्पेक्टर ने गरजते हुए कहा, ''तुझे क्यों नहीं होता फीलगुड। स्साले, माँ..., अभी
थाने में बंद करा देते हैं, तुझे फीलगुड होने लगेगा।''
सुक्खू डर के कारण रोने लगा, ''हम क्या जाने फीलगुड़। आप हमारे मालिक हैं। आप कै
दें-होत है, तो हम भी कै दें-होत है।''
बेचारा सुक्खू सहरिया फीलगुड शब्द का सही उच्चारण भी नहीं कर सकता।
एक अनुभवी सिपाही ने अपने इंस्पेक्टर को समझाया, ''सर, यह मुख्यमंत्री का एरिया है।
इसको बंद करने से लफ़ड़ा हो जाएगा। इसका बयान ले लेते हैं कि इसको फीलगुड होता
है।''
अब तक इंस्पेक्टर सामान्य हो गए थे। कहा, ''ठीक है, इसका बयान लेकर सभागृह में आ
जाओ।''
थोड़ी देर में सिपाही ने सुक्खू सहरिया का बयान
लिया और अंदर इंस्पेक्टर को पकड़ा दिया। इंस्पेक्टर ने वह काग़ज़ कलेक्टर की ओर,
कलेक्टर ने पालक मंत्री की ओर और पालक मंत्री ने मुख्यमंत्री की ओर बढ़ा दिया।
मुख्यमंत्री ने अपना भाषण रोक कर वह काग़ज़ पढ़ा। पढ़कर उनकी बाँछें खिल गईं।
उन्होंने कहना शुरू किया, ''मैं पत्रकारों की बहुत इज़्ज़त करता हूँ। आख़िर ये ही
तो प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ हैं। फिर भी मुझे यह कहते हुए खेद होता है कि अति
उत्साही युवा पत्रकार विपक्ष के बहकावे में आकर सरकार के अच्छे कार्यों को भी नकार
देते हैं। कुछ ही समय पूर्व हमारे एक युवा पत्रकार भाई ने कहा था, ''बाहर खड़े
सुक्खू सहरिया को फीलगुड नहीं होता है।'' इस समय हमारे पास सुक्खू सहरिया का लिखित
बयान है। यह कहकर उन्होंने सुक्खू सहरिया के बयान का काग़ज़ विजय-पताका की तरह हवा
में फहराया। काग़ज़ पर अंकित था -
''मुझे भी फीलगुड होता है।''
निशान-अँगूठा
(सुक्खू पुत्र हलकू सहरिया)
काग़ज़ देखते ही पत्रकारों में ठहाका गूँजा।
मुख्यमंत्री ने इसे अपनी सफलता का प्रतीक समझा। सत्ता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने
नारे लगाए - मुख्यमंत्री ज़िंदाबाद, फीलगुड ज़िंदाबाद...।
२४ अगस्त २००७
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