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हास्य व्यंग्य
   
     
     
     

क्यों करें इंडिया को भारत
मनोहर पुरी


आखिर आप लट्ठ लेकर पीछे क्यों पड़े हैं कि इंडिया को यहाँ से भगाया जाए और सिंहासन पर तुरंत भारत को बैठाया जाए। यह तो हमारे उन शासकों का सरासर अपमान है जिन्होंने वर्षों तक हम पर राज किया और इंडिया के रूप में हमें स्वतंत्र स्वराज दिया। यह हमारी संविधान निर्माताओं के प्रति भी गद्दारी होगी जिन्होंने संविधान का निर्माण करते समय लिखा था इंडिया दैट इज़ भारत, तुम मानते हो कि भाषा विज्ञान पर उन्हें पूरी तरह से थी महारत। यदि वे चाहते तो स्वयं भारत दैट इज़ इंडिया लिखवाते और भारत की चर्चा तक से साफ़ बच जाते। परंतु ऐसा नहीं हुआ क्यों कि संविधान में इंडिया को किसी ने नहीं छुआ। इंडिया हमारे लिए एक विरासत है जो अंग्रेज़ हमारे लिए छोड़ गए और भारत जैसे पिछड़े देश को समग्र विश्व के साथ जोड़ गए। अब यदि हमें भारत के युग में जाना है तो भारत को सोने की चिड़िया के रूप में आना होगा और तब इंडिया को उसकी औक़ात बताना होगा- विश्व भर के लुटेरों को फिर से ललचाना होगा। सोने की चिड़िया बनेगी तभी तो बहेलिये इधर का मुख करेंगे, दूध की नदियाँ बहेंगी तभी तो लोग डूब-डूब कर मरेंगे। फिर से राजमहल और रनिवासों को सजाना होगा, सोमनाथ को सोने चाँदी से मढ़वाना होगा। मेरा आशय बिल्कुल स्पष्ट है कि लूटेरे फिर दूर-दूर से आएँगे, और गधों घोड़ों की पीठ पर हीरे जवाहर लाद-लाद कर ले जाएँगे।

आज के युग में फिर से कैसे होगा यह सब, तुर्क, तातार, मंगोल और अंग्रेज़ कहाँ से और कैसे आएँगे अब। अपने-अपने घरों में स्वयं ही फँसे हुए हैं, इतिहास के पन्नों के भीतर कहीं धँसे हुए हैं। फ्रांस और पुर्तगाल तक ने भारत को लूटा पर हमने घृणा का बीज नहीं बोया, सोना तो हमारा था सो हमने ही खोया। अब आप फिर से समय का पहिया पीछे की ओर घुमाना चाहते हैं, इंडिया को फिर से भारत बनाना चाहते हैं। जानता हूँ कि इतिहास स्वयं को दोहराता है पर गया युग लौट के कहाँ आता है। मानता हूँ कि भारत एक साँझी संस्कृति का नाम है और इंडिया में संस्कृति का कहाँ कोई काम है। इंडिया में सभ्यता का अपने तरीके से वास है परंतु संस्कृति तो उसके लिए कोरी बकवास है। अंग्रेज़ों की सभ्यता को पूरा विश्व ही सभ्यता मानता है, भारत को पिछड़ा हुआ हर कोई जानता है। यदि भारत को इंडिया के नाम से जाना जाएगा, तभी तो उसे प्रगतिशील राष्ट्र और पाश्चात्य सभ्यता का प्रतिनिधि माना जाएगा। इसीलिए तो हमने उनकी वेशभूषा तक को है अपनाया, और उनकी भाषा को अपनी राष्ट्रभाषा तक है बनाया। उनके तकनीकी ज्ञान के हम आज भी पुजारी हैं, क्यों कि विश्व ज्ञान के चौसर पर अब हम पिटे हुए जुआरी हैं।

आज यदि इंडिया भारत की तरफ़ मुड़ जाएगा, तो निश्चित है कि पुराने रीति-रिवाज़ों और परंपराओं के साथ जुड़ जाएगा। वैलेनटाइन डे कैसे मनाएँगे, जन्म दिनों पर दीपक थूक और फूँक से कैसे बुझाएँगे। फिर से बुर्जुगों के चरण छूना ज़रूरी होगा तो वृद्ध आश्रम कैसे पनप पाएँगे। संयुक्त परिवार होगें तो क्रैच कैसे चल पाएँगे। भाई भाई से नहीं लड़ेगा तो न्यायाधीश और वकील क्या कमाएँगे। समय का पहिया उल्टा घूमा तो २१ वीं सदी में कैसे जाएँगे। वैसे भी नाम में क्या रखा है- नाम बदलने का स्वाद बहुतों ने चखा है। सीलोन श्री लंका हो गया तो जातीय संघर्ष में खो गया। बर्मा म्यांमार बन कर भले ही तन गया पर वह धान का कटोरा भीख का कटोरा बन गया। कंपूचिया ने कंबोडिया हो कर क्या पाया, नई-नई समस्याओं ने ही तो सिर उठाया। रोडेशिया ज़िंबाब्वे हो कर क्या कर रहा है, आज भी अंग्रेज़ियत का पानी भर रहा है। मलावी, ज्येरे, ज़ांबिया और न जाने कितने ही देशों ने जड़ों से जुड़ने का रास्ता चुना, पर अपना सुनहरी भविष्य कहाँ बुना। भारत को भी उन्हीं के रास्ते पर जाना चाहिए ऐसा आप का विश्वास है, पर इस रास्ते से उज्ज्वल भविष्य की मुझे कहाँ आस है। यदि ऐसा होता तो हमारे विद्वान संविधान निर्माता संविधान की पहली लाईन को ही नकार जाते, और अंग्रेज़ों के साथ-साथ इंडिया जैसे शब्द को भी मार भगाते। परंतु उन्होंने इंडिया को स्वीकारा है तो साफ़ है कि भारत और उसकी अस्मिता को दुत्कारा है। अब आप उनके किए कराये पर पानी फेर रहे हैं और अपने आप ही भारत-भारत टेर रहे हैं। इंडिया के नाम पर पब्लिक स्कूलों की शिक्षा चल जाती है, पश्चिम की उपभोक्ता क्रांति हमें छल जाती है। भारत की शिक्षा के लिए हमें फिर से गुरुकुल बनाने होंगे और मैकाले पुत्रों की जगह नंग धड़ंग ऋषि मुनि बैठाने होंगे।

मैं मानता हूँ कि ऐसे ही चलता रहा तो जन पर तंत्र भारी होगा, इंडिया हमारे मन की लाचारी होगा। आप का कहना हैं कि भारत में जन देवता बन जाएगा जो तंत्र को अपनी बुद्धि से चलाएगा। एक अरब देवता भारत में अपनी अहम भूमिका निभाएँगे और अपनी क्षमताओं सहित विश्व में फैल जाएँगे। इंडिया में पैदा होने वालों को गर्भ में आने से पहले ही रोक दिया जाता है, जो वहाँ नहीं मरता उसे पैदा होते ही अभिमन्यु की भाँति घेर कर मार दिया जाता है। इसलिए इंडिया आबादी पर नियंत्रण का हर उपाय अपनाया है, और बंध्याकरण के साथ नई सदी में आया है।

लगता है कि स्वदेशी वाले आधुनिक युग में नहीं जाना चाहते, इस लिए इंडिया को नहीं अपनाना चाहते। वे चाहते हैं कि संविधान की पहली ग़लती को पहले सुधारा जाए और भारत दैट इज़ इंडिया के नाम से इस देश को पुकारा जाए। यदि ऐसा ही है तो यह हमारी मजबूरी है स्वदेशी को स्वीकारा तो वैश्वीकरण से टूटना ज़रूरी है। आप कुएँ में मेंढक बन कर रहना चाहते हो तो रहो, इंडिया के मज़े छोड़ कर भारत के कष्ट और दुख सहो। समृद्धिशाली सौतेली माँ को छोड़ कर निर्धन माँ की जय कहनी हो तो कहो। पर जान लो आज धन धान्य सर्वत्र पर भारी है पैसे की सत्ता स्वीकारना लाचारी है। फिर भी इंडिया को भगाना हो तो भगाओ पर पहले भारत को स्वदेश में मज़बूत तो बनाओ। स्वदेशी का नाम ही न लो व्यवहार में भी अपनाओ। स्वदेशी का थोथा नारा क्या करेगा बेचारा। उसे व्यवहार में अपनाओ भारत को इंडिया के बराबर तो लाओ। तब किसे संकोच होगा भारत दैट इज इंडिया कहने में, आपत्ति क्यों कर होगी अपनी मातृभूमि पर रहने में। यह सपनों का भारत जाने कब बन कर होगा तैयार, फिर भी उस दिन का हमें है बेकरारी से इंतज़ार।

१५ अगस्त २००७

 
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