इस
सप्ताह वर्षाऋतु के अवसर
पर
समकालीन कहानियों में
भारत से मिथिलेश्वर की कहानी
बारिश की रात
आरा
शहर। भादों का महीना। कृष्ण पक्ष की अँधेरी रात। ज़ोरों की बारिश। हमेशा
की भाँति बिजली का गुल हो जाना। रात के गहराने और सूनेपन को और सघन भयावह
बनाती बारिश की तेज़ आवाज़! अंधकार में डूबा शहर तथा अपने घर में सोये-दुबके
लोग! लेकिन सचदेव बाबू की आँखों में नींद
नहीं। अपने आलीशान भवन के भीतर अपने शयन-कक्ष में बेहद आरामदायक बिस्तरे
पर अपनी पत्नी के साथ लेटे थे वे। पर लेटनेभर से ही तो नींद नहीं आती।
नींद के लिए - जैसी निश्चिंतता और बेफ़िक्री की ज़रूरत होती है, वह तो
उनसे कोसों दूर थी। हालाँकि यह स्थिति सिर्फ़
सचदेव बाबू की ही नहीं थी। पूरे शहर पर ख़ौफ़ का यह कहर था।
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घर परिवार में
पूर्णिमा वर्मन के साथ
छाता लेकर निकले हम
इतना तो तय है कि छाते का आविष्कार धूप से बचाव के लिए हुआ।
तब इसका उपयोग वर्षा से बचाव के लिए नहीं होता था। पर
जैसे-जैसे वर्षा-अवरोधक कपड़ों का निर्माण हुआ, छाता वर्षा
के विरुद्ध भी काम में आने लगा। प्राचीन काल में केवल देवी
देवता और राजा महाराजा छाता धारण करते थे। इन्हें छत्र कहा
जाता था और ये काफ़ी कीमती और कलात्मक होते थे। आधुनिक विश्व में सबसे पहले
के छाते चीन में ग्यारहवीं-बारहवीं सदी के मिलते हैं। ये
प्रतिष्ठा और उच्चाधिकार के प्रतीक माने जाते थे। जापान में
जापानी राज्य की स्थापना के समय से ही छाती का प्रयोग होता आ
रहा है।
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ललित निबंध में
डॉ महेश परिमल की
पहली बारिश
बारिश
ने इस मौसम पर धरती का आँचल भिगोने की पहली तैयारी की। प्रकृति के इस दृश्य
को देखने के लिए मैं अपने परिवार के साथ अपने परिसर की छत पर था। बारिश की
नन्हीं बूँदों ने पहले तो माटी को छुआ और पूरा वातावरण उसकी सोंधी महक से भर
उठा। ऐसा लगा मानो इस महक को हमेशा-हमेशा के लिए अपनी साँसों में बसा लूँ।
उसके बाद शुरू हुई रिमझिम-रिमझिम वर्षा। मैंने अपनी खुली छत देखी। विशाल छत
पर केवल हम चारों ही थे। पूरे पक्के मकानों का परिसर। लेकिन एक भी ऐसा नहीं,
जो प्रकृति के इस दृश्य को देखने के लिए अपने घर से बाहर निकला हो।
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साहित्यिक निबंध में निर्मला जोशी कर रही हैं
पावस-धरती
के काग़ज़ पर छंदों की रचना
ऋतुओं के इस संसार में पावस ऋतु इसलिए
सुहावनी लगती है क्योंकि वह नदी ताल सरोवर को जल से न केवल आप्लावित करती है
वरन पृथ्वी पर ग्रीष्म की तपन से खिंची रेखाएँ नन्हीं बूँदों के कारण अनायास
ही लुप्त हो जाती हैं। मिट्टी से बूँदों की संबंध स्थापित होते ही
सौंधी-सौंधी गंध मानव मन को प्रसन्नता से परिपूर्ण कर देती है। हमारे प्राचीन
कवियों ने प्रकृति को अपनी सरस पदावलियों के माध्यम से कुछ इस तरह जिया कि
कविता पावस और प्रकृति एकाकार हो गए। इन पदों को पढ़ना और सुनना जितना सरस
लगता है उतना ही पावस की रिमझिम और बौछारों को देखना।
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महानगर की कहानियों में
अर्बुदा ओहरी की लघुकथा
बरसात
पूजा सोफ़े पर
बैठी मुंबई की ऊंची ऊंची इमारतों को अपने पाँचवें माले से निहार रही थी।
आसमान में घने काले मेघ घिर आए थे इतने कि घर के भीतर भी ठंडक का अहसास
बुदबुदाने लगा था। पांच मिनट बीतते न बीतते झमाझम बरसात शुरू हो गई। पूजा
सोचने लगी बच्चे आते ही होंगे आज पकौड़ों का मज़ा लिया जाए, इस बारिश में
स्वाद ही अलग होता है। इंतज़ार में नीचे झाँका तो सड़क पर बहता पानी देख पूजा
को घबराहट शुरु होने लगी। बारिश इतनी तेज़ थी कि सामने वाली बिल्डिंग भी नज़र
नहीं आ रही थी। ऐसे में ड्राइवर बस कैसे चला रहा होगा? नीचे सड़क अब तक सूनी
हो चुकी थी।
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