पूजा सोफ़े
पर बैठी मुंबई की ऊंची ऊंची इमारतों को अपने पाँचवें माले से
निहार रही थी। आसमान में घने काले मेघ घिर आए थे इतने कि घर
के भीतर भी ठंडक का अहसास बुदबुदाने लगा था।
पांच मिनट बीतते न बीतते झमाझम बरसात शुरू हो गई। पूजा सोचने
लगी बच्चे आते ही होंगे आज पकौड़ों का मज़ा लिया जाए, इस
बारिश में स्वाद ही अलग होता है। इंतज़ार में नीचे झाँका तो
सड़क पर बहता पानी देख पूजा को घबराहट शुरु होने लगी। बारिश
इतनी तेज़ थी कि सामने वाली बिल्डिंग भी नज़र नहीं आ रही थी।
ऐसे में ड्राइवर बस कैसे चला रहा होगा? नीचे सड़क अब तक सूनी
हो चुकी थी। आधे घंटे में ही बारिश अपने पूरे ज़ोर पर थी।
उसकी चिंता बढ़ने लगी।
पूजा अपना मोबाइल हाथ में ले लिफ़्ट से नीचे उतरी, नीचे कोई
ऑटो नहीं था पैदल बसस्टॉप की ओर बढ़ते समय तेज़ हवाओं के
कारण चलना मुश्किल हो रहा था। बादल टूट के बरस रहे थे। एक
घंटे से ऊपर हो चुका था और मंजिल अभी भी दूर ही थी। पानी
सड़क ऊपर चढ़ने लगा था, ठंडी हवा शरीर में कंपन पैदा कर रही
थी, पानी के तेज़ बहाव के साथ चलते-चलते पैरों से अचानक
चप्पल भी निकल गई, मोबाइल का सिग्नल जवाब दे चुका था और बस
का कहीं पता न था।
ठाकुर विलेज से वेस्टर्न एक्सप्रेस हाईवे तक आने में ज्यादा
समय नहीं लगता पर आज पूरे दो घंटे लग गए। ढाई घंटे की बरिश
ने सब अस्त व्यस्त कर दिया था। हाईवे पर पहुँच कर पूजा बस
ढूंढने लगी। तेज़ बारिश में ऊपर मुँह कर आँखें खोलना भी
सम्भव नहीं लग रहा था। घबराहट ने पूजा के दिमाग़ को सुन्न कर
दिया था।
अचानक उसने देखा सामने की ओर से एक आदमी हाथ के इशारे से उसे
बुला रहा है। खाली सड़क पर घुटनों से ऊपर तक पानी था। वह भी
पूरी तरह से पानी में भीगी हुई थी। सुनसान सड़क, तेज़ बारिश
और अंजान व्यक्ति की ऐसी हरकत देख पूजा ने मुँह फेर लिया।
इतने में ही वह आदमी करीब आ गया, पूजा कुछ सोच पाती कि वह
बोल पड़ा "बहन जी, आप स्कूल बस देख रही हैं? एक स्कूल की बस
हमारे टॉवर के नीचे खड़ी है। आकर देख लीजिये कहीं उसमें आपके
बच्चे भी न हों।
पूजा की जान में जान आई वह उत्साहित सी अपने आपको बहाव में
सँभालती हुई चल पड़ी। टॉवर के नीचे बच्चों की बस देख उसकी
आँखों से आँसू निकल पड़े। बच्चे बिल्कुल सुरक्षित थे। टॉवर
में रहने वाले लोगों ने स्कूल की तीन बसों में बिस्कुट और
चिप्स वितरित किये थे। उसके लिए भी चाय आई और टॉवर के लोग
ऐसे मिले जैसे बरसों के परिचित।
फिर वह व्यक्ति कंधे पर बच्चों को बैठा कर घर तक छोड़ भी
गया।
पूजा सोचने लगी जहाँ बगल में रहने वाले भी रोज़ दुआ सलाम
नहीं करते उस मुंबई नगरी में इतना अपनापन अचानक कहाँ से आ
जाता है, शायद यही इस शहर का असली चेहरा है जो बिना ज़रूरत
सामने नहीं आता।
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अगस्त २०२०1
अगस्त 2007 |