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                            चादर से ढँक देती है तो 
                            कलियों को चटकना और फूलों का गदराना भी मनुष्य को सुख 
                            देता है शरद में वह अपने अनूठे रंगरूप में सजी हुई 
                            लगती है। ग्रीष्म में निश्चय ही जब सूर्य का आतप 
                            मनुष्य की देह को झुलसाने लगता है तो वह मेघों की ओर 
                            निहार कर प्रकृति के नये स्वरूप की प्रतीक्षा करता है। 
                            यह एक सनातन सत्य है कि 
                            मनुष्य ने नाना प्रकार से प्रकृति को गाया है। ऋतुओं 
                            के इस संसार में पावस ऋतु इसलिए सुहावनी लगती है 
                            क्यों कि वह नदी ताल सरोवर को जल से न केवल आप्लावित 
                            करती है वरन पृथ्वी पर ग्रीष्म की तपन से खिंची रेखाएँ 
                            नन्हीं बूँदों के कारण अनायास ही लुप्त हो जाती हैं। 
                            मिट्टी से बूँदों का संबंध स्थापित होते ही 
                            सौंधी-सौंधी गंध मानव मन को प्रसन्नता से परिपूर्ण कर 
                            देती है। हमारे प्राचीन कवियों ने प्रकृति को अपनी सरस 
                            पदावलियों के माध्यम से कुछ इस तरह जिया कि कविता पावस 
                            और प्रकृति एकाकार हो गए। इन कवियों ने विभिन्न 
                            प्रतीकों और उपमाओं में पावस को कुछ ऐसा बाँधा कि इन 
                            पदों को पढ़ना और सुनना जितना सरस लगता है उतना ही 
                            पावस की रिमझिम और बौछारों को देखना। आज की कविता में 
                            ऐसे बिंब प्रतीक और उपमाएँ कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते।
                             एक प्राचीन कवि 
                            त्रिभुवन नाथ सिंह सरोज ने मेघों की तुलना कुछ ऐसी की 
                            है कि जैसे हम पराक्रम के क्षणों को जी रहे हैं-गरजि-गरजि धाय भिरत गयंद सम,
 इंद्रजीत ज़ोर जुरयो जनु हनुमाना के।
 कौंधी जात चपला झपकि दृग मूँदि जान,
 जुगनू दमकि जात जमत निसाना के।
 झरत सरोज स्वेद बुँद सौ झिमिर झीने,
 दहली धरातल धमकि धुरवाना के।
 मेरे जान उतरि अरवारे मघवा के मल्ल,
 जोम भरे झारत अनूप हाथ बाना के।
 प्राचीन कवियों ने 
                            अपनी पद रचनाओं में प्रकृति की रंग रेखाओं को कहीं 
                            गहरा और कहीं इतना महीन कर दिया कि यह रेखाएँ अपने 
                            इंद्रधनुषी वैभव के साथ आज तक साहित्य के पन्नों पर 
                            उभरी हुई हैं। हमारे यहाँ पद्माकर, ठाकुर, देव, 
                            बिहारी, सेनापति और मतिराम जैसे प्राचीन कवियों की 
                            समृद्ध परंपरा रही है परंतु जो उपमाएँ और उपमान 
                            इन्होंने ऋतु संदर्भ में प्रयुक्त किए उन्हें पढ़कर 
                            मनुष्य सहज ही प्रकृति से जुड़ जाता है। ग्रीष्म का 
                            आतप सहन कर जो नैराश्य मानव मन में व्याप्त हो जाता है 
                            उसे देवी प्रसाद शुक्ल कवि चक्रवर्ती का यह पद अनायास 
                            ही दूर कर देता है। इस पावस छंद में प्रकृति के 
                            विभिन्न रूपों को अनूठी शैली में रूपायित किया गया है-श्याम घन मंडल की मंजुता बिलोकिबै को,
 लोगन के लोभी लोल लोचन लगै रहैं।
 कूजतें कलाप को पसारी कर नृत्य नित
 मुदित मयूरन के वृंद उमगें रहैं।
 कुसुम कदंब के खुशी में खूब ख़ासे खिले,
 दामिनी के ज्योति ज्वाल जग में जगै रहैं।
 प्यारी के प्रसंग सौं अनंग सुख लूटि-लुटि,
 पावस में प्रानी प्रेम पुँज में पगैं रहैं।
 इसमें भी दो मत नहीं 
                            है कि पावस में विरह वेदना को प्रेमी प्रेमिका सहन 
                            नहीं कर पाते। वे मिलन की प्रतीक्षा में पावस में अपना 
                            मन बहलाते हैं उन्हें यह भी विश्वास रहता है कि इसी 
                            पावस ऋतु के मध्य मिलन होगा और विरह से उपजा ताप 
                            शीतलता में परिवर्तित हो जाएगा। कवि नवनीत ने एक 
                            विरहिणी को मन किस तरह दग्ध हो रहा है इसका सरस वर्णन 
                            इस ललित पद में किया है-ऐहो मन मीत प्रीति करके विदेस जैं हों,
 देहो मोही विरह वियोग सरसाता में।
 नवनीत नीठ कै बचौंगी जेठ ज्वालन सों,
 आवत अषाढ़ के बढ़ैगी व्याधी गात में
 कौन सौं कहूँगी वह अपनी बिथा की कथा
 आस विसवास दै रखूँगी प्रान हाथ में,
 घुटि घबराय के गिरौंगी गुन गाय गाय,
 आँखें बरसात की रहैंगी बरगात में।
 कवियों का संसार अपने 
                            व्यक्तिगत जीवन और कविता के सृजन क्षणों में हमेशा 
                            व्यस्त रहता है। ग्रीष्म से मुक्ति चाहते हुए पावस के 
                            क्षणों को जीने हेतु कितने लालायित रहते हैं यह उनके 
                            पदों में ध्वनित होता है। सबसे अनूठापन तो तब लगता है 
                            जब ऋतु संदर्भ में उनकी उपमा देने की कला मन को मोह 
                            लेती है। जबसे इन पदों की रचना हुई तबसे यह अनुभूति 
                            होती है कि प्रकृति इनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करती 
                            होगी। अनेक कवियों ने शब्दों को कुछ ऐसे प्रयुक्त किया 
                            है कि जैसे कोई चमत्कार हो। दीनदयाल नामक एक कवि का यह 
                            पद लालित्य से इतना परिपूर्ण है कि इसे सुनकर मन 
                            प्रफुल्ल हो उठता है-घन की घनक घन घटा घनकत आली,
 दामिनी दमक देत दीपक प्रकाश है।
 बूँदन के फूल जाल धुन लें विसाल जाल,
 आए झुकि मेघ सो प्रमाण को हुलास है।
 मोरन के सोर चहुँआरे विनय दीन दयाल,
 पवन झकोर ज़ोर करै आस-पास है।
 पूजन करत प्रीति रीति प्रकटाय यह,
 पावस न होय परमेश्वर को दास है।
 आषाढ़ के बाद श्रावण 
                            भादों के मेघ के पाहुन-पाहुन नहीं रह कर जैसे हमारे 
                            परिवार के अभिन्न सदस्य बन गए हैं। प्रकृति अपने 
                            विभिन्न रंग और रूपों में इस तरह सज-सँवर गई है जैसे 
                            वह कोई दुलहिन हो। पावस के ये चित्र क्षण भर भी आँखों 
                            से ओझल न हो यही हम कामना करते हैं। प्रकृति के इस मन 
                            भावन प्रसंग को गाते हुए कवि जंगली लाल भट्ट का यह पद 
                            गाने गुनगुनाने का मन करता है-सौरभ सुरति स्वेद बूँदें बरसत वारि,
 बसुधा सुधान सींचि मोदत अधीर हैं
 प्रमदा परम परमा की पाय, पावस की
 कूकी उठे कोकिल कुहुकी उठे मोर हैं
 मेचक चिकुर मेघ मंडित मयंक मुख
 विलसे बलाक हार-हीर कुच कोर हैं
 झनकार नूपुर गरजि घहरत घन
 जंगली छटान छहरत छिति छोर है।
 प्रकृति के जिन 
                            विभिन्न और बहुरंगी चित्रों को हमारे कवि बसंत और पावस 
                            में उकेरते हैं ऐसे किसी अन्य ऋतु में नहीं। पावस में 
                            प्रकृति केवल मनुष्य को नहीं पशु-पक्षियों तक को इतना 
                            आल्हादमय कर देती है कि जैसे वे प्रमोद वन में
                             विहार 
                            या विचरण कर रहे हों। मयूर-मयूरी का नृत्य, कोयल का 
                            कूकना, अपने-अपने बसेरों में बैठ कर पक्षियों द्वारा 
                            पावस को निहारना, नदी और निर्झर का अपने प्रवाह के रूप 
                            में गुनगुनाना और किसी विरहिणी का विरह समापन के लिए 
                            प्रतीक्षारत रहना, यह सारे दृश्य पावस में ही भले लगते 
                            हैं। सही अर्थों में पावस अपनी बूँदों से धरती के 
                            काग़ज़ पर छंदों की रचना करती है। इन पावसी क्षणों में 
                            आइए हम भी द्वार और आँगन में खड़े होकर सुखद क्षणों का 
                            स्वागत, वंदन और अभिनंदन करें। १ 
                            अगस्त २००७ |