बाज़ार में जिस तरह ब्रांड नाम की सामग्री बेचने वाले
रिन, सुपर रिन, हाइपावर रिन, या एक्स्ट्रा, स्ट्रांग, न्यू लक्स आदि कह-कह कर अपना
सामान खपाते हैं इसी तरह पत्रिकाएँ निकालने वालों को भी करना पड़ता है। वे होली
विशेषांक, दिवाली विशेषांक, नव वर्ष विशेषांक, फागुन विशेषांक, बसंत विशेषांक, वर्षा
विशेषांक ही नहीं
निकालते अपितु अपनी वही पुराने ढर्रे की पत्रिका को कविता अंक, गीत अंक, ग़ज़ल अंक,
व्यंग्य विशेषांक, नाटक अंक, महिला विशेषांक, दलित विशेषांक, मुसलमान अंक आदि-आदि
कह कर भी बाज़ार में खपाते रहते हैं। मैंने सुना है कि विज्ञापनों में अच्छे-अच्छे स्लोगन लिखने वाले भी अच्छे पैसे पीटने लगे हैं और देश के कई कवि, लेखक, पत्रकार
उनसे ईर्ष्या करते हैं व दारू पीकर अपनी मातृ भाषा में उनको मातृ और भगिनियों से
संबंधित गालियाँ देते हैं।
पत्रिका निकालने और बेचने वालों के साथ मेरी
सहानुभूति जुड़ी है इसलिए मैं चाहता रहता हूँ कि उनके लिए कुछ करूँ। पहले मैं उनके
लिए कविता, कहानी, लेख आदि लिखता था जो उनके लिए बेकार की चीज़ों के समान होते थे।
वे कहते थे कि इनकी कोई कमी नहीं है और बिना माँग ही दिन में दस ठो रचनाएँ आ जाती
हैं। आप अगर हमारी पत्रिका के लिए कुछ कर सकते हो तो इतना करो कि दो चार विज्ञापन
दिलवा दो। साहित्य के लिए यही आपका बड़ा योगदान होगा।
विज्ञापन दिलाने वालों का नाम साहित्य के इतिहास
में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने वाला है। सन 2050 के
साहित्य में पीएच.डी करने वाले पढ़ेंगे कि श्री फलां फलां ने फलां सन में फलां
पत्रिका को इतने विज्ञापन दिलवाए थे जिससे वह पत्रिका उस समय के अफ़सरों और सेठों
का लिखा साहित्य प्रकाशित कर सकी थी। यदि श्री फलां फलां ने विज्ञापन दिला कर
सहायता ना की होती तो फलां की प्रसिद्ध कविता ''अंधेरे में'' अंधेरे में ही रह जाती
तथा ''सूरज का सातवाँ घोड़ा'' आठवें नंबर पर रहता। जैसे जीवन के लिए आत्मा और
सरकारी कर्मचारी के लिए रिश्वत ज़रूरी होती है वैसे ही पत्रिका के लिए विज्ञापन
ज़रूरी होता है। बिना विज्ञापनों वाली पत्रिकाएँ शब्दकोश जैसी मोटी होने के बावजूद
भी लघु पत्रिकाएँ ही कहलाती हैं। गोया किसी मोटे लाल का नाम छोटे लाल हो।
बहरहाल, मैं विज्ञापन दिला पाने में तो समर्थ नहीं
हूँ और अगर होता तो खुद की पत्रिका नहीं निकाल लेता। पर कुछ सुझाव दे सकता हूँ
क्यों कि इसमें किसी सामर्थ्य की ज़रूरत नहीं होती। जो भिक्षा तक नहीं दे सकते वे भी
भिखारियों को शिक्षा देने को तत्पर रहते हैं।
लघु पत्रिकाओं को निंदा अंक, झगड़ा अंक, मुकदमा
अंक, उधार अंक, नैतिक पतन अंक आदि भी निकालने चाहिए। निंदा अंक में एक लेखक द्वारा
दूसरे लेखक की तीसरे से की गई निंदा पर सामग्री दी जा सकती हैं। लेखक मित्र के पीठ
फेरते ही उसके बारे में की गई अभिव्यक्त साहित्य की आलोचना इस विधा का लोक पक्ष
होता है। जब लोक कथा, लोकगीत, आदि हो सकता है तो लोक आलोचना क्यों नहीं हो सकती।
सेमिनारों में मंच पर बोलने वाले के बारे में, सुनने वालों की बातचीत को उसी तरह
रिकार्ड किया जाना चाहिए जैसा कि बोलने वालों की की जाती है तथा उसे पत्रिकाओं में
उसी ढंग से प्रकाशित भी होना चाहिए। लेखकों का आपस में झगड़ा होना स्वाभाविक है कुछ
तो हाथ पाँवों से लड़ते हैं पर बाकी वाणी के गुणों को सामने लाते हैं। भाषा का एक
उपयोग गाली देना भी होता है तथा यह विशेषता भी मनुष्य को पशु से अलग करती है।
मुर्ग़े, बकरे, और सांड आपस में लड़ तो सकते हैं पर एक दूसरे को गाली नहीं दे सकते।
यह गुण मनुष्यों और उनमें पाई जाने वाली लेखक जाति में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाया
जाता है। लेखकों, प्रकाशकों के बीच भी झगड़ा होता है जो अदालत तक पहुँचता है तथा
उनके लिए उनके वकील लड़ते हैं। मुकदमा जितना लंबा खिंचता है प्रकाशक उतना लाभ में
रहता है। किस लेखक का किससे झगड़ा चल रहा है इस पर विशेष अंक प्रकाशित किए जाना
चाहिए।
''लीक छोड़ तीनों चलें, शायर, सिंह, सपूत'' के
अनुसार शायर अर्थात साहित्यकार लीक पर नहीं चलता इसलिए हर तरह की महिला
साहित्यकारों पर लार टपकती रहती है। लेखकों द्वारा इस लीक से हट जाने को ही नैतिक
पतन माना जाता है तथा इस पर प्रतिवर्ष एक से अधिक अंक प्रकाशित हो सकते हैं। उधार
लेकर न चुकाना भी लेखकों की विशेषता होती है तथा कौन किसका आजीवन ऋणी बना रहना
चाहता है यह विशेषांक का विषय हो सकता है।
संपादकों को पक्ष निर्धारित करना चाहिए इससे उसे विज्ञापन प्राप्त करने में बहुत
सुविधा होगी। बिल्लियों को लड़वा कर ही बंदर पूरी रोटी खा सकता है। मेरी
शुभकामनाएँ।
२४ जुलाई २००७ |