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कहानियां
। कविताएं । साहित्य
संगम ।
दो पल ।
कला दीर्घा
। साहित्यिक निबंध
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उपहार
। परिक्रमा |
इस सप्ताह नये युग की कहानियों के
क्रम में दूसरी कहानी भारत से राजेश जैन की यह इक्कीसवीं सदी के संध्याकाल का एक भारतीय महानगर हैं सम्पूर्ण परिवेश 'इंटरनेट' की न दिखने वाली सूक्ष्म इलेक्ट्रॉनिक तरंगों के गसे हुए जाल में बंधा पड़ा है। 'हार्ड प्लास्टिक' की दीवारों से बने हुए अपार्टमेंट्स में लोग बैठेबैठे पूरा कारोबार कर रहे हैं। सड़कों पर बाहर तभीं निकलते हैं जब पर्यटन की इच्छा हो या बदलाव के लिए वाकई किसीसे रूबरू मिलना हो, अन्यथा टीवी साइज के 'पावडा' (पर्सनल आडिओ विजुअल डिवाइस एपरेटस) घरघर में कल्पवृक्ष की भांति लगे हैं और अपने कमाए हुए 'मेन मिनट्स' खर्च करके लोग अपनेअपने 'पावडा' से अपना अपना काम कर रहे हैं ° परिक्रमा
में
प्रेरक
प्रसंग में °
महानगर की कहानियां ° रसोईघर में 1°1
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पिछले सप्ताह
धारावाहिक में हास्य
व्यंग्य में पर्व
परिचय में फुलवारी
में
दो
दिन बाद खुद ही पलाश ने अचानक निमंत्रण |
° पिछले अंकों से °
कला
दीर्घा में
कला और कलाकार
°
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° कहानियों
में
अन्विता अब्बी की ° सहित्य
संगम में
लक्ष्मी रमणन
की
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कनाडा कमान के अंतर्गत
कैनेडा के |
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प्रकाशन : प्रवीन सक्सेन परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन सहयोग : दीपिका जोशी
तकनीकी
सहयोग :प्रबुद्ध कालिया
साहित्य संयोजन :बृजेश कुमार
शुक्ला