अलविदा दो हजार दो
—शैल
अग्रवाल
सन २००२ इतिहास बनने को आतुर खड़ा है। वक्त की शाख
से टूटे पल, पहले दिन और फिर महीने बन वर्ष की
शृंखला में गुंथ गए हैं। एक बार फिर से अतीत में
खो जाने को तैयार हैं। यादों की तारीखों ने मन की
डायरी का एक और पन्ना रंग डाला है। जाने कबसे यही
क्रम चल रहा है और एक बार फिर वही समय आ गया है जब
लेखा–जोखा लिया जाए। पुराने को विदा किया जाए और
नए का स्वागत किया जाए। अँजुरियों में उकेरकर देखा
जाए कि इस निरंतर के बहाव में क्या खोया और क्या
कुछ पाया हमने? झिलमिलाते कुछ रतन जो वक्त की
मुठ्ठी से फिसले और डूब गए। चन्द मोती जो
उपलब्धियों के रूप में समय की लहरें हमारी झोली
में छोड़ गयीं।
'तूफानों की ओर
घुमा दो
नाविक
निज पतवार
आज सिंधु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज हृदय में और सिंधु में
साथ उठा है ज्वार
तूफानों की ओर ––
(एक कविता जो आज भी मन में उमंग भरती है)
लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड़ में साहस तोलो
कभी–कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार
तूफानों की ओर घुमा दो ––
(वह जोशीली आवाज अब कभी सुनाई नहीं देगी ––)
यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहिचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी न मानी हार
तूफानों की ओर घुमा दो ––
सागर की अपनी क्षमता है
पर माझी भी कब थकता है
जब तक सांसों में स्पंदन है
उसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार
तूफानों की ओर घुमा दो निज पतवार'
काल–जयी वह शख्सियत
२७ नवम्बर को हमें छोड़ गयी।
मेरी हार्दिक श्रद्धांजली व शत–शत प्रणाम। सिर्फ
सुमन जी ही नहीं, हमने कई और अनमोल रतन खोए इस
वर्ष। रमानाथ अवस्थी, लक्ष्मीकांत वर्मा, कैफी
आजमी — अनुभूति के अपने लाडले राज जैन और बिटेन से
पूरे विश्व में प्रसारित भारत की अपनी एक सशक्त
आवाज — हमारे अपने ओंकार नाथ श्रीवास्तव जी –
क्षतियाँ जो शायद कभी पूरी न हो पाएँ पर संतोष तो
करना ही पड़ेगा क्योंकि न तो जाने वाले को रोक सकते
हैं और नाही समय से लड़ सकते हैं। जैसे रोकने वाले
असमर्थ होते हैं वैसे ही जानेवाले भी तो मजबूर। अब
तो बस अग्रजों की वाणी से ही बल और धीरज लेना
पड़ेगा—
'मुझसे मत पूछो मैं कितना मजबूर
रोको मत जाने दो जाना है दूर'
या फिर ––
'सोच मत बीते को
हार मत जीते को
गगन कब झुकता है
समय कब रूकता है
समय से मत लड़ो।
फिर चाहे जो करो।'
रमानाथ अवस्थी
इसी महीने ब्रिटेन में आयोजित हिन्दी ज्ञान
प्रतियोगिता के माध्यम से अपने भारत को बच्चों की
नज़र से जानने का मौका मिला। फूलों की मुस्कान, ओस
का कंपन और जुगनुओं की चमक लिए जब बच्चे बोले कि –
'मुझे भारत पसंद है क्योंकि' –– तो पूरा वातावरण
रसमय हो गया। यादों में डूब गया। भारत की कला,
संस्कृति–सभ्यता और दर्शनीय जगहों के बारे में तो
हम सभी जानते हैं पर क्या आप भी सहमत नहीं होंगे
कि भारत इसलिए अच्छा है—
१- क्योंकि वहाँ पर दादा–दादी और नाना–नानी रहते
हैं जो हमसे बहुत प्यार करते हैं।
२- क्योंकि वहाँ पर खूब आम खाने को मिलते हैं।
३- क्योंकि वहाँ पर हम पानी के गोलगप्पे और चाट खा
सकते हैं।
४- क्योंकि वहाँ जाकर हम नए फैशन के कपड़े, गहने,
चूड़ी और बिन्दी वगैरह खरीद सकते हैं।
५- क्योंकि वहाँ पर खूब सारी धूप निकलती है और खूब
गरमी होती है।
६- क्येंकि वहाँ की फिल्में देखकर मन में कुछ कुछ
होता है और दिल कहता है कि हम दिल दे चुके सनम।
७- क्योंकि वहाँ की फिल्मों से अपने देश के फैशन
और रीत रिवाज जाने जा सकते हैं।
८- क्योंकि वहाँ के फिल्मी गीतों से हिन्दी बोलना
ही नहीं, शब्दों का सही उच्चारण भी आ जाता है।
९- क्योंकि वहाँ पर कोई स्कूल नहीं जाने को कहता
है।
और अंत में मन बीस पच्चीस साल पहले दौड़कर एक और
वजह ढूँढ़ लाया है मेरी चार साल की बेटी के मुँह से
–
१०- क्योंकि गाय–भैंस, कुत्ता–बिल्ली वगैरह सभी
जानवर हमारे साथ ही वहाँ सड़कों पर घूमते हैं।
उपलब्धियों में एक बार फिर शायद चिकित्सा विज्ञान
में ही सबसे ज्यादा और अभूतपूर्व उपलब्धियाँ हुई
हैं। इस वर्ष की सबसे बड़ी उपलब्धि मेरे ख्याल से
पहले क्लोन मानव की सफल संरचना – यानी कि नश्वर
मानव अमरत्व के कुछ और करीब। अब आगे यदि आप चाहें
तो, मनचाहे जितने अपने और अपने प्रियजनों के
प्रतिरूप बनवा सकते हैं –
हाँ इससे पैदा हुई गड़बड़
आपको ही भुगतनी पड़ेगी।
आंतरिक हिस्से जैसे दिल, गुर्दा, आंखें, चमड़ी
वगैरह तो काफी समय से दी और ली जा सकती थीं पर अब
चेहरा भी दान दिया जा सकता है। जी
हाँ घायल और जले
चेहरों पर पूरा–का पूरा नया चेहरा ज्यों का त्यों
प्रस्थापित किया जा सकता है –– चौंकिए मत, सोचिए
शायद कभी भविष्य में ऐसा भी हो कि आपको भीड़ में
अपने किसी परिचित का चेहरा दिखाई दे और वह आपको
पहचाने भी नहीं, आपकी तरफ देखकर मुस्कुराए भी नहीं
– क्या हम उस स्थिति को सह पाएँगे। बस यही नहीं अब
अपने दिवंगत प्रियों को एक नायाब नीले रंग के हीरे
के रूप में भी परिवर्तित कराया जा सकता है।
अमेरिका ने एक तरकीब निकाली हैं जिसके तहत मानव
अवशेषों से एक चमकदार हीरा गढ़ा जा सकता है और
प्रियजन फिर पूरे समय उन्हें अपने गले या उंगली
में पहनकर घूम सकते हैं। सोच है कि जापान या फार
ईस्ट में इसके प्रचिलित होने की अधिक संभावना हैं।
चलिए इन प्रयोगशाला में उपजे फ्रेंकेस्टाइनों के
बारे में वक्त आने पर सोचेंगे अभी तो उलटा करो या
सीधा बस एक सा ही – ऐसे इस दो हजार दो को पूरे
जोर–शोर से विदा करें क्योंकि यह मौका हमें फिर
अगले एक हजार एक साल तक नहीं मिलेगा और तब तक हम न
जाने कहाँ और किस जन्म में हों – ? आइए अभी तो आने
वाले इस वर्ष के स्वागत में दिवंगत कवि राज जैन के
शब्दों में कुछ जगमग दिए जलाएँ ––
' दिए जला देना मेरे मन
एक तमन्ना की तुलसी पर
एक रस्मों की रंगोली पर
इक अपनेपन के आंगन में
हर कोना हो जाए रोशन
दिए जला देना मेरे मन
ख्वाब देखती खिड़की पर इक
खुले खयालों की छत पर भी
एक सब्र की सीढ़ी ऊपर
इक चाहत की चौखट पर भी
एक लाज की बारी में भी
एक दोस्ती की डयोढ़ी पर
इक किस्मत की क्यारी में भी
एक मुहब्बत के कुंए पर
नोंक–झोंक के नुक्कड़ पर भी
एक भरोसे के दरख्त पर
चतुराई के चौपड़ पर भी'
लिफाफों में सिमटकर आया अपनों का सद्भाव और प्यार
कमरे–कमरे, कोने–कोने में सज चुका है और घरों के
भीतर ही नहीं अब तो पूरा देश, इसकी दुकानें,
सड़कें, बज़ार सभी सितारों से सजे आकाश से भी ज्यादा
झिलमिल कर रहे हैं। तो फिर ऐसे में अपनों का ध्यान
आना – मन में हर्ष, उल्लास और प्यार की हिलोरें
उठना क्या स्वाभाविक नहीं? शायद यही वजह है कि
चारो तरफ हर दुकान, हर बाजार में सभी अपनों के लिए
उपहार खरीदते ही दिख रहे हैं। खिलखिलाते चेहरे और
हाथों में हाथ डाले संग–संग खरीददारी करते ये
युगल–अपनी क्षीणकाय काया से भी तिगने वजन की
ट्रॉली घसीटते ये वृद्ध याद दिला रहे हैं कि एकबार
फिर से उपहारों का मौसम आ गया है। बहती शराब और
मस्ती ने बर्फ से जमे ठंडे मौसम में भी एक उन्माद
भर दिया है। पूरे देश में ही शादियों की सी तैयारी
और सजावट है आजकल। जगह–जगह सड़कों पर, स्टोर्स में
कैरल गाते, आर्केस्ट्रा बजाते झुंड, सान्टा क्लौज
का लाल क्लोक पहने बच्चों को मिठाई और खिलौनों का
उपहार बांटते लोग — सबकुछ आंखों से मन में उतर आता
है। बच्चों की आंखों में खुशी की चमक ज्यादा है या
दुकानों में खिलौने और चौकलेट्स की वैराइटी –
निश्चय ही कहना मुश्किल है क्योंकि पुराने की
विदाई और नए का स्वागत, दोनों का ही तो उल्लास
लेकर आता है वर्ष का यह आखिरी महीना। दावतों और
पैनटोमाइम्स का मौसम फिर अपने पूरे जोश और जोर पर
है।
अभी इसी महीने भारत से पधारे कवि मौर्या जी को
सुनने का मिला, जिनकी एक पंक्ति थी अगर वह हम सबका
पिता हैं तो क्या हमारा आपस में कोई रिश्ता नहीं
–– बात सोचने और समझने लायक हैं। नए वर्ष में एक
नया संकल्प लेने की प्रथा है और मेरे ख्याल से आज
के इस नफरत और हिंसा के माहौल में इससे अच्छा और
कोई संकल्प हो ही नहीं सकता। मदर टेरेसा ने कहा था
कि बीसवीं सदी की सबसे बड़ी बीमारी अकेलेपन की है।
जब हम एड्स और कैंसर जैसी बीमारी को दूर करने के
प्रयास में हैं तो क्या इस अकेलेपन को मिलकर दूर
नहीं कर सकते फिर इसके लिए तो बस कुछ मुस्कान और
कुछ मीठे बोलों की ही जरूरत है। क्या ऐसा नहीं हो
सकता कि २००३ विश्व में शान्ति और सौहाद्र लेकर आए
– सुख और समृद्धि हर मानव हर घर के लिए लेकर आए
चाहें वे अमेरिकन हो या ईराकी। क्या यही मुस्कराहट
और मेल–मिलाप का मौसम पूरे वर्ष, हर दिन, हर पल
नहीं रह सकता – कम से कम हम भगवान से प्रार्थना तो
कर ही सकते हैं। अपनी तरफ से एक प्रयास तो कर ही
सकते हैं – नव वर्ष की इन्हीं शुभ कामनाओं के साथ
– आपकी अपनी अनुभूति और अभिव्यक्ति
दिसम्बर
२००२
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