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					आज फिर वह यादों की कटोरी लिए 
					सुनयना के आगे खड़ा था। झोली फैलाकर भीख माँग रहा था, वह 
					सब–कुछ, जो उसके और आलोक के लिए असंभव ही नहीं असहनीय भी था। 
					विचलित सुनयना ने हारकर अपना पूरा सुख–चैन, यहाँ तक कि, खुदको 
					भी उसकी झोली में डाल दिया – बहते आँसुओं से लड़े बगैर ही। फिर 
					तो यादें एक बरसाती नदी–सी, अच्छा–बुरा सबकुछ अपने में समेटे, 
					न सिर्फ उसके चारो तरफ बह निकली बल्कि उसे भी अपने साथ बहा ले 
					चलीं। अब आँसुओं और यादों में होड़ थी – देखें कौन जीतता है?
					
 पर यों टूटकर बिखरने का तो सुनयना का कोई भी इरादा न था, न 
					जाने कैसे वह तो रास्ते में खड़े पेड़ सी योंही इस चपेट में आ गई 
					थी। सुनयना बही जा रही थी और सामने खड़ा पलाश का पेड़, अपने लाल 
					फूलों से लदा–फंदा, धीमे–धीमे मस्त हवा में झूम रहा था। 
					चुप–चुप –– कुछ गुनगुनाता और गाता सा। हवा उसकी हर पत्ती को 
					छू–छूकर सरसर दौड़ रही थी, बिल्कुल उसके अपने पलाश की तरह – 
					बिल्कुल वैसे ही हाथ ऊपर उठाए, मुँह से सीटी बजाती –– 'देखो 
					माँ चिड़िया ऐसे ही उड़ती है न' – आड़ी–तिरछी हो, होकर, 
					मुड–मुड़कर, बार बार उससे पूछती हुई।
 
 धुँधला आए शीशे से ठीक–ठीक, साफ–साफ देखने के लिए सुनयना ने 
					बीस साल पुराने चश्मे को फिर से कसकर पल्लू से रगड़ डाला। सामने 
					खड़ा माली कबसे पूछे जा रहा था – बीबीजी इन सूखे पत्तों को हटा 
					दूँ – कहो तो थोड़ी छटनी भी कर दूँ – अगली साल और अच्छा खिलेगा 
					–? सुनयना कब कुछ सुन पा रही थी? भारी मन से स्वीकृति दे दी थी 
					उसने। खुद में डूबी वह तो बस यही जानती थी कि उसे तो बस इंतजार 
					ही करना है – एक–एक पल का – हर उस अगले मौसम का – जब यह फिरसे 
					नये पत्तों में खिलेगा।
 
 नहीं, इससे दूर नहीं हो पाएगी वह। इसकी तो एक–एक पत्ती को उसके 
					पलाश ने बहुत प्यार से सींचा हैं। अपने नन्हें हाथों से ही तो 
					रोपा था इसे। आए दिन पूछता था – क्या यह आपका सबसे प्रिय और 
					खास पेड़ हैं, जो आपने इसे मेरा ही नाम दे दिया? और तब वह उसे 
					प्यार से, गोदी में बिठाकर समझाती थी –– प्रिय और खास तो है पर 
					तुझ से कम। और वह तुरंत ही समझ भी जाता था। माँ की हर बात 
					जल्दी ही समझता था वह। 'अच्छा माँ, अगली बार जब मैं मसूरी 
					हॉस्टेल में रहने जाऊँगा न, तो आप इसे ही पलाश कहकर बुला लिया 
					करना,' माँ को तसल्ली देते हुए, उसके आँचल से खेलते हुए, उसने 
					कहा था।
 
 सुनयना की सूनी आँखों ने आवाज दी '–पलाश–' पर पेड़ से कोई जवाब 
					नहीं आया। हाँ, तपते रेगिस्तान में पड़ी बूँद सा, एक सूखा–पत्ता 
					उड़कर जरूर उसके आँचल में आ गिरा।
 
 आज उसके पलाश का जन्मदिन है। आठवाँ नहीं अठ्ठाइसवाँ। सुनयना तो 
					अब भी अनाथालय में जाकर बच्चों को खाना खिलाती है, मिठाईयाँ 
					बाँटती हैं। ठीक वैसे ही जैसे बीस साल पहले करती थी। आजतक बस 
					यही सिलसिला चल रहा है। यही करती रही है वह हर छब्बीस अक्तूबर 
					को। वह तो उस दिन भी गई थी जब ठीक अपनी सत्ताइसवीं साल गिरह पर 
					पलाश ने रोते हुए पहली बार माँ से जिद की थी – 'माँ, मुझे अब 
					जाने दो, मुक्त करो इस कैद से। अब और नहीं सहा जाता।'
 
 कई दिन लग गए थे उसे, पर अन्त में दे ही दी थी उसने स्वीकृति। 
					मुक्त कर दिया था अपने पलाश को इस यातना से। चले जाने दिया था 
					चुपचाप उस परछाई को भी, जिसके सहारे वह पिछले बीस इक्कीस साल 
					से जी रही थी –– यह जानते हुए भी कि वह और आलोक एक पल भी नहीं 
					रह पाएँगे उसके बिना। पर बर्दाश्त कर लेगी वह। सह लेगी सबकुछ – 
					अपना दुख, आलोक की उदासी, सभी कुछ। पलाश की घुटन और उदासी कैसे 
					सहती – माँ है आखिर ––?
 
 सुनयना ने आँखें पोंछी और कम्प्यूटर बन्द कर दिया। सबकुछ एक 
					गहरे काले अँधेरे में खो गया। एक–एक मन के पैर को बारबार 
					घसीटती, चुपचाप वह बगीचे में आकर गन्दी ही सीढ़ियों पर धम से 
					बैठ गई – बिना धूल झाड़े, बिना कुछ सोचे समझे और बगल में रखी 
					कुरसी खाली मुँह बिसूरती रह गई।
 
 आज सुनयना का मन तो एक टूटी पत्ती–सा था –– अपने ही भँवर में 
					भटका गोल–गोल घूमता हुआ। शायद अब बचने का कोई रास्ता नहीं। यों 
					और न टूटने देगी वह खुदको। वह टूट गई तो आलोक का क्या होगा? 
					याद नहीं कबसे, बस एक वही तो है जो सँभाले हुए है इस सूने घर 
					को, खुदको और अपने आलोक को। पर कैसे बता पाएगी कि अब वाकई में 
					सबकुछ खतम हो गया – आजाद कर दिया है उसने पलाश को, तोड़ डाली 
					हैं रिश्तों और मोह की वे सारी जंजीरें – क्योंकि उसे पलाश के 
					रिसते फफोले और घाव देख लिए हैं। नहीं, और नहीं चल सकता था यह 
					खेल। वाकई में बस एक खेल ही तो था वह। पिछले बीस साल से चल रहा 
					खेल –– जिन्दगी के कम्प्यूटर में बन्द खेल – माना कि उसने मान 
					लिया था, खुदको समझा लिया था, पर आलोक कब माना था कि उनका पलाश 
					नहीं रहा। रह गई थी तो बस चौबीस घंटों की भटकन, साधु–सन्यासिओं 
					तक की भागदौड़। इसी सबसे घबराकर तो उसने खुद को कमरे में बन्द 
					किया था। और एक बार फिर से जना था अपने पलाश को – आठ साल के 
					पलाश को। ज्यों का त्यों –– उसकी सभी आदतें और पसंद और नापसंद 
					के साथ। प्यार और नफरत के साथ। और फिर उदास आलोक को आकर चुपचाप 
					बेटा सौंप दिया था। स्क्रीन पर 'पापा आज आप मुझे जगाने क्यों 
					नहीं आए' लिखा देखकर पहले तो वह बहुत चौंका फिर आहत होकर पीछे 
					हट गया था – 'यह कैसा मज़ाक है सुनयना?' आँसू भरी आँखों से उसने 
					पूछा था और तब सुनयना की सूजी आँखें, दृढ़ चेहरा देखते ही तुरंत 
					जान भी गया था कि आज यह कोई मजाक नहीं –– बात सच से भी ज्यादा 
					सच है। पल्लु से आँखें पोंछती सुनयना बस इतना ही कह पाई थी ––
 'जवाब दो आलोक, पलाश तुमसे कुछ पूछ रहा है?'
 
 और तब कांपते हाथों से आलोक ने लिखा था, –– 'सॉरी बेटा, अगली 
					बार ऐसी भूल नहीं होगी' – और उसके बाद तो आलोक और सुनयना 
					मुश्किल से ही कुछ और कह या कर पाते थे। दोनों का पूरा वक्त बस 
					पलाश के साथ ही निकल जाता था। पलाश बड़ा हो रहा था। हर दिन नयी 
					खबरें और नई–नई बातें होती थीं। सब कुछ सुनने और जानने को 
					उत्सुक था वह। अपना मनचाहा संगीत सुनते–सुनते अब तो उसे कई 
					गाने तक याद हो गए थे। होमवर्क करते हुए अक्सर सुनयना और आलोक 
					ने उसे नयी धुनें गुनगुनाते हुए भी सुना था। सीटी बजाते सुना 
					था। पुराने घाव भर रहे थे। सुनयना और आलोक को लगने लगा था कि 
					उनका पलाश कहीं नहीं गया, यहीं उनके पास हैं। उनके साथ रहता 
					है। क्या हुआ जो बस कम्प्यूटर की दुनिया में सीमित हो गया है, 
					पर है तो यहीं। रोज ही तो उनसे बातें करता है – हँसता खेलता है 
					–– रूठता और मनाता तक है वह तो। क्या यह सब कुछ कम था उनके 
					सूनेपन के लिए? फिर कैसे इतनी आसानी से सबकुछ मिटा आई वह? कोई 
					आसान तो नहीं था उसके लिए –– वही दुबारा सीने पर पत्थर रखकर 
					फिरसे सब कुछ दफन कर देना?
 
 पर बात ही कुछ ऐसी थी – बीस साल की नई पुरानी यादों का 
					जीता–जागता वह नन्हा पुतला, उससे पूछे जा रहा था – 'बताओ माँ, 
					आखिर मेरे भविष्य के बारे में क्या सोचा है आप लोगों ने –– 
					क्या मैं ऐसे ही, इस दुनिया में बस योंही अकेला ही घूमता 
					रहूँगा? क्या मेरे कोई भी संगी–साथी नहीं होंगे?' और तब आँसू 
					पोंछते हुए आलोक ने भरे गले से तुरंत जवाब दिया था 'हम हैं ना 
					बेटा तुम्हारे पास। हम है ना।'
 
 और तब उसने वह असंभव बात भी पूछ ही डाली थी जिसे सोचने तक से 
					सुनयना डरती थी, – 'क्या तुम्हारी इच्छा नहीं होती माँ, कि तुम 
					दादी बनो, पापा दादा बनें, हम हँसी–खुशी से जिएँ। और फिर कल जब 
					तुम नहीं होगी तब – तब क्या होगा? बोलो माँ, कौन फिर मुझसे 
					बातें करेगा? मेरी देखभाल करेगा? मेरे पास बैठकर मेरे दुख–दर्द 
					सुने और समझेगा?'
 
 सुनयना कुछ भी तो और आगे न सुन पाई थी? एक कमजोर टूटी हुई माँ 
					थी वह, भाग्य–विधाता नहीं। सवालों से जकड़ा एक असहाय भविष्य 
					उसके सामने कराह रहा था। क्या बस उनकी खुशी ही पलाश के 
					अस्तित्व की एकमात्र शर्त है। क्या उसका जन्म बस उनके मन 
					बहलाने के लिए ही हुआ था? यदि नहीं तो आज जब उसने अपने अँदर 
					उठती हुई भावनाओं को व्यक्त किया है – एक स्वाभाविक–सा सवाल 
					पूछा है तो वह सह क्यों नहीं पा रही। जो चाहता है – दे क्यों 
					नहीं पा रही?
 
 जब बीस साल पहले उसने इस नए पलाश को जन्म दिया था, तब उसने यह 
					सब कुछ नहीं सोचा था – ना ही किसी भविष्य के बारे में – ना ही 
					अपने और आलोक के बारे में – और ना ही इस डबलू डबलू डबलू पलाश 
					डॉट कॉम के बारे में। उसने तो बस अपने पति का दुख बाँटना चाहा 
					था। थोड़ी सी राहत और तसल्ली ढूंढ़ी थी। आलोक जो किसी भी हालत 
					में मानने को तैयार नहीं था कि उनका पलाश उनसे बहुत दूर जा 
					चुका है, उसे बहलाने की बस एक ईमानदार कोशिश की थी। वह तो तब 
					भी खूब अच्छी तरह से जानती थी कि अब कोई वापिस नहीं ला सकता 
					उनके पलाश को। उसकी खोज–खबर तक नहीं दे सकता। उससे बातें या 
					संपर्क नहीं करवा सकता। ये तरह–तरह के वादे और दावे करने वाले 
					पंडित और साधु भी नहीं। भूत–प्रेतों की गोष्ठियों में लगातार 
					बैठे रहने का दावा करने वाले वो कर्ण–सिद्धी भी नहीं।
 
					पति की भटकन और तड़प से छटपटाती 
					सुनयना उस दिन बस अपना दर्द सहने के लिए कमरा बन्द करके जा 
					बैठी थी। याद नहीं कब और कैसे, किस सोच की उँगली पकड़े, आँसुओं 
					में लिपटा पलाश खुद–बखुद उसकी गोदी में आ बैठा था। स्क्रीन पर 
					बैठा उसकी उँगलियों से खेलने लग गया था। और तब रोशनी की उस 
					किरण को पकड़े–पकड़े, बहुत सोच–विचारकर – यादों के गर्भ से, बस 
					सिर्फ अपने आलोक के लिए एकबार फिरसे सुनयना ने बेटे को 
					पुनर्जन्म दे दिया था। कोखसे नहीं, हृदय को चीरकर। धैर्य से 
					बार बार याद करके उसकी छोटी बड़ी सब आदतें, पसंद–नापसंद, 
					चलने–फिरने, उठने–बैठने का तरीका, सभी कुछ हूबहू उस प्रोग्राम 
					में उतारा था। और फिर जब हफ्ते भर के काम के बाद कम्प्यूटर की 
					स्क्रीन पर घूमते उस बालक ने कहा था कि, 'माँ बहुत कसकर भूख 
					लगी है आज क्या खिलाओगी?' तो सुनयना ने मारे खुशी के आदतन 
					अविश्वास में चश्मे को ठीकसे बार बार साफ करके देखा था। हाँ 
					सामने स्क्रीन से घूरता वह चेहरा पलाश का ही था। कम्प्यूटर में 
					से आती आवाज भी उसके अपने पलाश की ही थी। यह बस फोटो या विडियो 
					की रील नहीं थी जो सिर्फ बोलती ही जाए। यह तो सुनता–समझता और 
					जवाब तक देता था। और फिर शुरू हो गया था उस दिन से वह खुद को 
					बहलाने और भूल जाने का एक नया सिलसिला। 
 भूल चुके थे सुनयना और आलोक कि यह पलाश नहीं बल्कि उसकी खुद की 
					बनाई हुई पलाश की परछाई मात्र है। पर – परछाइयों के बस में तो 
					हँसना और बोलना नहीं होता? वे तो बस पीछा करना जानती है। यह 
					जरूर उनका अपना पलाश ही है – क्या पता उन पर दया कर के भगवान 
					ने पलाश की आत्मा को ही इस कम्प्यूटर मे भेज दिया हो? सुनयना 
					ने खुदको भी समझा लिया। दोनों ने पूरी तरह से भरमा लिया अपने 
					आपको।
 
 उस कम्प्यूटर के साथ – नहीं, अपने बेटे पलाश के संग वे चौबीसों 
					घंटे बैठे रहते। अक्सर वह थककर सो जाता, उबासियाँ लेने लगता, 
					पर ये दोनों न थकते। दीन–दुनिया से दूर, खो गए थे दोनों अपनी 
					इस छोटीसी काल्पनिक दुनिया में। भूल गए थे कि अभी तीन महीने 
					पहले ही उन्होंने अपने पलाश को धरती की गोद में सुलाया है। 
					उन्हें तो बस इतना याद रह गया था कि ऋषिकेश में एक पहुँचे हुए 
					साधु ने बतलाया था कि पलाश की आत्मा आज भी उनके चारो तरफ ही 
					घूम रही है और दोनों के चालीस के पेठे में होने के बावजूद भी 
					वह उन्हींके यहाँ फिरसे वापस आएगा। सो आ तो गया पलाश उनके पास। 
					वह उनके साथ रोज की खबरें सुनता। दुनियाभर के विषयों पर बहस 
					करता, फुटबॉल और ताश तक खेलता था वह तो।
 
 दिन सालों में बदलने लगे। बात अब चन्द उल्टी–सीधी तस्वीरों तक 
					ही नहीं रह गई थी। धीरे–धीरे पलाश उन्हें स्क्रैंबल और चेस 
					जैसे दिमागी खेलों में भी हराने लगा। शेयर बजार के उठते–गिरते 
					भावों की खबर रखने लगा। यही नहीं उनके कम्प्यूटर के 
					हिसाब–किताब तक रखने शुरू कर दिए थे उसने। सब कुछ कितना सुचारू 
					और ठीक–ठीक चल रहा था उस मनहूस दिन तक, उस विनाशकारी पल तक – 
					जब आलोक ने बातों–बातों में पलाश को पड़ौस के विवेक की शादी की 
					खबर दी थी।
 
 कभी बचपन में उसके साथ ही खेला–बड़ा था वह भी। सुनयना को अच्छी 
					तरह से याद है पहले दिन वही दोनों को नर्सरी से अपने साथ घर 
					लाई थी। उसकी पड़ोसन कीर्ति, विवेक की माँ को कहीं जाना पड़ गया 
					था और उसने सुनयना से आग्रह किया था कि वह विवेक को भी अपने 
					साथ घर ले आए। दोनों बच्चे कितने खुश थे उस दिन। बार बार 
					गा–गाकर नई–नई सीखी कविता –– ' जिद कर बैठा चांद एक दिन माता 
					से यों बोला' सुनाए जा रहे थे। आलोक ने मजाक भी किया था अगर 
					चांद जिद कर सकता है तो हमारे पलाश और विवेक क्यों नहीं?
 
 उस दिन तो नहीं, पर हाँ आज पलाश जिद पे जिद ही किए जा रहा था। 
					बात समझने की कोशिश ही नहीं कर रहा था। सुनयना ने अपनी आँसुओं 
					से गीली आँखें पोंछ डालीं। यह विषय अन्य विषयों की तरह नहीं, 
					बहुत ही भिन्न और खास था। तुरंत निर्णय चाहता था। उस तूफान–सा 
					था जो शुरू तो एक छोटे–से पत्ते के हिलने से होता है फिर 
					पूरा–का पूरा जंगल ही हिलाकर रख देता है।
 
 उसका वह रोज–रोज शादी के ऊपर नित नये सवाल करना। बातों को 
					समझना और फिर समझकर खुदही अपनी असमर्थता पर क्षुब्ध हो जाना। 
					यह एक नया और बेचैन करने वाला सिलसिला था। जवाबों के साथ उसकी 
					जिज्ञासा भी बढ़ती जा रही थी और फिर उसके अप्रत्याशित–विचलित 
					प्रश्नों के साथ, पलाश की कौन कहे, अब तो खुद आलोक को भी 
					सँभालना मुश्किल हो चला था –– पलाश बार–बार पूछ रहा था – हठ कर 
					रहा था –– 'अब मेरी शादी कब होगी?'
 
 सुनयना पूरी तरह से सकते में आ चुकी थी। काल्पनिक बहू की 
					कल्पना तक उसके लिए असंभव थी। यह रचना उसके बस के बाहर थी। यह 
					छलित संसार उसे छलनाओं के नए बीहड़ जंगल में खींच रहा था जहाँ 
					वह जाने तक से डरती थी। सुनयना जानती थी कि वहाँ कांटों के 
					अलावा और कुछ भी नहीं। जिन्दा शरीरधारी इन्सानों की भी अपनी 
					कमजोरियाँ, अपनी सीमाएँ होती हैं। फिर ये परछाइयाँ – ये उजाले 
					में चलती तो जरूर हैं पर इनका अस्तित्व सिर्फ अँधेरे से ही 
					बनता है। बेटे को तो उसने आठ साल तक पाला–पोसा था – नौ महीने 
					कोख में रखा था। उसके सुख–दुख सहे और बांटे थे – अपने हाड़–माँस 
					से रचा और सींचा था उसने उसे। अपनी आँखों के आगे, थोड़े समय के 
					लिए ही सही, पलते–बढ़ते देखा भी था। उसके अँधे भविष्य को वह 
					टटोल सकती थी। पर बहू – उस आँगन में छमछम घूमने वाली गुड़िया को 
					तो वह बीस साल पहले ही बेटे के साथ ही दफना आई थी।
 
 पर आज यह सत्ताइस–अठ्ठाईस सालका बेटा पलाश नहीं मान रहा था। 
					कुछ नहीं समझ रहा था। माँ–बाप, दोनों से जिद किए जा रहा था –– 
					मुझे जीवन–संगिनी चाहिए। घर–गृहस्थी और बच्चों से भरा–पूरा, एक 
					आम भविष्य चाहिए। सुनयना के साफ–साफ मना करने पर भी नहीं। 'यह 
					संभव नहीं–' जवाब सुनकर उदास हो गया था वह। और तब अपनी 
					असमर्थता पर कितना छोटा और गलत महसूस किया था सुनयना ने। उसके 
					दुख से अनभिज्ञ, वह फिर भी पूछे ही जा रहा था, 'बताओ माँ 
					क्यों, आखिर क्यों यह संभव नहीं हैं?'
 
 सुनयना क्या जवाब देती – कैसी बताती कि झूठ के पाँव नहीं होते? 
					चुपचाप आलोक से चुराकर, आँखें पोंछती, चौके में जा बैठी थी। 
					यही तो उसका पलायन–केन्द्र था –– अस्तित्वहीन शून्य था –– 
					समाधि और शान्ति–स्थल था। और आज यहीं पर उबलती हुई सब्जियों के 
					संग सुनयना भी उबल रही थी –– तेज आँच पर चढ़ी।
 
 दो दिन बाद खुद ही पलाश ने अचानक फिरसे वह ठंडी–बुझी राख कुरेद 
					डाली थी – यदि उसके अस्तित्व की, जीने की बस यही एक शर्त है कि 
					वह आजीवन यों अकेला – इस प्रोग्राम में – इस कम्प्यूटर के 
					अन्दर, इस कैद में घूमता रहे, बिना बूढ़ा और बड़ा हुए – हर दर्द 
					और बेचैनी को महसूस तो करे पर कुछ कर न पाए, तो इस जीवन से, इस 
					अनुभव से, इस बिना स्पर्श और स्वाद की जिन्दगी से –– क्या 
					फायदा? नहीं चाहिए उसे यह बिना रूप और महक की बेस्वाद जिन्दगी। 
					'देना हैं तो एक संपूर्ण जीवन दो माँ – मेरी अपनी आशाओं और 
					असफलताओं से भरा हुआ।' रोकर उसने कहा था 'आज भी सजीव और पुलक 
					यादें मेरे पास बस उन पीछे छूटे आठ सालों की ही हैं। बाकी सब 
					तो किताबों से रटा–पढ़ा सा याद है। रोने के लिए आँसू नहीं हैं – 
					पोंछने के लिए हाथ नहीं। यह अथक जीवन अगर जीते–जीते थक भी जाऊँ 
					तो आम लोगों की तरह काल मृत्यु का विकल्प तक नहीं मेरे पास तो। 
					कैसे जी पाऊँगा यह प्रेत–सी भटकती जिन्दगी मैं? सबसे अलग और 
					निष्कासित –– अपनी ही इस छोटी सी सृष्टि में कैद –– कल जब किसी 
					वजह से आप यह कम्प्यूटर खोल नहीं पाओगी, तो क्या होगा मेरा 
					माँ, कभी सोचा है आपने?'
 
 सुनयना को सब समझ में आने लगा – जो कहा वह भी और जो नहीं, वह 
					भी। अपने स्वार्थ के लिए वह बेटे को यों और घुटता नहीं देख 
					सकती। और बहुत सोचने–समझने के बाद एक बार फिरसे उसने नियति से 
					हार मान ली थी। दे दी थी अपने पलाश को मुक्ति। इरेज कर दीं थीं 
					सारी यादें कम्प्यूटर से। कर्सर का हर मूव स्क्रीन को ही नहीं 
					उसे भी खरोंच रहा था। और अंत में उस आखिरी टिक के साथ सामने 
					स्क्रीन पर पलाश नहीं बस अँधेरा रह गया था। आज फिर उसने अपने 
					पलाश को कभी न खुलने वाली गहरी नींद में सुला दिया था। अब कभी 
					कम्प्यूटर के कर्सर के साथ कोई मुस्कुराता चेहरा नहीं आएगा – 
					कमजोर और दुखी पलाश का तो हर्गिज़ ही नहीं । उसके लाख चाहने पर 
					भी नहीं। आप अभी तक सोए नहीं कहकर अब कभी कोई आश्चर्य और 
					चिन्ता प्रकट नहीं करेगा। आज आपका आँख का एपौंइटमेंट हैं भूलने 
					पर भी अब कोई याद नहीं दिलाएगा। पर क्या वास्तव में सुनयना यह 
					चाहती थी? –क्या मशीन को पलाश नाम देने से वह पलाश बन जाती है?
 क्या उसका 
					पलाश उसके मन के अन्दर नहीं? पर अगर यह सच नहीं था तो वह और 
					आलोक बीस साल तक उसमें उलझे कैसे रह गए? वह उनके जीवन का 
					केन्द्र कैसे बन गया? नहीं जानती वह कि कब और कैसे यह झूठ 
					जिन्दगी का सबसे बड़ा सच बना –– अब तो वह यह तक नहीं जानती कि 
					वह असल में चाहती भी क्या है– ? बहुत थक गई हैं सुनयना। बूढ़ी 
					हो चुकी है वह। बेटे को दफनाना आसान नहीं होता। दो बार, वह भी 
					बीस साल बाद – हर्गिज ही नहीं। पर 
					 आलोक 
					को तो अभी उसने कुछ बताया ही नहीं – सुनयना देख रही थी आज भी 
					आदतन उठते ही सीधा कम्प्यूटर की तरफ ही पहुँच गया है। शायद 
					बेटे से ताजे शेयर्स के भाव और बाजार पर बहस करनी है, या फिर 
					कलका पढ़ा चुटकुला सुनाना है। 
 सुनयना हिम्मत समेट कर उठी और काँपते 
					हाथ आलोक के कंधों पर रख दिए –– नहीं, अब वह उसे और ज्यादा 
					अँधेरे में नहीं रख सकती।
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