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पर्व परिचय                      

क्रिसमस : कुछ तथ्य
- गीतांजलि सक्सेना


मौसम की सर्द हवाएँ क्रिसमस को दस्तक देते हुए नववर्ष का आगमन का संदेश हौले से देती हैं और लाल हरी छटा, प्रकृति में हर तरफ़ नज़र आने लगती है। क्रिसमस यानि बड़ा दिन २५ दिसम्बर को ईसा मसीह के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है मगर इस मंज़िल तक पहुचने में इस पर्व को लम्बा समय लगा।

ईसा मसीह का जन्मदिन
ईसा के पूर्व रोम राज्य में २५ दिसम्बर को सूर्य देव डायनोसियस की उपासना के लिए मनाया जाता था। रोमन जाति का मानना था कि इसी दिन सूर्य का जन्म हुआ था। उन दिनों सूर्य उपासना रोमन सम्राटों का राजकीय धर्म हुआ करता था बाद में जब ईसाई धर्म का प्रचार हुआ तो कुछ लोग ईसा को सूर्य का अवतार मानकर इसी दिन उनका भी पूजन करने लगे।

धीरे-धीरे ईसा की प्रथम शताब्दी में ईसाई लोग ईसा मसीह का जन्म दिन इसी दिन मनाने लगे। ३६० ईसवी के आसपास रोम के चर्च में ईसा मसीह के जन्मदिवस का प्रथम समारोह आयोजित किया गया जिसमें पोप ने भाग लिया था। इन सब के बावजूद तारीख के सम्बन्ध में मतभेद बने रहे, वो इसलिए कि उन दिनों इस तारीख पर अन्य समारोह भी आयोजित किए जाते थे जिसमें नोर्समेन जाति के यूलपर्व और रोमन लोगों का सेटरनोलिया पर्व प्रमुख थे जिनका आयोजन ३० नवम्बर से २ फरवरी के बीच में होता था। इन उत्सवों का ईसाई धर्म से उस समय को सम्बन्ध नहीं था। कुछ समय के बाद अधिकांश धर्मधिकारों और ईसाई धर्मावलंबियों की लम्बी बहस और विचार विमर्श के बाद चौथी शताब्दी में रोमन चर्च व सरकार ने संयुक्त रूप से २५ दिसम्बर को ईसा मसीह का जन्मदिवस घोषित कर दिया। यरूशलम में इस तारीख को पाँचवी शताब्दी के मध्य में स्वीकार किया गया। इसके बाद भी क्रिसमस दिवस को लेकर विरोध अंतविरोध चलते रहे। अन्त में १९३६ मेंअमेरिका में इस दिवस को कानूनी मान्यता मिली और २५ दिसम्बर को सार्वजनिक अवकाश घोषित किया गया। इस से अन्य देशों में भी इस पर्व को बल मिला और यह बड़ा दिन यानि क्रिसमस के रूप में मनाया जाने लगा। क्रिसमस के समय को यूलूटाइड् भी कहते थे। १९ वी शताब्दी तक 'यूल' लकड़ी के टुकड़े को क्रिसमस के अवसर पर घर लाने की परम्परा थी।

मदर मरियम
ईसा को जन्म देने वाली मरिया गलीलिया इसराइल प्रदेश में नाजरेथ शहर की रहने वाली थी। ईसा के जन्म को लेकर न्यूटेस्टामेंट में उस कहानी का वर्णन है जिसमें लिखा है कि एक दिन ईश्वर ने अपने दूत गाब्रियल को मरिया के पास भेजा। देवदूत नें मरिया से कहा कि वह ईश्वर के पुत्र को जन्म देगी और उस बच्चे का नाम जीसस होगा वह ऐसा राजा होगा जिसके राज्य की कोई सीमा नहीं होगी, तब मरिया ने कहा कि ऐसा सम्भव नहीं है क्योकि मैं किसी पुरुष को नहीं जानती, तब देवदूत ने कहा पवित्रात्मा के वरदान से आप दैवीय बालक को जन्मेंगी जो ईश्वर पुत्र कहलाएँगे। मेरी का विवाह जोसेफ नामक युवक से हुआ था। वह दोनों नाजरथ में रहा करते थे। उस समय नाजरथ रोमन साम्राज्य में था और तत्कालीन रोमन साम्राट आगस्तस ने जिस समय जनगणना किए जाने का आदेश दिया था, उस समय मेरी गर्भवती थी। सभी लोगों को नाम लिखवाने बैथलहम जाना पड़ा। दम्पति जोसेफ और मैरी को कहीं जगह न मिलने पर एक अस्तबल में जगह मिली और यही पर ईसा या जीसस का जन्म हुआ। ईसाइयों के लिए यह घटना अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि वे मानते है कि जीसस ईश्वर के पुत्र थे इसलिए क्रिसमस खुशी और उल्लास का त्यौहार है क्योंकि उस दिन ईश्वर का पुत्र, कल्याण के लिए पृथ्वी पर आया था।

परम्परा का प्रतीक क्रिसमस ट्री
सदाबहार झाड़ियाँ तथा सितारों से लदें क्रिसमस वृक्ष को सदियों से याद किया जाता रहा है। हॉलिड् ट्री नाम से जाना जाने वाला यह वृक्ष ईसा युग से पूर्व भी पवित्र माना जाता था। इसका मूल आधार यह रहा है, कि फर वृक्ष की तरह सदाबहार वृक्ष बर्फ़ीली सर्दियों में भी हरे भरे रहते हैं। इसी धारणा से रोमनवासी सूर्य भगवान के सम्मान में मनाए जाने वाले सैटर्नेलिया पर्व में चीड़ के वृक्षों को सजाते थे। यूरोप के अन्य भागों में हँसी खुशी के विभिन्न अवसरों पर भी वृक्षों की सजाने की प्राचीन परम्परा थी। इंग्लैंड़ और फ्रांस के लोग ओक के वृक्षों को फसलों के देवता के सम्मान में फूलों तथा मोमबतियों से सजाते थे। क्रिसमस ट्री को लेकर कई किंवदंतिया हैं-

ईसाई संत बोनिफेस जर्मनी के यात्रा करते हुए एक रोज़ ओक के वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे जहाँ गैर ईसाई ईश्वर की सन्तुष्टि के लिए बच्चे की बलि देने की तैयारी कर रहे थे। संत बोनिफेस ने बलि रोकने के लिए यह वृक्ष काट डाला और उसके स्थान पर फर का वृक्ष लगाया जिसे वह जीवन वृक्ष तथा यीशू के जीवन का प्रतीक बताते है। एक जर्मन किंवदंती यह भी है कि जब यीसू का जन्म हुआ तब वहाँ चर रहे पशुओं ने उन्हें प्रणाम किया और देखते ही देखते जंगल के सारे वृक्ष सदाबहार हरी पत्तियों से लद गए। बस तभी से क्रिसमस ट्री को ईसाई धर्म का परम्परागत प्रतीक माना जाने लगा। घरों के अन्दर क्रिसमस ट्री सजाने की परम्परा जर्मनी में आरम्भ हुई थी। १८४२ में विंडसर महल में वृक्ष को सजा कर राजपरिवार ने इसे लोकप्रिय बनाया।

क्रिसमस की सजावट के सम्बन्ध कुछ सदाबहार चीज़ें और भी हैं जिन्हे परम्परा का हिस्सा व पवित्र माना जाता है जिसमें 'होली माला' को सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है इसे त्यौहार पर परम्परागत रूप से घरों और गिरजाघरों में लटकाया जाता है। 'मिसलटों' का सम्बन्ध भी क्रिसमस पर की जाने वाली सजावट से ही है। मिसलटों की नुकीली पत्तियाँ जीसस के ताज में लगे कंटीले काँटे को दर्शाती है और इस पौधे की लाल बेरी उनके खून की बूँद का प्रतीक मानी जाती है। शायद यही वजह थी कि मध्य युग में चचों में किसी भी रूप में इसके इस्तेमाल पर मनाही थी।

सांता क्लांज :
इस शब्द की उत्पति डचसिंटर से हुई थी। यह संत निकोलस का लोकप्रिय नाम था। ऐसी धारणा है कि वह ईसाई पादरी थे, जो माइनर में कोई डेढ़ हजार साल पहले रहते थे। वे बहुत दयालु और उदार थे व हमेशा ज़रूरतमंदो की मदद करते थे। बच्चों से जुड़े उनके सम्बन्धों के बारे में किंवदंती प्रचलित है कि एक बार उन्होंने तीन गरीब लड़कियों की मदद की थी कहा जाता है कि लड़कियों के बाहर लटक रहे मोजों में उन्होंने सोने के सिक्के डाल कर आर्थिक मदद की थी जो उनकी शादी करने में मददगार साबित हुई। तब से लेकर अब तक दुनियाभर के बच्चों में क्रिसमस पर जुराबों को लटकाने की परम्परा चली आ रही है। उनका मानना है कि संत निकोलस और उन्हें ढेर सारे उपहार दिए जाएँगे। दुनियाभर में इससे मिलती जुलती परम्पराएँ है। फ्रांस में बच्चे चिमनी पर अपने जूते लटकाते हैं। हॉलेंड में बच्चें अपने जूतों में गाजर भर देते हैं, यह गाजर वे सांता क्लॉज के घोडे के लिए रखते हैं। हंगरी में बच्चे खिड़की के नज़दीक अपने जूते रखने से पहले खूब चमकाते हैं ताकि सांता खुश होकर उन्हे उपहार दे। यानि की उपहार बाँटने वाले दूत को खुश कर उपहार पाने की यह परम्परा सारी दुनिया में प्रचलित है। इसी प्रचलन से उन्हे बच्चों का सन्त कहा जाने लगा। मध्ययुग में संत निकोलस का जन्म दिवस ६ दिसम्बर को मनाया जाता था। अब यह मान्यता है कि वह क्रिसमस की रात को आते है और बच्चों को तरह-तरह के उपहार वितरित करते हैं जिससे क्रिसमस का हर्षोल्लास बना रहे। इस तरह क्रिसमस व बच्चों के साथ संत निकोलस के रिश्ते जुड़ गए। यही अमेरिकी बच्चों के सांता क्लाज बन गए और वहाँ से यह नाम सम्पूर्ण विश्व में लोकप्रिय हो गया।

क्रिसमस आधुनिक परिवेश में १९वी सदी की देन है। क्रिसमस पर आतिशबाजी १९वी सदी के अन्त में टोम स्मिथ द्वारा शुरू की गई थी। सन १८४४ में प्रथम क्रिसमस कार्ड बनाया गया था। जिसका प्रचलन सन १८६८ तक सर्वत्र हो गया। सान्ता क्लाज या क्रिसमस फादर का ज़िक्र सन १८६८ की एक पत्रिका में मिलता है। १८२१ में इंग्लैंड की महारानी ने क्रिसमस ट्री में देव प्रतिमा रखने की परम्परा को जन्म दिया था।

कैरोल :
क्रिसमस के कई दिन पहले से ही सभी ईसाई समुदायों द्वारा कैरोल गाए जाते है। कैरोल वह ईसाई गीत है, जिसे क्रिसमस के अवसर पर सामूहिक रूप से गाया जाता है। कैरोल का इतिहास बहुत पुराना है। स्वर्गीय मारिया आंगस्टा ने अपनी पुस्तक 'द साउंड ऑफ म्यूज़िक' में लिखा था कि क्रिसमस पर गीत गाने की परम्परा ईसाईवाद की बरसों पुरानी परम्परा का हिस्सा है। यह सबसे पुरानी लोक परम्परा है जो अभी तक जीवित है। कैरोल के मूल स्वरूप में घेरा बनाकर नृत्य किया जाता था। इसमें गीतो का समावेश बाद में किया गया। कैरोल को लोकप्रिय और वर्तमान स्व्रूप में लाने का श्रेय संत फ्रांसिस को जाता है। उन्होंने १२२३ में क्रिसमस के समय मघ्यरात्रि के दौरान एक गुफा में गाया था। यह गीत एक तरह के भजन जैसा था। तब से ईसाई समुदायों में २४-२५ दिसम्बर के बीच की रात को गिरजाघरों में पूजा आराधना व भक्तिभावपूर्ण गीत गाने की परम्परा चली आ रही है।

ईसा को उपहार :
क्रिसमस का त्यौहार बिना उपहार के अधूरा है। इस अवसर पर एक दूसरे को उपहार देने की परम्परा है। क्रिसमस पर उपहार देने का चलन जीसस के जन्म से शुरू हुआ था। कहते है जीसस की जन्म की सूचना पाकर न्यूबिया व अरब के शासक मेलक्यांर, टारसस के राजा गॅसपर और इथीयोपिया के सम्राट बलथासर येरूशलम पहुँचे थे। जब वे घर में घुसे तब उन्होंने अपने सामने जोसेफ और मदर मैरी को पाया। वे प्रभु के चरणों में गिर गए और उनका यशोगान करने लगे और अपने साथ लाए खजाने से स्वर्ण व लोबान जीसस के चरणों में अर्पित किया।

यह भी कहा जाता है कि संत डेनियल की यह भविष्यवाणी, कि ईश्वरीय शक्ति प्राप्त एक बालक का जन्म हुआ है के आधार पर विद्वान मजीथियस, जो स्वयम भी दैवज्ञ व खगोल विद्या के ज्ञाता थे, दैवीय बालक यीशु के दर्शन करने बेथलेहम गए तब उन्होंने सारे उपहार दिए। इस तरह जीसस के जन्म के साथ ही उपहार देने की परम्परा शुरू हो गयी।

ईसाई धार्मिक स्थल :
यीशु के जन्म से जुड़े कुछ ईसाई धर्म स्थलों में नाजरेथ-जहाँ यीशु की परवरिश हुई थी, गॅलिली-जहाँ उन्होंने अपना धर्मोपदेश दिया था और यरूशलम- जहाँ मौत के साथ उन्होने आँख मिचौली खेली थी, बेथलेहम- जहाँ ईसा मसीह जन्मे महत्वपूर्ण हैं।

नाजरेथ के सेंट जोसफ के पास वह स्थान है जहाँ यीशु का पवित्र परिवार रहता था। बालक यीशु यहीं पास के जंगलो से अपने पिता के साथ लकड़ियाँ काट कर लाते थे। वही पास में प्राचीन कुँआ है जहाँ से मदर मेरी परिवार के लिए रोज़ पानी भर कर लाती थी। नाजरेथ में वह स्तंभ भी देखा जा सकता है, जिस पर खड़े होकर जिब्रील फरिश्ते ने माँ मरियम की कोख से जीसस के जन्म की भविष्यवाणी की थी। इसके समीप ही मदर मेरी का घर है। नाजरेथ नगर ने अपनी ऐतिहासिक धरोहर को संजोकर रखा है।

इज़राइल के बेथलेहम नगर में मदर मेरी के गिरजाघर में पत्थर की वह ऐतिहासिक दीवार आज तक मौजूद है, जिसका निर्माण धर्मयुद्ध के दौरान किया गया था। यहीं एक नक्काशीदार चबूतरे पर वह टोकरी भी रखी हुई है, जिसमें जीसस का जन्म हुआ था।

जॉर्डन की सीमा के पास गॉलिली झील के समीप यीशु ने अपना दैवीय उपदेश मानव जाति को दिया था। गॉलिली के सागर तट से उत्तर में कॉपेनां गाँव है जो संत पीटर का निवास स्थान था। इसी गाँव से उन्होंने यीशु के उपदेशों का प्रचार किया था। यही एक सभागृह है जहाँ से ईसामसीह धर्मोपदेश देते थे। 'इस धरती पर विन्रम और शालीन लोग राज करेंगे', ईसा ने अपना प्रसिद्ध आध्यात्मिक संदेश इसी गाँव के पास परमानंद पर्वत शृंखला के गिरजे की एक चट्टान पर बैठ कर दिया था। इसी गिरजाधर में एक चट्टान नज़र आती है जहाँ मत्स्य व डबलरोटी की प्रतिकृति है जो एक प्रतीक चिह्न है। यही बैठ कर यीशु अपने अनुयायियों के साथ मछली व डबल रोटी का भोजन करते थे। जीसस ने अपने प्रारंभिक वर्ष यही गुज़ारे थे।

उनके जीवन का उत्तरार्द्ध यरूशलम के समीप गुज़रा था। यरूशलम का मंदिर ७२वीं ईस्वीं में नष्ट हो चुका था अब वहाँ केवल कुछ अवशेष बचें है। यहीं पर पाषाण मकबरा है। किंग डेविड के मकबरे पर हर साल यहूदी श्रद्वालुओं का जमघट रहता है। नगर में कई प्राचीन इमारतें भी है। यरूशलम से तेल अबीब लौटते हुए यीशु की यादों से जुड़े कई धर्म स्थल मिलते हैं। काल्वेरी में पवित्र सेपल्श्रे गिरजाघर है, जहाँ ईसा को सूली पर चढ़ाया गया था। अन्दर जाने पर वह जगह देखी जा सकती है, जहाँ ईसा ने परमपिता को अपनी आत्मा सौपी। गिरजाघर के परिसर में ही वह गुफ़ा भी है, जहाँ सूली पर चढाए़ जाने बाद यीशु का शरीर दफनाया गया था।

क्रिसमस आमोद प्रमोद, मौज मस्ती, मेहमान नवाजी और सौभाग्य का सूचक माना जाता है। हर साल गीत संगीत के जरिये दमकती रोशनी में यीशु की जन्मगाथाएँ क्रिसमस की झाँकियों के रूप में दोहरायी जाती है।

 
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