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समकालीन कहानियों में
इस माह
प्रस्तुत है-
भारत से
अमिता नीरव की
कहानी
परम आनंद
रात
भर रह-रहकर पानी बरसता रहा। यों ये बारिश का मौसम नहीं है,
जनवरी बीत रहा है, लेकिन मावठा इन्हीं दिनों पड़ता है। नींद और
जागने का क्रम बारी-बारी से चला... फिर नींद लगी। जाने कितनी
देर रही और अब नींद पूरी तरह से खुल गई है, इस अँधेरे कमरे में
आँखों से टटोल कर सब कुछ देखना चाह रहे हैं, अश्विन। थोड़ी देर
इस इंतजार में दम साधे रहे कि शायद सुबह का उजाला नजर आए...
लेकिन बहुत एहतियात से उन्होंने अपना बिस्तर छोड़ दिया। किचन
में जाकर चाय बनाई और ड्राईंग रूम में लगी बॉलकनी में जाकर बैठ
गए। बाहर के अँधेरे को देखकर लग रहा था, जैसे अभी पौ फटने में
वक्त है। एक बार फिर उन्हें लगा हमेशा कल्पनाओं के आगे हकीकतें
फीकी होती हैं। जब काम करते थे, लगता था कब रिटायर हो जाएँ, जब
रिटायर हो जाएँगे तब वह सब करेंगे, जिसके लिये तरसते थे। काम
करते हुए तरस गए थे। देर तक सोना, देर रात तक जागना, खूब
फ़िल्में देखना और बहुत सारा वक्त बस रेडियो सुनना..
आगे-
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