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हास्य व्यंग्य

 

गणतंत्र के तोते
- धर्मपाल महेन्द्र जैन


रात घिर रही थी। पिछवाड़े से ढक्कन खोलने की मद्दम ध्वनि ठहाकों के साथ मुझ तक पहुँच रही थी। राग गणतंत्र गाने वाले साजिंदों की महफिलें ऐसे ही गुलजार हुआ करती थीं। मैं झीने पर्दे से उस पार झाँकने लगा। सज्जन पुरुष जाँच करेगा तो कुछ निराला ही देखेगा। मैंने देखा कि मालिक जुगनू पकड़ रहे थे। मालिक हाथी जैसे चौड़े और मदमस्त थे। वे शेर जैसे आदमखोर और गुर्राने वाले थे और विदेशी चीते जैसे देसी जमीन पर तीव्रतम गति से दौड़ सकते थे। जी, मालिक थे तो आदमी, पर वे आदमियत गिरवी रख आए थे और उन्होंने जनहित में बलशाली जानवरों के गुण अपना लिए थे। फिर भी वे जुगनू पकड़ रहे थे। जुगनू जनता जैसे मरियल थे पर चमकदार थे। वे कुछ क्षण जगमगाते और मालिक के समीप मंडराने लगते। मालिक उन्हें काँच की खाली बोतल में उतार देते ताकि जुगनू बोतल में बचे गणतंत्र के स्वाद को चख सकें और उसकी मादक गंध में मदहोश हो सकें।

मैं कई दिनों से देख रहा था। जुगनू बोतल में चमकते रहते और मालिक के आसपास रंग-बिरंगी दुनिया का भ्रम जीवंत बनाए रखते। वैसे तो शुरू-शुरू में ये जुगनू मालिक की गोद में बैठते-उछलकूद करते थे, पर मालिक का प्यार पा कर धीरे-धीरे उनकी हथेली पर आ बैठते थे। यहीं से उनकी बोतल यात्रा शुरू होती थी। सवेरे मालिक की उतर जाती तो वे जनतंत्र की खाली बोतल को उलट-पुलट कर देखते और पेंदे में बेदम पड़े जुगनुओं को देख कर अफसोस मनाते। फिर खुद को ही समझाते कि हे महापुरुष जनता रूपी जुगनुओं की यही नियति है। वे बोतल में घुस गए तो ठाठ से मरे, वे बाहर रहते तो भी बेमौत मर जाते। उन्होंने गर्वोन्नत साँस ली कि उनकी बोतल में जुगनुओं ने अंतिम समय तक मदहोशी का सुख पाया। वे बोतल को गणतंत्र समझने लगे थे। जब वे अपनी बोतलों का अमृत महोत्सव मना रहे थे तो मैं भी पहुँच गया।
मैंने मालिक से पूछा -आप जुगनू क्यों पकड़ते हैं?

- ‘ये हवा में तैरते हैं। इनके तैरने से हमें आपत्ति नहीं है, पर ये अंधेरे में लावारिस चमकते हैं। अरे, चमकना है तो हमारा अँगना है। हमारी अपारदर्शी विचारधारा की पारदर्शी बोतलें हैं। हमारी चखो, और अपनी रौशनी की निष्ठा हमें दे दो।’ यह कहते हुए मालिक की आँखें हीरे जैसी चमक रही थीं।
- पर सवेरे तक तो ये मर जाते हैं।
- ‘नहीं, सब नहीं मरते। कई जुगनू तोते बन जाते हैं।’ मालिक ने रौबदार आवाज में कहा।
- आप जुगनू को ... तोता बना देते हैं। मैंने विस्मय से पूछा।
- अरे आप हकलाते क्यों हैं! हमारी पार्टी में कोई नहीं हकलाता। डंके की चोट बोलता है और डंके की चोट ठोकता है। आप हमारे तोते ही देख लीजिए। कितने समझदार और आज्ञाकारी हैं। उन्होंने जोर से आवाज लगाई, ऐ घमंडवा, दो ठो तोते ला।

दो सोने के पिंजरे आ गए। पिंजरे चमकदार थे। मालिक ने बताया सत्ता के पिंजरे बहुत कम लोगों के पास थे। वे केवल सौभाग्यशालियों को ‘अलॉट’ किये जाते थे। मैं देखता रहा, पिंजरे में दाने थे, पानी था, झूले थे जिस पर तोते मस्ती में बैठे थे। भीतर से उन्हें राजमहल की अनुभूति हो रही थी। गर्वोन्नत तोते अपने ठाठ देख रहे थे, पिंजरों की सलाखें उन्हें चिंतित नहीं कर रही थीं। तोतों का गुण है मिट्ठू-मिट्ठू सुनना और मालिक जो कहे दोहराना। मालिक ने तोतों से कहा – मिट्ठू बेटे बोल, असली आज़ादी।
- असली आज़ादी, असली आज़ादी, असली आज़ादी।
पूरे आँगन में असली आज़ादी का ऐसा स्वर गूँजा कि घर में बंद सारे तोते एक स्वर में असली आज़ादी चिल्लाने लगे। मोहल्ले से नगर में गूँजा असली आज़ादी का शोर सारे देश में गुंजायमान हो गया। तोतों के बोलने से असली आज़ादी आ रही थी।

मालिक नए और मौलिक संवाद लिख रहे थे कि हमें असली आज़ादी नया पिंजरापोल बनाने के बाद मिली। मालिक के लिखे संवाद बोलते-बोलते तोते यकायक चिंतक होने का ढोंग करने लगे। तोते गांधी को कायर कह कर नया इतिहास लिखने को आतुर थे। भ्रम फैलाने के लिए भीख में सम्मान पा कर वे जय-जयकार कर रहे थे, अर्थहीन पैरोडी गा रहे थे, दे दी हमें आज़ादी ले कर कटोरा-थाल, एक साबरमती के संत ने किया देश बेहाल। तोतों के करतब पर मालिक ताली बजाते हँस रहे थे। मैंने मालिक से पूछा – आपके लिए आज़ादी का क्या मतलब है? वे फैल कर बोले – हमें तो केवल अपनी पॉवर के हिसाब से जैसा चाहें उल्टा-सीधा कहने और कराने की आज़ादी मिली है। पर, बदले में आम जनता को कितनी सारी आज़ादी मिली है। खामोश रहने के लिए सम्मान निधि पाने की आज़ादी, गुपचुप कृपा से बैंको से कर्जा ले कर ऋण माफी पाने की आज़ादी, श्रम और परिश्रम के बदले बेरोजगार रह कर भत्ता पाने की आज़ादी, विधर्मी मिल जाए तो उसे जिंदा जला देने की आज़ादी, मुफ़्त में अनाज, कपड़ा और शराब पाने की आज़ादी, मालिक की शक्ति के प्रदर्शन के लिए भारत को बंद करने की आज़ादी।

मालिक ने गणतंत्र की बोतल उंडेली और मरे हुए जुगनुओं को कचरे के ढेर में डाल दिया, ताकि जो जुगनू तोते नहीं बन पाए वे शाम की महफिल में बोतल में डाले जा सकें। मैं गणतंत्र पर चिंतन करने लगा, किंतु गण पर अटक गया। भाषा शास्त्री होता तो कहता गण का मतलब है गिरोह, जैसे डाकूगण, अधिकारीगण, नेतागण। जब गण गिरोह बने तब तोता बनाने के गुण आते हैं। बस ये जो नागरिक हैं, जो गण बनकर ताकत बन सकते हैं, वे जनसंख्या के आँकड़ों से ज़्यादा नहीं बन पाते। उनके लिए गणतंत्र एक छुट्टी भर है और आज़ादी मुफ़्त में बिजली, पानी, मुआवजा या भत्ता पाने की योजना।  

१ अगस्त २०२३

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