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रात
भर रह-रहकर पानी बरसता रहा। यों ये बारिश का मौसम नहीं है,
जनवरी बीत रहा है, लेकिन मावठा इन्हीं दिनों पड़ता है। नींद और
जागने का क्रम बारी-बारी से चला... फिर नींद लगी। जाने कितनी
देर रही और अब नींद पूरी तरह से खुल गई है, इस अँधेरे कमरे में
आँखों से टटोल कर सब कुछ देखना चाह रहे हैं, अश्विन। थोड़ी देर
इस इंतजार में दम साधे रहे कि शायद सुबह का उजाला नजर आए...
लेकिन बहुत एहतियात से उन्होंने अपना बिस्तर छोड़ दिया। किचन
में जाकर चाय बनाई और ड्राईंग रूम में लगी बॉलकनी में जाकर बैठ
गए। बाहर के अँधेरे को देखकर लग रहा था, जैसे अभी पौ फटने में
वक्त है। एक बार फिर उन्हें लगा हमेशा कल्पनाओं के आगे हकीकतें
फीकी होती हैं।
जब काम करते थे, लगता था कब रिटायर हो जाएँ... जब रिटायर हो
जाएँगे तब वह सब कुछ करेंगे, जिसके लिए काम करते हुए तरस गए
थे। देर तक सोना... देर रात तक जागना। खूब फ़िल्में देखना और
बहुत सारा वक्त बस रेडियो सुनना... लेकिन अब जबकि अश्विन
रिटायर हो चुके हैं, उनका किसी काम में मन नहीं लगता है। रात
को तयशुदा वक्त पर नींद आ जाती है और सुबह होने से पहले ही
नींद खुल भी जाती है। जीवन भर का अनुशासन इस उम्र में रास नहीं
आ रहा है, लेकिन उन्होंने अनुशासन को ज़िन्दगी की तरह जिया है।
सिर्फ़ उन्होंने नहीं, पत्नी सरिता और बेटी केतकी ने भी...
केतकी... एक गहरी साँस ली अश्विन ने।
उन्होंने कमरे की तरफ एक हताश नजर फेंकी... सरिता अब भी गहरी
नींद में है। थक भी तो जाती होगी... पिछले तीन दिनों से वह
केतकी के आने की तैयारियों में चकरी जो हो रही है। कभी कुछ नया
बनाना तो कभी कुछ खरीदना... कल दोपहर के खाने के बाद सरिता ने
उससे बिना किसी लाग-लपेट के पैसों की माँग की थी... कितने...?
बीस पचीस हजार। अश्विन सन्न रह गए थे। आज तक इतनी बड़ी रकम
सरिता ने उनसे नहीं माँगी, असल में सरिता ने उनसे कुछ माँगा ही
नहीं।
जब नौकरी कर रहे थे, तब उसे ये पता नहीं था कि अश्विन की
तनख्वाह कितनी है और अब जब पेंशन मिल रही है, तब भी उसे पता
नहीं है कि कितनी मिल रही है। जीवन भर घर की पैसों से सम्बंधित
सारी व्यवस्था अश्विन ने खुद संभाली थी। नौकरी लगते ही
इंश्योरेंस पॉलिसी ले ली थी। किफायत को उन्होंने ज़िन्दगी का
मूल-मंत्र माना था।
यों सरिता को या केतकी को किसी चीज़ की कमी नहीं महसूस होने दी
थी, क्योंकि हर चीज उन्होंने योजना बनाकर की थी। केतकी के जन्म
लेते ही उन्होंने उसके लिए बचत शुरु कर दी थी, उसकी पढ़ाई के
लिए अलग और उसकी शादी के लिए अलग। साल भर में दो बार सरिता को
साडिय़ाँ दिलवाते थे। खुद भी उतनी ही बार कपड़े खरीदते थे। एक
निश्चित रकम उसे हाथ खर्च के लिए देते हैं, घर के छोटे-मोटे
खर्चों के अतिरिक्त। ऐसा ही उन्होंने केतकी के साथ भी किया था।
उसे भी उन्होंने ये हिदायत दी थी कि इस निश्चित रकम में ही उसे
अपना काम चलाना है। यों खुद अश्विन को भी कोई व्यसन नहीं है,
एकदम सादा जीवन जीते रहे हैं। हर महीने एक फ़िल्म और बाहर खाना
खाना, पंद्रह दिनों में मिठाई लाना या फिर घर में बनाना। केतकी
के जन्मदिन पर दोस्तों और रिश्तेदारों को खाने पर बुलाना।
सालों से यही ढर्रा बना हुआ था। न इसमें कोई कमी हुई और न ही
इसमें कुछ जुड़ा। खैर लेकिन ये मामला कुछ अलग था, सरिता
बिल्कुल अडिग और अश्विन की मनस्थिति से जैसे एकदम उदासीन थी।
जितनी उदासीनता और दृढ़ता से उसने अश्विन से पैसे माँगे थे,
लगभग उतनी ही निस्संगता से अश्विन से बाज़ार चलने के बारे में
पूछा था। ये अश्विन को आहत कर गया था। सरिता ने बहुत अलगाव से
उससे पूछा था 'आप बाज़ार चलना चाहेंगे, मुझे थोड़ी खरीददारी
करनी है।' वह जानती है कि अश्विन को ये सब रास नहीं आ रहा है,
लेकिन सरिता ने जिस तरह की उदासीन दृढ़ता धारण कर ली है, उससे
अश्विन थोड़ सहम गए हैं। उन्हें याद नहीं पड़ता कि सरिता ने
कभी उसकी इस तरह से अवहेलना की हो।
कल सुबह ही वह फोन पर पूछ रही थी, 'तू इंडियन ड्रेस पहनती हैं
न...!' तभी अश्विन ने समझ लिया था कि आज खरीददारी की जानी है।
लेकिन सरिता उन्हें इस तरह इस सबसे अलग कर देगी इसका अश्विन को
अहसास नहीं था। हालाँकि अश्विन के पास अपनी भूमिका की कोई
पटकथा नहीं है, बड़ी उलझन तो ये भी है। शायद इसीलिए एकाएक
उन्हें घर में अपना होना बेकार-सा लगने लगा है।
केतकी के आने की खबर से लेकर उसके आने की तैयारियों तक से
सरिता ने अश्विन को दूर रखा है। सालों से अश्विन के अनुशासन से
बंधी सरिता अचानक उससे अलग बहने लगी थी। उसने अश्विन से कोई
राय नहीं ली और न ही कुछ पूछा ही। कल दिन भर अश्विन घर में
अशांति और अस्थिर मन: स्थिति में रहा। सरिता खरीदी कर लौटी तो
उसने अश्विन के लिए चाय बनाई, नाश्ता बनाया, लेकिन उसे अपने
भीतर के उछाह से दूर रखा... दोनों के बीच एक दीवार-सी खड़ी हो
गई।
जबसे केतकी के आने की खबर मिली है उसे... तबसे उन दोनों की
दुनिया अलग हो गई है। अश्विन को ऐसा तब भी लगा था, जब केतकी का
जन्म हुआ था। उस वक्त उन्हें गाहे-ब-गाहे लगता था कि वे सरिता
की ज़िन्दगी में हाशिए पर चले गए हैं। वैसे उन्होंने खुद ही
बच्चा चाहा था, जल्दी... आखिर उनकी उम्र तीस पार हो चली थी।
देर से बच्चा मतलब देर तक जिम्मेदारियों का बोझ... प्रकृति सब
कुछ उनके अनुकूल ही करती चली गई थी। हालाँकि उन्होंने बेटा
चाहा था, लेकिन हो गई बेटी... शुरुआती दिनों में उदास रहे,
लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने इससे समझौता कर लिया था। सोचा था,
बेटी को ही बेटे की तरह पालेंगे। सरिता और माँ सहित सबने चाहा
था कि एक बच्चा और हो, लेकिन अश्विन अपनी बात पर अड़े रहे थे।
उन्हीं दिनों जब सरिता पूरी तरह से केतकीमय हो गई थी, उन्हें
लगता था कि जैसे वे अलग हो गए हैं। कई-कई बार वे बेवजह सरिता
पर भड़क जाया करते थे। सरिता उनके जीवन में पंचिंग बैग की तरह
रही... जब गुस्सा आया कोई घूँसा जड़ दिया... नहीं हाथ नहीं
उठाया कभी, लेकिन बस गुस्सा निकालने के लिए सरिता से अच्छा
पात्र अश्विन को कभी मिला नहीं। सरिता भी अच्छी गृहिणी की तरह
अश्विन के गुस्से को सह लिया करती। कभी-कभी उसे भी गुस्सा आ
जाया करता, वह भी अश्विन पर निकाल लेती, लेकिन उसे बहुत कम ही
गुस्सा आता है।
अश्विन की चाय खत्म हो चुकी थी, एक नजर फिर से आसमान की तरफ
देखा... बिजली चमक रही थी। हल्की बारिश फिर से शुरू हो चुकी
थी। दूर पूरब से हल्की रोशनी भी फूटने लगी थी, हालाँकि बादलों
के बीच सूरज का आना वैसा सुनहरा-सिंदूरी तो नहीं है, लेकिन
रिटायरमेंट के बाद पौ फटने से पहले उठे हुए आदमी के अकेलेपन
में सुबह का होना ही बड़ी राहत है। कई बार उनका मन किया कि वे
सरिता को जगा दें, लेकिन नींद को लेकर बचपन में ही उसमें एक
अनुशासन-सा आ गया था किसी को भी नींद से नहीं जगाना ये पाप
होता है।
बाद के सालों में पाप-पुण्य का विचार तो अलग हो गया, उसमें बस
अपना अनुभव जुड़ गया... गहरी नींद में यदि कोई खलल पड़े तो
हमें कैसा लगता है, दूसरे को भी वैसा ही लगता होगा... बस। ये
प्रैक्टिस आज तक जारी है। घर के भीतर के भी खटर-पटर की आवाजें
आ रही थी, सरिता जाग गई थी।
दो दिन बाद केतकी अपने उस जर्मन पति के साथ आने वाली है...
जिससे उसने माता-पिता की मर्जी के खिलाफ शादी कर ली थी... दस
साल पहले। केतकी और क्रिस दोनों यूनिवर्सिटी में रिसर्च कर रहे
थे। तब ही दोनों की मुलाकात हुई थी। क्रिस पुराणों पर रिसर्च
के सिलसिले में भारत आया था और केतकी संस्कृत में रिसर्च कर
रही थी। दोनों को मिलना ही था, लेकिन शादी... जब केतकी ने
क्रिस से शादी की बात की तो अश्विन आपे से बाहर हो गए। केतकी
को उन्होंने बहुत अनुशासन और संयम से पाला है... एकाएक उसने
जैसे अश्विन को दरकिनार कर दिया।
उस वक्त जब अश्विन ने केतकी से साफ-साफ कह दिया था कि या तो तू
अपने माता-पिता को चुन ले या फिर अपने प्यार को... तब भी सरिता
चुप ही रही थी। अश्विन को लगा था कि उनका प्रेम और परवरिश जीत
जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एक शाम केतकी ने अपने डॉक्यूमेंट्स
और कुछ कपड़े एक बैग में रखे और दोनों के पैर छूटकर निकल गई।
बहुत रोई थी सरिता उस दिन और बहुत दिनों तक, जब आखिरकार केतकी
सबसे विदा लेकर क्रिस के साथ चली गई थी। उसके बाद दस साल गुजर
गए।
न उसने खबर ली और न ही अश्विन और सरिता ने। फिर एकाएक एक महीने
पहले केतकी का फोन आया वह भी सरिता के पास... 'माँ, मैं इंडिया
आ रही हूँ और घर भी...' अश्विन को लगा कि शायद सरिता उससे
पूछेगी, लेकिन सरिता ने अश्विन से कुछ भी नहीं पूछा और
तैयारियों में लग गई. अश्विन आहत हुआ है बहुत... लेकिन उसके
पास प्रतिकार का कोई तरीका नहीं है। हर वक्त में, हर उम्र और
हर परिस्थिति में अश्विन ने संयम, संतुलन और अनुशासन को जो
साधा है।
अश्विन ने बहुत संघर्ष किया है, बापू ने उसे इंजीनियर तो बना
दिया था, लेकिन नौकरी पाने के लिए जब वह शहर आया तब से उनका
संघर्ष शुरू हो गया था। बापू ने जैसे-तैसे इंजीनियरिंग तो करवा
दी थी, लेकिन उस वक्त भी क्या नौकरी मिलना आसान रहा था? मिलती
तो थी, यदि कोई सिफारिशी पत्र या फिर हाथ होता। अश्विन के पास
ऐसा कोई आसरा नहीं था, ऊपर से इंजीनियर होने के बाद बेरोजगारी
का बोझ और भी ज़्यादा होने लगता था, जो भी मिलता सबसे पहला
सवाल यही पूछता 'क्या कर रहे हो आजकल...' जैसे कुछ किया नहीं
तो फिर आप कुछ हैं भी नहीं।
बहुत सारी जगह एप्लीकेशंस पोस्ट की... कभी गलती से डाकिया आता
तो किचन में माँ हाथ पोंछती हुई उत्सुक आँखें टिका देती अश्विन
पर, यदि बापू होते तो वे भी अश्विन के चेहरे पर आते-जाते भावों
को पढऩे की कोशिश करते... कितनी कोफ्त होती थी अश्विन को।
उन्हें लगता कि काश वे इंजीनियरिंग नहीं करते बस किसी तरह
बीए-एमए हो जाते... कहीं न कहीं मास्टरी तो कर ही पाते। ये
संघर्ष उन्हें भीतर से खोखला करने लगा था। अक्सर जब बहुत
निराशा होती तो वे उससे लडऩे लगते। सोचते एक दिन जब सब कुछ ठीक
होगा, मैं बहुत खुश होऊँगा, जब तक की पीड़ा है।
कई महीने ऐसे ही निकल गए. ऐसा नहीं था कि खुशी के मौके नहीं
आए, लेकिन स्वभाव ही कुछ ऐसा बन गया कि अश्विन खुशियों के
रास्ते में खुद खड़े हो जाते, रोक लेते उसे उस दिन के लिए जिस
दिन सब कुछ उनकी इच्छा का, मन का हो जाएगा। फिर एक दिन सब कुछ
बदल गया। अश्विन के दोस्त के चाचा जो पीडब्ल्यूडी में अफसर थे
ने अश्विन को अपने ऑफिस बुलाया थोड़ी औपचारिकता हुई और अश्विन
वहाँ भर्ती हो गए। वह दिन खुशी का ही था, लेकिन उस दिन अश्विन
को अपने सारे दिनों के संघर्ष याद आए और बस वह दिन गुजर गया।
ऐसे कितने ही दिन अश्विन के हाथों से छूटकर बिखर गए थे।
सरिता को पहली ही नजर में देखकर मुग्ध हो गए थे, शादी भी बहुत
आसानी से हो गई थी और केतकी का जन्म हो गया। ज़िन्दगी पटरी पर
आ गई... लेकिन सब कुछ करके भी अश्विन खुश नहीं हो पाते थे। ऐसे
ही दिन पर दिन बीतते रहे, लेकिन वह दिन अश्विन की ज़िन्दगी में
कभी नहीं आया, जो उन्हें ऐसा खुश कर दे कि वे हवा में तैरने
लगें। कभी लगता कि शायद कोई श्राप है उन्हें, वे कभी खुश हो
नहीं पाएँगे। अश्विन सेल्फ मेड इंसान रहे... मां-बापू के पास
उन्हें शिक्षित करने के अतिरिक्त देने के लिए और कुछ था ही
नहीं।
बहुत योजनाबद्ध तरीके से अश्विन ने अपनी गृहस्थी चलाई थी, हरेक
चीज तय वक्त पर और बिना किसी कर्ज के खरीदी थी... खुद। गरीबी
ने उन्हें किफायत भी सिखाया था और संयम भी... कभी ओवर बजट होकर
उन्होंने जीवन में कुछ नहीं किया। सरिता उनके हाथ में गीली
मिट्टी की तरह ही आई थी, उन्होंने सरिता को अपने तरीके से गढ़ा
था। शायद ही कोई वक्त रहा हो, जब किसी ने अश्विन को बहुत खुश
या बहुत उदास देखा हो... न वे खुद ऐसे हुए और न उन्होंने चाहा
कि सरिता और केतकी वैसी हों। पहली गाड़ी खरीदी तब भी और नया घर
बना तब भी सरिता बहुत खुश हुई थी, लेकिन अश्विन के संयम और समझ
दोनों ने उन्हें सहज नहीं होने दिया था। ऐसा तो नहीं रहा कि
ज़िन्दगी ने उन्हें सुख देने में कृपणता बरती हो, लेकिन बस
उन्होंने खुद को ज़िन्दगी भर कृपण रखा। अब भी वे ऐसा ही कर रहे
हैं।
आज केतकी आने वाली है, मन में न जाने क्या-क्या चल रहा है।
अश्विन गहरी ऊहापोह में है। उनके भीतर का पिता केतकी को देखने
के लिए हुलस रहा है, लेकिन उनके भीतर का इंसान अपनी अवहेलना के
आहत होने को फिर से जी रहा है। जान-बूझकर देर तक बिस्तर में
पड़े रहे... सरिता के उत्साह और उमंग को कनखियों से देखते रहे।
शायद वे सरिता की किसी भूल का, किसी उदासीनता का, उनके प्रति
किसी तरह की लापरवाही का इंतजार भी करते रहे... आखिर कुछ तो
ऐसा हो कि वे रूठ सकें... फिर वही... तर्क, संयम। सरिता चाहती
थी कि केतकी को लेने के लिए एयरपोर्ट जाएँ, लेकिन खुद केतकी ने
ही उन्हें ऐसा करने से रोक दिया।
अश्विन के लिए बहुत उलझन भरा वक्त शुरू हो चला था। वे न
मुस्कुरा सकते थे और न ही मातमी भाव ला सकते थे। एकबारगी तो
उन्हें लगा जैसे वे अपने जाल में खुद ही फँसने जा रहे हैं,
लेकन ऐंठा हुआ अहम है, इतनी आसानी से कैसे नरम पड़ेगा। सरिता
कई बार अंदर-बाहर कर चुकी है, अश्विन बहुत शांति से इसे देख
रहे हैं। सरिता का उछाह, उसकी बेकली सब आखिरकार इंतजार खत्म
हुआ। घर के दरवाजे पर एक टैक्सी आकर रुकी। अश्विन खिड़की और
पूरे खींचे पर्दे के बीच के हिस्से से बाहर की गतिविधियों को
देख रहे हैं। सरिता बाहर पहुँच गई थी, सफेद टी-शर्ट और नीली
जींस में केतकी उतरी और सरिता के गले लग गई।
सरिता की हिलती पीठ इस बात की गवाही दे रही थी कि वह हिचकियाँ
ले-लेकर रो रही है। सरिता के कंधे से टिका केतकी का सिर नजर आ
रहा था, तभी टैक्सी के पैसे देकर और सामान निकाल चुके क्रिस
ने, गले लगीं और हिचकियाँ लेती माँ-बेटी को बाँहों में ले
लिया। अश्विन खुद भीगने लगे थे, लेकिन कोई रोक फिर लग गई थी।
वे खिड़की छोड़ चुके थे और अब पलंग पर जा लेटे। वे कल्पना भी
नहीं कर पा रहे हैं कि आखिर अब आगे क्या...? जाहिर है केतकी और
क्रिस उनसे मिलने आएँगे ही... तब...तब वे क्या करेंगे? अपने अब
तक के संचित गुस्से को समेटकर कुछ विध्वंसक करेंगे या फिर संयम
से उस क्षण को गुजर जाने देंगे। बाहर से दो लोगों के नाक
सुड़कने की आवाजें आ रही थीं। मतलब रोना तो थम गया है, लेकिन
ऑफ्टर इफैक्ट बचे हुए हैं। केतकी ने सरिता से पूछा...
'पापा...?'
सरिता ने इशारे से बताया... अंदर हैं।
अश्विन की पूरी चेतना बस कान हो चली थी। एकाएक केतकी को सामने
देखकर वह हकबका गए। केतकी ने पैर छूए, अश्विन के भीतर कुछ नर्म
हुआ लेकिन व्यक्त नहीं हुआ। सॉरी पापा... केतकी का गला भर आया,
वह अश्विन के गले लग गई। अश्विन के हाथ उठे उसके सिर तक जाने
के लिए, लेकिन रोक लिए गए। क्रिस सामने खड़ा सब कुछ देख रहा
था। जब अश्विन की नजर गई तो गहरा असमंजस उभरा। एक ही साथ बहुत
सारे सवाल उठे... वह क्या सोच रहा होगा? उसे कैसा लग रहा होगा?
असमंजस बहुत गहरा गया, जब सरिता भी भीतर आ गई। केतकी अश्विन की
बाँह पकड़कर बाहर ले आई। बार-बार कुछ नर्म होकर बहना चाह रहा
है, लेकिन अश्विन संतुलित बने हुए है, बल्कि बहुत हद तक
उदासीन।
दो दिन गुजर गए केतकी-क्रिस को आए। अश्विन संवाद करने से बच
रहे हैं। सरिता उमगती घूम रही है। इस बीच कई ऐसे मौके आए, जब
अश्विन असुविधाजनक स्थिति में आए, उनके अनचाहे ही भीतर का कोना
नरमा रहा था, लेकिन फिर जैसे बर्फ-सा ठंडापन सिर उठाने लगता
था।
उस दिन सरिता ने रबड़ी बनाई थी, खाने के बाद सर्व की। क्रिस
डायनिंग टेबल पर बैठा था और सरिता सबको सर्व कर रबड़ी फ्रिज
में रखने लगी, तभी क्रिस अपनी कुर्सी से उठा और सरिता को गले
लगा लिया... इट्स टू टेस्टी मिसेज़ मेहता... यू आर टू गुड कुक।
केतकी ने उसे डपटा कॉल हर मॉम क्रिस। लेकिन क्रिस ने
मुस्कुराते हुए जवाब दिया, जब दिल से निकलेगा, निकल जायेगा।
केतकी ने क्रिस को अच्छी हिन्दी सीखा दी है, लेकिन सांस्कृतिक
तौर पर वह अपने मूल्यों से बाहर नहीं आया है। वह अब भी सरिता
और अश्विन को मिस्टर और मिसेज मेहता ही कहता है। गाहे-ब-गाहे
वह सबके सामने केतकी को गले लगाता रहता है। अश्विन को ये सब
बड़ा असुविधाजनक लगता था। उन्हें इस तरह का खुलापन असभ्यता और
अशिष्टता लगती है।
दोपहर के खाने के बाद दोनों कहीं बाहर चले गए। घर में अश्विन
और सरिता दोनों ही रह गए। करीब हफ्ता होने को आया, दोनों के
बीच सहज संवाद नहीं हुआ। सरिता सहज है, लेकिन अश्विन नहीं। वह
संवाद चाहते हैं, लेकिन ये भी चाहते हैं कि पहल सरिता करे।
सरिता ये जानती है कि यदि अभी संवाद की पहल की तो कड़वाहट पैदा
होगी, इसलिए वह हरसंभव अश्विन से बच रही है। बहुत देर तक किचन
में काम करती रही, जब आई तब तक अश्विन सो चुके थे। शाम को जब
अश्विन की नींद खुली तब सरिता गहरी नींद में सो रही थी।
सरिता तो सो ही रही थी, जब क्रिस ने खुद चाय बनाकर सरिता को
जगाया। सरिता गदगद और थोड़ी सकुचाई भी थी। केतकी ने गले लगाते
हुए कहा था, कम ऑन माँ, जैसी मैं वैसी ही क्रिस है। सरिता के
लिए यह सब एकदम नया था। उसकी उम्र की औरतें अब तक पुरुषों के
घर में काम करने को देखने की आदी नहीं है। फ़िल्मों की बात और
है। हर दिन खाने के बाद क्रिस किचन में जाकर सरिता की मदद करता
तो सरिता निहाल हुई जाती, उसे बेटी के नसीब पर गर्व होता है।
उसे लगता कि यदि किसी भारतीय लड़के से शादी करती तो क्या वह
उसके लिए ये सब करता...? जैसे-जैसे वह क्रिस की जान रही थी,
वैसे-वैसे उसे ये राहत हो रही थी कि चाहे जो हो, बेटी बहुत
सुखी है और बहुत भाग्यवान भी। रात को क्रिस के हाथ की कॉफी
पीने के दौरान केतकी ने घोषणा की कि हम सब दो दिन बाद मनाली जा
रहे हैं।
टिकट बुक हो गए हैं, पहले दिल्ली और फिर दिल्ली से भुंतर...
वहाँ से गाड़ी से मनाली। अश्विन ने साफ इंकार कर दिया, नहीं...
मैं नहीं जा रहा हूँ।
केतकी ने लाड़ से पूछा था-क्यों पापा?
मुझे सफर सूट नहीं करते हैं।
पापा, हम आपको ज़रा भी दिक्कत नहीं होने देंगे और अब हम इस बात
पर कोई बहस नहीं कर रहे हैं। अश्विन अवाक होकर केतकी की तरफ
देखने लगे। जिस दृढ़ता से उसने अपनी बात रखी थी, उसने अश्विन
के सामने सारे रास्ते बंद कर दिए थे।
उस सुबह जब सारे भुंतर से मनाली पहुँचे तब मौसम बहुत खराब हो
रहा था। घने बादल छाए हुए थे। सारे लोग थक गए थे। दोपहर का
खाना खाकर सब लोग सो गए। शाम हुई तो हल्की बारिश होने लगी।
केतकी और क्रिस तो बहुत सारे गर्म कपड़े और रेनकोट पहनकर बाहर
निकल गए। थोड़ी देर में बर्फ गिरने लगी थी, फिर भी दोनों देर
रात लौटे थे, अश्विन ने सरिता से कहा भी था, फोन लगाओ... बाहर
मौसम खराब है, बर्फ गिर रही है, दोनों में से एक भी बीमार पड़
गया तो दूसरे शहर में मुश्किल होगी। लेकिन सरिता भी बस
मुस्कुराकर रह गई थी। रात का खाना कमरों में ही खाया था। दोपहर
बहुत सो लेने के बाद भी अश्विन सोने चले गए, सरिता क्रिस और
केतकी के साथ उनके कमरे की बॉलकनी में बैठ कर गप्पे लगाती रही।
बाहर गहरा अँधेरा था, अश्विन सोच रहे थे बरसों से अँधेरे-उजाले
का खेल चल रहा है। जब अँधेरा होता है इस बात का अनुमान लगाने
भर से कि जब रोशनी होगी तो कैसा लगेगा... मन जैसे उडऩे लगता
है। लेकिन जाने ये रोशनी आती कैसे है और कब आएगी... कितने
सालों से तो वह इस रोशनी का इंतजार कर रहे हैं। रात के एक बज
रहे हैं और बाहर घना अँधेरा है। शाम से रूई की शक्ल में बर्फ
झर रही है... लगातार, जैसे जिद्द है सब कुछ को सफेद कर डालने
की। ठंड बहुत तेज हो गई है, कैप, दस्तानों, दो-तीन स्वेटर,
भारी कोट और ऊनी जुराबों के बाद भी बार-बार सिहरन उठती है।
ब्यास के पथरीले किनारे कैसे रुई से ढँक गए हैं। मकानों,
होटलों की छतों, बाहर पड़े वाहनों, सड़क के साथ-साथ ब्यास के
इर्द-गिर्द देवदार के पेड़ और उसके घने जंगल तक बर्फ की सफेदी
से पुत गए हैं, जैसे। पानी की कल-कल लगातार एक रिदम पैदा कर
रही है, इतनी एक-सी ध्वनि है, जैसे लगता है म्यूजिक कंपोज किया
गया हो... ध्यान के लिए... उस पानी पर भी बर्फ तो झर रही है,
लेकिन हिमालय से उतरती नदी के प्रावाह में बर्फ भी बहती जाती
है... क्या ये जीवन का कोई संकेत है? हाँ शायद... पहाड़ों से
उतरती नदी का वेग जीवन के वेग की तरह ही हुआ करता है, जिसमें
कुछ भी नहीं ठहरता है, जीवन सिर्फ़ गति है, निरपेक्ष, निस्संग
गति... यदि इस बहते पानी में गंदगी भी गिरेगी तो बहती चली
जाएगी, बहाव के अंत में हिसाब होगा, या फिर किसी किस्म की
रूकावट के मौके पर... ठीक वैसे ही जैसे जीवन का हिसाब भी या तो
मुश्किल वक्त में हुआ करता है या फिर अंत में।
तो फिर आज ये क्या है? क्यों हिसाब-किताब का विचार आ रहा है?
पता नहीं, लेकिन जीवन का अंतरप्रवाह शायद किसी रुकावट का शिकार
हो रहा है। उपर से देखने पर नदी की गति और प्रवाह जैसे स्पष्ट
नजर आ रहे हैं... हालाँकि अँधेरा है, फिर भी ऊपर से देखने पर
चीजें ज़्यादा स्पष्ट सुलझी हुई नजर आती है। उन्हें जाने क्यों
आज माँ याद आ रही थी। माँ अक्सर कहा करती थी कि बेटा मन ही हर
चीज का जनक है... अश्विन को कभी यकीन नहीं आया। माँ का संतोष
उन्हें मजबूरी और पिता की माँ के प्रति कृतज्ञता उनकी कातरता
लगती रही। आज इस अनजानी-सी जगह में जाने कहाँ से क्या दाखिल हो
गया उनके जहन में... जाने कैसे इस भ्रम ने जीवन में जगह ले ली
थी कि सुख कोई ऐसी चीज है, जो आती है... फिर जाती है... मतलब
हमसे बाहर है, हमसे इतर है।
जाने क्यों ऐसा लगा जैसे कोई बहुत हड़बड़ाहट में जोर-जोर से
दरवाजा बजा रहा है। सरिता बहुत ही गहरी नींद में थी, अश्विन
बहुत धीरे से पलंग से उतरकर दरवाजे की तरफ गए थे... जैसे ही
दरवाजा खोला था... 'वैरी हैप्पी एनिवर्सरी पापा... वेयर इज
माँ?' ये क्रिस था, तब तक सरिता भी जाग गई थी। बाहर आइए...
देखिए कितना मजा आ रहा है, बाहर खुले में रूई के फाहों की तरह
बर्फ पड़ रही थी। केतकी बर्फ के गोले बना रही थी और जैसे ही
अश्विन बाहर आए उसने अश्विन की तरफ गोला उछाल दिया... 'हैप्पी
एनिवर्सरी पापा-माँ'। सरिता भी पीछे-पीछे थी... दोनों ही केतकी
के आने के उछाल और आक्रोश में अपनी शादी की सालगिरह भूल गए थे।
मगर केतकी को याद थी। उस जमी बर्फ पर तेज आँच लगी थी।
अश्विन ने बहुत कोशिश की थी इस सबसे बचने की... लेकिन थोड़ी
देर में उसके सारे जीवन का संचित बाँध टूट गया था, वे भी बर्फ
के गोले बनाकर फेंक रहे थे, कभी क्रिस की तरफ तो कभी केतकी की
तरफ... फिर एक गोला क्रिस ने सरिता को बनाकर दिया... और इशारा
किया पापा को। सरिता थोड़ा सकुचाई, लेकिन क्रिस ने आँख मारकर
फिर से इशारा किया... सरिता ने अश्विन की तरफ गोला उछाला...
अश्विन खुशी से किलके। केतकी उनके गले लग गई। अश्विन को लगा कि
सुख, योजना और अनुशासन में नहीं है, जीवन इस बहती नदी की तरह
है, उसे बाँधना क्यों, उसे खोल देना चाहिए... माना कि बहुत
संघर्ष किया है, बहुत साधा है खुद को, लेकिन अब तो सारे बंधनों
से मुक्त होना ही चाहिए मुझे... उसे पहली बार लगा कि माँ ने
सही कहा था... सुख बाहर नहीं, भीतर है, खुले होने में है, उदार
और उन्मुक्त
होने
में... तभी तो आज जो महसूस हुआ वह जीवन के किसी मोड़ पर नहीं
मिला।
अश्विन मुक्त हैं और हवा में तैर रहे हैं। केतकी ने अश्विन को
भींच लिया था और क्रिस ने आकर दोनों को बाँहों में ले लिया।
सरिता दूर से भीगी आँखों से सब कुछ देख रही है। अश्विन को यकीन
ही नहीं हो रहा था कि बस इतना ही तो करना होता है, खुशी के लिए
आनंद के लिए... वे जीवन भर बस इतना ही तो नहीं कर पाए। जिसके
लिए वह जीवन भर तरसे, उन्हें आज वह सब बिना प्रयास, बिना योजना
के मिला। माँ की मौत के बाद पहली बार अश्विन रोए... माँ का कहा
यहाँ याद आया और बेटी ने माँ के कहे को उनके सामने सच कर
दिया... अश्विन रो रहे हैं, इस बार सारा संचित बहाने के लिए...
खुश हैं, इसलिए रो रहे हैं। |