तीसरा दृश्य-
सन २००६ के दिसंबर महीने की तीन तारीख, राष्ट्रपति भवन के निकट स्थित विज्ञान
भवन के भव्य समारोह केंद्र का दृश्य। एक विशाल सुसज्जित मंच के समक्ष लगभग एक
डेढ़ हज़ार के लगभग दर्शक बैठे हैं। विशेष अतिथियों के लिए विशेष स्थान है।
पत्रकारों के लिए एक ओर भिन्न स्थान है। मैं आगे वाली पंक्ति में अपनी
व्हीलचेयर में बैठा हूँ। आज मुझे भारत के राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम के द्वारा
सम्मानित किया जा रहा है और वे मुझे 'राष्ट्रीय आदर्श' की उपाधि और पारितोषिक
से सम्मानित करने वाले हैं।
मंच पर स्वयं भारत के राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम, कुछ अन्य गणमान्य मंत्रिगणों
के साथ बैठे हैं। मेरी उपलब्धियों के साथ मेरा नाम पुकारा जाता है और मैं अपनी
व्हीलचेयर को चलाकर मंच की ओर बढ़ता हूँ। पूरा भवन तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज
उठता है। व्हीलचेयर से मंच के ऊपर जाने के लिए एक ओर एक ढलान बनाई गई है। एक
उपस्थित सहायक की सहायता से मैं मंच पर पहुँचता हूँ।
जैसे जैसे मैं राष्ट्रपति जी के पास पहुँचता हूँ, तालियों की गड़गड़ाहट बढती
जाती है और जैसे ही राष्ट्रपति जी मुस्कुराते हुए मुझसे हाथ मिलाते हैं तो सब
लोग सम्मान के उपलक्ष्य में ताली बजाते हुए अपने स्थान पर खड़े हो जाते हैं।
राष्ट्रपति महोदय मेरी ओर मुस्कुराते हुए मेरे प्रोत्साहन में कुछ शब्द बोलते
हैं जो तालियों की आवाज़ में साफ़ सुनाई नहीं देते। वे मुझे मेरा पारितोषिक देते
हैं और मैं उनके साथ कैमरे की ओर मुख करता हूँ, इस यादगार पल की फोटो खिंचवाने
के लिए। विभिन्न टीवी चैनल भी इस पल को प्रसारित कर रहे हैं। और मैं उस समय को
याद कर रहा हूँ जब मुझे एक कमज़ोर बालक समझा जाता था। एक ऐसा बालक जो हर चीज़
में पिछड़ता ही रहता था। वो बालक मुझमे अब भी जिंदा है। वह इस पल से प्रसन्न तो
बहुत है, किन्तु वह बहुत शांत भी है।
यह परिवर्तन कैसे आया?
वह कमज़ोर बालक आज एक 'राष्ट्रीय आदर्श' बन गया?
ऐसा कैसे संभव हुआ?
राष्ट्रीय आदर्श कोई एक क्षेत्र में सफल होके तो नहीं बन सकता। उसके लिए तो
बहुत से क्षेत्रों में बहुत परिश्रम करना पड़ा होगा, बहुत धैर्य से काम लेना
पड़ा होगा।
ऐसा कैसे हो गया?
एक कहानी एक दिशा
तब मैं शायद दूसरी कक्षा में था। एक दिन मेरी माँ ने हम दोनों भाइयों को बिठा
हिरण्यकश्यप और भक्त प्रहलाद की कहानी सुनाई। यह कहानी सुनने पढ़ने में बहुत से
लोगों को बहुत साधारण सी कहानी लगे, किन्तु जब मैंनें यह कहानी सुनी तब एक बालक
के रूप में एक ऐसी दिशा की खोज में था जहाँ मुझे स्नेह और प्रोत्साहन मिले। उस
कहानी को सुन मुझे यह ज्ञात हुआ कि यदि आप एक अच्छे व्यक्ति बनो तो लोगों का तो
क्या ईश्वर का भी प्रेम आपको मिलता है।
इस कहानी को सुनने के बाद ही मेरी रुचि एक अच्छा बालक बनने की और हो गई।
एक बालक का मन किसी एक छोटी सी बात से भी अपनी दिशा पा लेता है। अब इस छोटी सी
कहानी से ही मुझे दिशा मिल गई थी। मैंनें ठान लिया था के मैं एक अच्छा बालक
बनके दिखाऊँगा और सबके प्रेम और प्रशंसा का पात्र बनूँगा।
आत्मविश्लेषण एवं परिवर्तन
सन १९८० में, हिमांचल प्रदेश के उस छोटे से कसबे से मेरे पिता का तबादला देश की
राजधानी दिल्ली में हो गया। उस छोटे से स्कूल से निकल मैंने उस समय के देश के
सबसे प्रसिद्ध स्कूलों में से एक में दाखिला ले लिया। यहाँ हर कक्षा में साठ के
ऊपर विद्यार्थी होते थे और खेल कूद और शिक्षा, दोनों में ही स्पर्धा का स्तर
बहुत ऊँचा था। मैं तो पहले ही कमज़ोर था। किन्तु मैंने भी ठान लिया था के मैं भी
एक श्रेष्ठ विद्यार्थी बन के रहूँगा। दूसरों के द्वारा अपने को एक कमज़ोर बालक
समझे जाने से हतोत्साहित होने के बजाय मैंने उसे अपनी प्रेरणा माना और स्वयं को
प्रोत्साहित किया।
'किसी भी परिस्थिति से हम हतोत्साहित भी हो सकते हैं और प्रोत्साहित भी। अब यह
निर्णय हमें लेना है के हम हतोत्साहित होंगे या प्रोत्साहित।'
तीसरी कक्षा में ही एक दिन हमारी शिक्षिका नें हमें दिवाली के त्यौहार पर एक
कविता लिखने को कहा। अन्य छात्रों को यह करना बहुत कठिन लगा और अधिकतम छात्रों
ने या तो अपनें बड़ों से लिखवा लिया या इधर उधर से देख कुछ लिख लिया। मुझे तो यह
बहुत सरल कार्य लगा। मैंने अपने भाव कुछ मेल खाती पंक्तियों के रूप में व्यक्त
कर दिए और कविता बन गई। मेरी शिक्षिका नें कक्षा के सामने मेरी कविता पढ़ी और
प्रशंशा भी की। मुझे बहुत अच्छा लगा। इस से मेरा रुझान कवितायेँ लिखने और लेखन
की ओर हो गया। मैं समय समय पर कवितायेँ लिखता रहता।
मेरा लेख ख़राब था लेकिन कोई भी मुझे यह न बताता के लेख को अच्छा कैसे किया जा
सकता है। मेरे अध्यापक मेरा लेख ख़राब होने के कारण मुझे कई सौ बार कुछ
पंक्तियाँ लिखने की सजा दे देते किन्तु मेरा लेख न सुधरता। फिर मैंने ऐसा किया
के जिन छात्रों के लेख की अध्यापक प्रशंसा किया करते थे, उन छात्रों के लेख को
मैंने गौर से देखा एवं विश्लेषण किया। उस से मुझे अपने लेख की कमियाँ ज्ञात
हुईं। इस प्रकार मैं अपने लेख को सुधार सका।
मुझे गणित में भी बहुत कठिनाई हो रही थी और चौथी कक्षा की प्रथम परीक्षा में तो
मैं फेल ही हो गया। फिर मेरी अध्यापिका नें मुझे अलग से बुला गणित पढ़ाया और
मेरी कमजोरियों को दूर किया। उनकी इस सहायता के कारण अगली परीक्षा में ही मेरे
बहुत अछे अंक आए और कक्षा के छात्रों ने ताली बजा मेरा प्रोत्साहन किया।
चूँकि तब मैं छोटा था और उन अध्यापिका नें मुझे उसी कक्षा में पढ़ाया था और अब
इतना समय हो चुका है के मुझे उन अध्यापिका का नाम बिलकुल याद नहीं है अन्यथा
मैं उनसे अवश्य मिलता और उन्हें अवश्य अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता।
'श्रम, सुधार एवं परिवर्तन का एक मात्र साधन है। यदि आपको सुधार लाना है,
परिवर्तन लाना है, तो उस दिशा में परिश्रम करो।'
जब मैं तीसरी चौथी कक्षा में ही था तब से ही मैंने प्रतिदिन दो-तीन किलोमीटर
दौड़ना प्रारंभ कर दिया। मैं प्रतिदिन सुबह अपने कुत्ते जोय को ले दो-तीन
किलोमीटर दौड़ आता। इस से मेरे कुत्ते की नियमित सैर भी हो जाती और मेरी कुछ
कसरत भी हो जाती। धीरे धीरे मेरी सेहत और दौड़ में सुधार होने लगा। मैं फ़ुटबाल
भी खेलने लगा। मुझे फ़ुटबाल खेलने में बहुत आनंद आता था। गेंद के पीछे दौड़ना,
विरोधी खिलाडियों को छकाना और अपने गोल अथवा लक्ष्य की ओर बढ़ना, सब बहुत अच्छा
लगता था।
फ़ुटबाल को मैं जीवन के समान ही समझता हूँ। फ़ुटबाल में विपक्षी टीम के ग्यारह
खिलाड़ी आपको अपनें लक्ष्य तक पहुँचने से रोकनें का प्रयास करते हैं और आपकी
चुनौती होती है कि आप उन खिलाड़ियों को मात दे लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयास
करें। इसी समान जीवन में आने वाली कठिनाइयाँ हमारे लिए एक चुनौती के समान हैं,
जिन्हें हरा कर हमें अपनें लक्ष्य तक पहुँचना होता है।
फ़ुटबाल में मैं अच्छा खेल पाता था और मुझे आनंद भी बहुत आता था। फ़ुटबाल खेलने
से मेरे अन्दर एक नई ऊर्जा आ जाती थी।
किन्तु मैं क्रिकेट नहीं खेल पाता था। बहुत प्रयास करने के बाद भी मैं गेंद को
बल्ले से नहीं मार पाता था। जब विरोधी गेंदबाज गेंद फेंकता तो मैं घबरा जाता कि
कहीं गेंद छूट न जाए और इसी घबराहट में गेंद मेरे से हमेशा छूट जाती और मैं आउट
हो जाता। पता नहीं मैं क्रिकेट में कभी बेहतर कर पाऊँगा या नहीं।
'भय ही विफलता का मुख्य कारण है। यदि सफल होना है तो निर्भय बनो।'
यह मेरे जीवन का सबसे आवश्यक पाठ था और मैं इस पाठ को हमेशा याद रखना चाहता था। |