मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


आत्मकथा

लेखक, चिंतक, समाज-सेवक और प्रेरक वक्‍ता, नवीन गुलिया की अद्भुत जिजीविषा व अपार साहस से भरपूर आत्मकथा- अंतिम विजय का पहला भाग


दृश्य एक -

१९७६ की सर्दियों का दिन, दोपहर बाद का समय। पूना शहर के खडकी सैन्य हस्पताल का दृश्य। ढाई किलोमीटर की हलकी चढ़ाई की एक सड़क। हस्पताल की एक व्हीलचेयर (पहियों वाली कुर्सी) में बैठा मैं कुछ इधर उधर लुढ़कता सा, पहियों के घेरों में अपने अँगूठे को फँसा, कुर्सी को इस चढ़ाई पर चढाने की कोशिश कर रहा हूँ। एक बार के धकेलने में मात्र एक से दो फुट ही चला पाता हूँ। लगभग आधे घंटे का समय हो चुका है और इतने समय में मैं मात्र सौ मीटर ही आ पाया हूँ। पता नहीं कितना समय और लगे इस चढ़ाई के ऊपर तक पहुँचने में। किन्तु मुझे इसकी अधिक चिंता नहीं है।

पिछले कई माह से प्रतिदिन यही रास्ता तय करते करते मेरे हाथों में छाले पड़ गए हैं, अँगूठे और उँगलियों में गाँठें पड़ गई हैं। बाहों की कुछ काम करती माँस पेशियाँ दर्द करने लगी हैं। लेकिन इन सब से बेखबर सा एक सैनिक की तरह एकटक ध्यान के साथ, बिना कुछ सोचे समझे, पूरी लगन और पुरे श्रम के साथ, अपनी लिखी एक कविता 'कर्मयुद्ध' की पंक्तियाँ दोहराता मैं अपने लक्ष्य की ओर एक एक कदम बढ़ रहा हूँ।

कर्मयुद्ध

राह है कठिन बड़ी परिस्थिति विरुद्ध है
जीवन है यह युद्ध है, यह युद्ध है, यह युद्ध है

राह चलते मिट गई, आस वो तू नहीं
कदम तले जो दब गई, घास वो तू नहीं
समय से पहले बुझ गई, प्यास वो तू नहीं
आँधी में बिछ गई, कपास वो तू नहीं

विराट एक वृक्ष तू, शक्ति से समृद्ध है
जीवन है यह युद्ध है, यह युद्ध है, यह युद्ध है

आँधियाँ चल रही, राह है खल रही
हिम्मत आँखें मल रही, लौ फिर भी जल रही
हार को न मान तू, राह को पहचान तू
सृष्टि का अभिमान तू, है वही इंसान तू

साहस से संकल्प कर, विश्वास तेरा दृढ़ है
जीवन है यह युद्ध है, यह युद्ध है, यह युद्ध है

अपनी यह कविता दोहराता मैं एक सैनिक की तरह अपने लक्ष्य की ओर एक एक कदम बढ़ रहा हूँ।
क्या? एक सैनिक की तरह?
हाँ, एक सैनिक की तरह।
किन्तु सैनिक तो कुर्सी में नहीं होते?
क्या? सैनिक कुर्सी में नहीं होते?


दृश्य दो :-

१९९४ का अप्रैल महीना, कड़कती गर्मी पड़ रही है। राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में सैन्य प्रशिक्षण पा रहे प्रशिक्षणार्थियों का अंतिम प्रशिक्षण शिविर। महाराष्ट्र प्रांत की सहयाद्री पहाड़ियों की श्रंखला में एक टीलेनुमा पहाड़ी के ऊपर हम बारह सहप्रशिक्षणार्थी, सैन्य युद्ध की वर्दी पहने हुए और सैन्य सामान और हथियार से लदे हुए एक साथी को घेर के खड़े हैं जो धूप और गर्मी में चलते रहने के कारण गिरकर बेहोश हो चुका है। उसे जल्दी किसी हस्पताल पहुँचाने की आवश्यकता है, अन्यथा उसकी जान को खतरा हो सकता है। सब साथी, सुबह से बिना खाने और पानी के धूप में चलते रहने के कारण, खुद ही बहुत बुरी थकी हुई हालत में हैं। एक सैनिक अपने सामान और हथियार को किसी हालत में नहीं छोड़ सकता। बेशक जान से हाथ धोना पड़े। अतः हमें अपने सामान को भी नहीं छोड़ना था और हमें अपने बेहोश साथी को भी हस्पताल तक पहुँचाना था।

हमारे कमांडर ने फैसला किया के हम में से पाँच सबसे सेहतमंद लड़के अपने दोस्त को जल्द से जल्द हस्पताल पहुँचाने की कोशिश करेंगे और बाकी वहीँ किसी छाँव में सामान के साथ रुकेंगे। मैं भी उन पाँच में था जिन्हें अपने साथी की मदद करने के लिए चुना गया था। हम अधिक शक्तिशाली अवश्य थे लेकिन हम भी अपनी थकान की सीमा को बहुत पहले पार कर चुके थे। चुनौती कठिन थी। किन्तु यह सामान्य परिस्थिति नहीं थी।

हमें अपने साथी की जान बचानी थी। हम सबको उस साथी को कंधे पर उठा कर बारी बारी से भागना था। जब एक थक जाए तो दूसरे ने उठा लेना था। हमारी सोच के अनुसार इस तरीके को अपना कर हम शीघ्र से शीघ्र अपने साथी को हस्पताल तक पहुंचा सकते थे। हमने पहाड़ियों के बीच से भागना शुरू किया और एक एक कर बारी बारी से अपने साथी को उठा कर हम दौड़ रहे थे। दौड़ते दौड़ते शाम होने को आ गई। हमारे पैर थकान से लडखडाने लगे थे। एक स्थान पर खड़ा रहना भी कठिन प्रतीत हो रहा था। हम अपने मुख्य शिविर के पास पहुँच चुके थे। वहाँ चिकित्सा उपलब्ध थी और हस्पताल ले जाने के लिए एम्बुलेंस गाडी भी उपलब्ध थी। वहाँ पहुँचते पहुँचते हमारा एक साथी और गिर पड़ा था। लेकिन हम पहुँच गए थे और अब दोनों के ठीक हो जाने की पूरी सम्भावना थी।

सैनिक हमेशा एक सैनिक होता है और यह आवश्यक है के हम अपने जीवन में सर्वप्रथम एक सैनिक बनें। क्यूँकि युद्ध सेनापतियों द्वारा नहीं जीते जाते, युद्ध सैनिकों द्वारा जीते जाते हैं। और यदि आप एक अच्छे सैनिक नहीं बन सकते तो आप कभी एक अच्छे सेनापति नहीं बन पाओगे। ऐसा कुछ प्रशिक्षण के समय मैंने सीखा था।

बचपन

मैं नवीन गुलिया, मेरा जन्म १६ जुलाई १९७३ को दिल्ली छावनी के सैन्य हस्पताल में हुआ। माता का नाम निर्मला देवी एवं पिता का नाम नारायण सिंह गुलिया। पिता सेना में अधिकारी थे और माता एक गृहिणी।

मुझे बताया जाता है के मैं बचपन में भारी वजन का एक आलसी सा बालक था जिसने चलना भी बहुत कठिनाई से और परिवारजनों के अथक प्रयासों के बाद सीखा था।

मेरी बचपन की प्रारंभिक स्मृतियाँ बहुत छुटपन की हैं। जब मुझे शायद चलना भी नहीं आता था। और यह एक दो नहीं बल्कि बहुत सी स्मृतियाँ हैं। मैंने अपने माता पिता से समय समय पर यह पूछ के निश्चित भी किया है के यह स्मृतियाँ मेरी कल्पना मात्र नहीं हैं अपितु सत्य हैं।

मुझे अपने बचपन की पहली स्मृतियों से याद है के मैं बाकी बच्चों से सब खेलों में कुछ पिछड़ा ही रहता था। मैं उनसे तेज़ दौड़ने में समर्थ नहीं था, मैं पतंग नहीं उड़ा पाता था, मैं एक कंचे से दुसरे को नहीं मार पाता था, मैं फेंकी हुई गेंद को पकड़ नहीं पाता था और क्रिकेट जैसे खेल में तो बाकी बालक आपस में लड़ते थे कि उनको मुझे अपने दल में नहीं रखना था। यह सब शायद इसलिए था के मैं उम्र में उनसे कम था, कद काठी में भी छोटा था, या शायद मैं बस कमज़ोर ही था। किन्तु यह हर चीज़ में सबसे पिछड़ना मुझे कुछ व्यथित अवश्य करता था। मैं भी बाकी बच्चों के साथ दौड़ में आगे आना चाहता था, अच्छा खेलना चाहता था और प्रशंसा का पात्र बनना चाहता था। किन्तु प्रयत्न करने पर भी मैं उनसे बेहतर नहीं कर पाता था।

एक समय की बात है। शायद मैं पहली या दूसरी कक्षा में था। हिमाचल प्रदेश की एक छोटी सी छावनी योल कैम्प के पास एक छोटे कॉन्वेंट स्कूल में पढता था। हमारे स्कूल का वार्षिकोत्सव समीप था। तय्यारियाँ ज़ोरों पर थी। मेरी कक्षा में से आठ सबसे तेज़ दौड़ने वाले बच्चों को छाँटा जाना था। इन आठ बच्चों को वार्षिकोत्सव के दिन सब दर्शकों के सामने दौड़ने का अवसर प्राप्त होना था। मेरा बहुत मन था के मैं भी उन आठ में चुना जाऊँ। किन्तु जब चयन करने के लिए दौड़ हुई तो मैं पहले आठ तो क्या, अंतिम एक-दो में आया।

किन्तु मेरा मन फिर भी न माना। जिस दिन अंतिम दिन था और दौड़ प्रारंभ होने का समय निकट था तो मैं वहीँ आस पास चक्कर लगा रहा था कि शायद मौका मिल जाए। मेरे सौभाग्य से उन आठ में से एक बालक अनुपस्थित था। किन्तु मैं फिर भी चिंतित था के कहीं ऐसे ही घुस जाऊँ तो पकड़ा न जाऊँ। मैं आस पास चक्कर लगा ही रहा था के एक अध्यापक ने मुझे पकड़ कर रिक्त स्थान भरने के लिए उन आठ में खड़ा कर दिया।

हमें पंक्तिबद्ध कर मैदान के एक छोर पर ले जाया गया जहाँ दौड़ प्रारम्भ होने की रेखा बनी थी। मैदान के बगल सिलसिलेवार लगे बहुरंगे शामियानों में कुर्सियों पर दर्शक बैठे थे। दौड़ शुरू होने की सीटी बजाई गई और मैं बहुत तेज़ दौड़ पड़ा। किन्तु कुछ ही पल में सब बालक आगे निकल गए और मैं सबसे बहुत पीछे रह गया। जब मैंने सबसे इतना पीछे दौड़ ख़तम की तो दर्शक मुझे देख ठहाके लगा रहे थे।

सत्य की परीक्षा

पहली या दूसरी कक्षा की ही बात है। एक दिन कुछ बच्चे कुछ शैतानी कर रहे थे। मैं उन बच्चों में नहीं था। बात हमारी अध्यापिका तक पहुँची तो उन्होंने कक्षा में उन बच्चों को आगे आने को कहा। सजा के डर से कोई बच्चा आगे नहीं आया। इस पर अध्यापिका नें बाकी बच्चों से उन बच्चों का नाम लेने को कहा। कक्षा के बच्चे एक एक बच्चे का नाम लेने लगे। जिस बच्चे का नाम लिया जाता उसे कक्षा के सामने आकर अपनी हथेलियों पर एक एक डंडा खाना पड़ता और वो अपने हाथ मसलता पहले सजा मिल चुके बच्चों के साथ खड़ा हो जाता। जब सब ऊधमी बच्चों को सजा मिल चुकी थी तो अध्यापिका ने कक्षा से पूछा
"क्या कोई और बच्चा भी था?"
पता नहीं एक बच्चे के मन में क्या आया और वो जोर से बोला
"नवीन भी था"
मेरे तो होश से उड़ गए और मैं अध्यापिका की ओर मुख कर बोलने ही वाला था कि मैंने नहीं किया किन्तु मैं कुछ कह पाता इस से पहले ही मेरी अध्यापिका नें बड़ी बड़ी आँखें कर सर हिला कर 'नहीं' का इशारा किया। अर्थात मैं असत्य न बोलूँ। मैं कुछ सहम गया और चुप चाप सजा पाने आगे आ गया। इसमें अध्यापिका की गलती नहीं थी किन्तु यह घटना मेरी यादों में कहीं छप सी गई है।

मैं मात्र खेल कूद में ही पीछे नहीं था बल्कि मेरा लेख भी ख़राब था और मेरे परीक्षा में अंक भी कुछ अच्छे नहीं आते थे। मैं सबसे पिछड़ सा रहा था, किन्तु मैं भी चाहता था के मैं भी अच्छा कर सकूँ और प्रशंसा का पात्र बन सकूँ। मेरे बचपन की कुछ प्रारम्भिक स्मृतियों और उन स्मृतियों से जुड़े भावों को लेकर मैंने एक कविता लिखी। उस कविता को नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ।

मेरा बचपन

मेरा बचपन
आशाओं और उम्मीदों का बचपन
रेत में उँगलियों के चलनें से बनता बिखरता वो बचपन
कभी सकुचाता, कभी उगते सूरज सा उभरता वो बचपन
अकेले में खिलखिलाता कभी, कभी भीड़ में खो जाता वो बचपन
कभी गगन में पंछी सा उड़ता, कभी सागर में सीप सी उम्मीदों को निभाता वो बचपन
कभी बहुत दूर दूर, कभी बहुत समीप सा बचपन
नन्हे क़दमों पर डगमगाता सा अजीब सा बचपन
आशाओं और उम्मीदों का बचपन
मेरा बचपन
आशाओं और उम्मीदों का बचपन
चाह कर भी चाह को छिपाता वो बचपन
संकोच में शर्मा कर कुछ कह जाता वो बचपन
रेत में बैठ कंकड़ पत्थरों के खेल सजाता वो बचपन
धीरे धीरे का, एक एक सीढ़ी चढ़कर आता वो बचपन
चुप सा इधर उधर देखता, कभी गाता गुनगुनाता वो बचपन
कभी थोडा निडर, कभी सहम जाता वो बचपन
थोडा सा मिलता, फिर खो जाता वो बचपन
आशाओं और उम्मीदों का बचपन
मेरा बचपन

क्या मैं हमेशा एक कमज़ोर बालक ही रहूँगा?

क्या खेल कूद में, पढ़ाई में या जीवन में मैं कभी अच्छा कर पाऊँगा? इन सब प्रश्नों के उत्तर तो एक दिन समय ही दे पाएगा।

पृष्ठ- . .

आगे-

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।