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ग्यारहवाँ भाग

अंतिम विजय - एक खोज

सन २००२ की जुलाई माह में यह सफ़र तय कर मैंने अपना कार्य आगे बढाया। मैंने कुछ व्यक्तिगत उपलब्धियाँ हासिल की थीं और कुछ मैं करना चाहता था, लेकिन मेरा उद्देश्य मात्र मेरी व्यक्तिगत उपलब्धियों तक सीमित नहीं था। मैंने जीवन में इतने कष्ट उठाए थे। जो कठिनाइयाँ मेरे जीवन में आई उन्हें मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ। यह कठिनाइयाँ मुझे ईश्वर द्वारा दिया गया एक अवसर था जिसमें मैं एक सफल और सकारात्मक जीवन जी कर सबके सामने एक उदाहरण बन सकता था। जब नवीन इतने कष्ट उठाते हुए भी जीवन का पूर्ण आनंद ले सकता है और जीवन को सकारात्मक रूप से जी सकता है तो अवश्य बाकी लोग भी ऐसा कर सकते है।

'जीवन में कठिनाइयों और चुनौतियों को अपना सौभाग्य समझो। कठिनाइयाँ और चुनौतियाँ तुम्हारे लिए स्वयं की योग्यता को प्रमाणित करने का अवसर होती हैं।'

मैं समाज में एक सकारात्मक योगदान देना चाहता था। मैंने बचपन से अपने नाना जी को समाज सुधार और ग्राम सुधार के लिए काम करते देखा था। मेरा यह विश्वास था के मैं एक दिन समाज के लिए एक सकारात्मक योगदान कर पाऊँगा।

मेरा यह विश्वास था के अगर समाज में कुछ सकारात्मक परिवर्तन लाना है तो यह परिवर्तन आने वाली पीढ़ी ही ला सकती है। अतः मेरी इच्छा थी कि मैं बच्चों और विद्यार्थियों को प्रेरित करने के लिए कार्य करूँ।

जीवन में इतनी बड़ी चोट लगने के बाद और लगभग सम्पूर्ण विकलांगता के बाद भी मैं जीवन में वापस आया था और मैंने शिक्षा और साहसिक खेलों के क्षेत्र में उपलब्धियाँ प्राप्त की थीं। मुझे बहुत से विद्यालयों में एक प्रेरणात्मक वक्ता के रूप में बुलाया जाने लगा। मैं स्वयं भी गाँव के छोटे विद्यालयों में जाता और बच्चों को पढाता। धीरे धीरे मेरा कार्य जाना जाने लगा और कुछ समाचार पत्रों ने मेरी कहानी पर लेख लिखे। कुछ टीवी समाचार चैंनलों नें भी मेरा साक्षात्कार प्रसारित किया।

मैंने अपने जीवन में एक सिद्धांत सीखा और अपनाया है, जिसे मैं 'असीमित योग्यता' का सिद्धांत कहता हूँ। मेरा मानना है कि हममें असीमित योग्यता होती है। हमारी योग्यता की कमी हमें कुछ करने से नहीं रोक सकती। हमारी मानसिकता हमें रोक सकती है। यदि हम यह सोचते हैं कि हम किसी कार्य को नहीं कर पाएँगे तो अवश्य ही हम विफल होंगे और यदि हमें विश्वास है कि हम किसी कार्य को करने में समर्थ हैं तो हम अवश्य सफल होंगे।


मुझे चोट लगे आठ वर्ष हो चुके थे। अब समय आ गया था के मैं कुछ बड़ा लक्ष्य हासिल करूँ जो मात्र मेरी व्यक्तिगत उपलब्धि न हो और जिस से मेरा असीमित योग्यता का सिद्धांत भी प्रमाणित हो और मेरे समाज सेवा के कार्य को आगे बढाने में भी सहायता मिले। मैं अपने समक्ष एक असंभव लक्ष्य रखना चाहता था। मैंने सोचा कि मैं नई दिल्ली से लेकर दुनिया के सबसे ऊँचे पहाड़ी दर्रे 'खर्दुंग ला' तक बिना रुके गाड़ी चलाऊँगा। यह लक्ष्य किसी को भी असम्भव लगेगा ऐसा मुझे पता था। लेकिन मुझे विश्वास था के मैं इसे पा सकता हूँ और इसके द्वारा अपने असीमित योग्यता के सिद्धांत को प्रमाणित कर सकता हूँ।

इस लक्ष्य को पाने के लिए मुझे एक नई गाड़ी की आवश्यकता होगी। मेरी पुरानी गाड़ी तो बहुत खराब हो चुकी थी और अब शहर में चलाने लायक हालत में भी नहीं थी। किन्तु अब बिना गेयर की गाड़ी उचित नहीं थी। एक तो उस कंपनी ने बिना गेयर की गाड़ी बनाना बंद कर दिया था और बाकी बिना गेयर की गाड़ियाँ बहुत महँगी थीं। दूसरे, बिना गेयर की गाड़ी उन ऊँचे पहाड़ी दर्रों पे चढ़ने के लिए उचित नहीं थी।

मेरे जैसी चोट वाले व्यक्ति के लिए गेयर की गाड़ी चलाना असम्भव था। गेयर वाली गाड़ी में क्लच, ब्रेक, स्पीड, गेयर और स्टीयरिंग के पाँच यन्त्र मुझे सँभालने थे और इन पाँच यंत्रों के सम्भालने के लिए मेरे पास कुल दो हाथ थे। सामान्य व्यक्ति तो अपने हाथ और पैरों का प्रयोग कर गाड़ी चला सकता है लेकिन मेरे लिए तो यह असम्भव था। भारत तो क्या अमरीका में भी ऐसा कोई यन्त्र उपलब्ध नहीं था जिसकी सहायता से मेरे जितनी चोट वाला व्यक्ति गेयर वाली गाड़ी चला सके।किन्तु यदि मुझे आगे बढ़ना था तो मेरे पास और कोई विकल्प नहीं था। मुझे किसी तरह गेयर वाली गाड़ी ही चलानी थी।

'मैं कैसे कर पाउँगा यह मुझे नहीं पता था किन्तु मैं अवश्य कर पाउँगा ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास था'

मैंनें एक गेयर वाली गाड़ी खरीद ली। मुझे विश्वास था के जब मैं कार्य करने लगूँगा तो कुछ न कुछ तरीका निकल ही आएगा। छः महीनों के अथक प्रयास के बाद मैं ऐसा यन्त्र तैयार कर सका जिस से मैं गेयर वाली गाड़ी को चला सकूँ। शुरू में यह कठिन अवश्य था लेकिन मुझे विश्वास था कि आने वाले समय में मैं इसमें सुधार कर इसे और बेहतर बना पाउँगा। मैंने गेयर वाली गाड़ी चलाने का अभ्यास शुरू कर दिया।

असम्भव से भी असम्भव अभियान

मेरी इच्छा थी कि मैं कोई इतना असम्भव दिखने वाला साहसिक अभियान सफलतापूर्वक करूँ जिस से मैं अपने 'असीमित योग्यता' के सिद्धांत को प्रमाणित कर सकूँ और उस अभियान की सफलता के द्वारा मैं बच्चों के लिए सामाजिक कार्य के लिए समर्थन भी जुटा सकूँ।

मैंने निर्णय लिया के मैं नई दिल्ली से लेकर दुनिया के सबसे ऊँचे पहाड़ी दर्रे 'खर्दुंग ला' तक बिना रुके, कम से कम समय में गाड़ी पहुँचाऊँगा। यह एक विश्व कीर्तिमान होगा। ऐसा कर पाना हर किसी व्यक्ति को असम्भव ही ज्ञात होगा। लेकिन मुझे पूर्ण विश्वास था के मैं ऐसा सफलता पूर्वक कर सकता हूँ। मैंनें जब राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय रिकार्ड रखने वाली संस्था 'लिम्का बुक आफ रिकार्ड्स' से सम्पर्क किया तो उन्होंने मुझसे कहा के यदि मैं अपने कीर्तिमान बनाने में दुनिया के सबसे ऊँचे पहाड़ी दर्रे का नाम लाना चाहता हूँ तो मुझे खर्दुंग ला से भी ऊँचे पहाड़ी दर्रे मार्सिमिक ला तक जाना पड़ेगा।

जब मैंने १८६३२ फुट ऊँचे मार्सिमिक दर्रे के बारे में जानने का प्रयास किया तो मुझे पता चला के यह पहाड़ी दर्रा खर्दुंग से सौ गुना दुर्गम एवं कठिन है। बहुत से साहसिक खिलाड़ी जब बड़ी बड़ी गाड़ियों को ले जाकर वहाँ लेह में तैयारी के बाद इस पहाड़ी दर्रे को चढ़ने का प्रयास करते हैं तो भी चढ़ नहीं पाते। क्योंकि इस पहाड़ी दर्रे पर सड़क ही नहीं है और कच्चे रास्तों व बिना रास्तों के ही गाड़ी को चढ़ाना पड़ता है। यह पहाड़ी दर्रा विश्व के सबसे दुर्गम पहाड़ी दर्रे के रूप में विख्यात था। मार्सिमिक का तिब्बती भाषा में अर्थ होता है "मौत का व्यूह"।

मुझको इस पहाड़ी दर्रे तक दिल्ली से बिना रुके जाना था। यह तो मेरे लिए भी असम्भव लक्ष्य हो गया था। मेरे पास तो एक छोटी गाड़ी थी। उसको ले मैं ऐसे कठिन सफ़र को कैसे तय करूँगा। लेकिन मेरे पास यही अवसर था। मैं इस अवसर को जाने नहीं दे सकता था। मैंनें लिम्का बुक आफ रिकार्ड्स के कार्यालय में फ़ोन कर सूचित किया के मैं इस सफ़र को तय करूँगा और ऐसा विश्व कीर्तिमान बनाऊँगा जिसे कोई कभी तोड़ न सके। मैंने इसी विश्वास पे चलने का निर्णय लिया था के मैं कुछ न कुछ तरीका निकाल ही लूँगा।

मैंने कुछ टीवी चैनलों को सम्पर्क किया और मुझे कुछ से यह आश्वासन भी मिल गया के यदि मैं ऐसा अभियान करता हूँ तो वे इस अभियान को अवश्य टीवी पर दिखाएँगे।

उनसे यह आश्वासन मिलने के बाद मेरे लिए विभिन्न गाड़ी निर्माता कंपनियों को संपर्क करना आसान हो गया। क्योंकि मेरी साहसिक यात्रा विभिन्न टीवी चैनल पर दिखाई जाने वाली थी अतः इस बात की अच्छी संभावना थी के कोई गाड़ी निर्माता कंपनी अपने प्रचार हेतु मुझको अपनी गाड़ी उपलब्ध करवा दे। एक मज़बूत से मज़बूत गाड़ी मेरे साहसिक अभियान की सफलता के लिए आवश्यक थी।

मैंने अपनी साहसिक यात्रा की इन्टरनेट पे वेबसाईट बनाई और रिपोर्ट तैयार कर कई कंपनियों को भेजी। मैं सुबह से लेकर रात तक रिपोर्ट बनाने और भेजने में व्यस्त रहता। अंततः मेरी मेहनत रंग लाई। हमारे देश की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक 'टाटा मोटर्स', अपनी गाड़ी टाटा सफारी मुझे उपलब्ध कराने को तैयार हो गए। और भी कुछ कम्पनियाँ पेट्रोल और बाकी खर्चे उठाने के लिए तैयार हो गईं। अब मेरा मिशन जोर पकड़ने लगा। देश विदेश में मेरे मिशन के चर्चे होने लगे। लोग यह अनुमान लगाते के क्या नवीन ऐसा असंभव मिशन कर पाएगा।

मेरे इस विश्वकीर्तिमान स्थापित करने वाले मिशन के चर्चे विभिन्न समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में होने लगे। यह देख बहुत से लोग मेरे मिशन से जुड़ना चाहते थे और मेरे साथ जाना भी चाहते थे, लेकिन मेरा विश्वास अपनें पुराने साथियों, अंकुश और केशव पर ही था। हम तीनों नें मिलकर इस मिशन की तैयारी शुरू कर दी। अच्छी तैयारी ही मिशन की सफलता को सुनिश्चित कर सकती थी।

यह एक असंभव मिशन था और इसमें मेरी योग्यताओं की हर तरह से परीक्षा होने वाली थी। इस मिशन के सफल होने की बहुत ही कम सम्भावना थी किन्तु मैं बिना परवाह किये अपने मिशन की तैयारी में लगा हुआ था। मेरे लिए यही वो अवसर था जब मैं अपने सिद्धांत और अपनी योग्यता को प्रमाणित कर सकता था और अपने भविष्य के सामाजिक कल्याण हेतु कार्य के लिए समर्थन जुटा सकता था। अतः मैं बिना किसी हिचक के अपने कार्य में लगा हुआ था।

इस असंभव मिशन में आने वाली चुनौतियाँ कुछ ऐसे थीं -

  • १. यह दुनिया का सबसे दुर्गम माना जाने वाला रास्ता था। बर्फ और पानी से भरे इस टूटे फूटे रास्ते में गाड़ी में कभी भी कोई समस्या आ सकती थी और ऐसा होने से हमारा मिशन खतरे में पड़ सकता था। इन दुर्गम रास्तों पर दुर्घटना होनें की संभावना भी अधिक थी।
     

  • २. बर्फ़बारी और भूस्खलन के इस रास्ते में बर्फ गिरने या पहाड़ी के सरकने अथवा धसने से रास्ते अक्सर बंद हो जाते हैं और फिर महीनों तक बंद रह सकते हैं।
     

  • ३. दिल्ली में शून्य से चालीस डिग्री ऊपर तापमान से मर्सिमिक में शून्य से चालीस डिग्री नीचे तापमान तक जाने में किसी की भी सेहत कभी भी बिगड़ सकती थी। छोटी सी लापरवाही जानलेवा हो सकती थी। इस रास्ते का सफ़र तय करते हज़ारों लोग अपनी जान गँवा चुके थे।
     

  • ४. जहाँ पहाड़ों की ऊँचाइयाँ १५००० फुट से ऊँची होती हैं वहाँ हवा का दबाव कम होता है और साँस लेने के लिए आक्सीजन भी कम होती है। कम समय में अधिक ऊँचाइयों तक जाने में सर दर्द, चक्कर, उलटी, नाक से खून बहना और फेफड़ों में पानी घुस जाने जैसी स्वस्थ्य समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं और यह जानलेवा हो सकती हैं। हमें तो बिना रुके १८६३२ फुट की ऊँचाई तक जाना था।
     

  • ५. मुझे दो दिन और दो रात तक दुनिया के कठिनतम रास्तों पर बिना रुके गाड़ी चलाकर वहाँ तक पहुँचना था जहाँ पहुँचने के लिए अन्य लोगों को दस दिन का समय लगा था और सिर्फ दो चार गिने चुने लोग ही वहाँ जा पाए थे। क्या मैं ऐसा असंभव कार्य कर पाऊँगा?
     

  • ६. मर्सिमिक की १८६३२ फुट की ऊँचाई तक पहुँचने से पहले मुझे दुनिया के सात सबसे ऊँचे पहाड़ी दर्रों को बिना रुके पार करना था।

पृष्ठ- . . . . . .. . . १०. ११.

२० अक्तूबर २०१४                               क्रमशः

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