इस गहन चिकित्सा कक्ष में एकदम सन्नाटा सा रहता था। रौशनी धीमी
थी। मुझे कुछ चिकित्सा कर्मियों से बात कर और कुछ अपने परिजनों से, जो मेरे से
मिलने आते रहते थे, बात कर यह ज्ञात हुआ के इस कक्ष में जो मरीज़ थे वे इतनें
गंभीर मरीज़ थे कि उनमें से कोई भी बोलने वाली अवस्था में नहीं था। मेरे वहाँ
रहते कोई मरीज़ ठीक होकर उस वार्ड से नहीं गया। वहाँ से मृत होकर ही मरीज़ गए।
कभी कभी ऐसा भी होता कि मैं किसी चिकित्सा कर्मी से पीने का पानी माँगता तो
मुझे बताया जाता कि मुझे कुछ समय प्रतीक्षा करनी पड़ेगी क्योंकि किसी मरीज़ की
मृत्यु हो गई है और वे उसके शरीर को पैक कर रहे हैं। इस गहन चिकित्सा वार्ड में
रह मैने अपने आस पास जीवन और मृत्यु को रोज़ करीब से देखा। मैं फिर भी शांत ही
था। मैं इस समय को एक तपस्या के रूप में ही ले रहा था।
इस कक्ष में रह कर समय काटना बड़ा दूभर था। नींद आती ही नहीं थी। मैंने सोचा कि
अब ऐसी चोट के बाद मेरे फिर दौड़ सकने की सम्भावना तो थी नहीं तो क्यों न मैं
अपने दिमाग पर काम करूँ। इस से मेरा दिमाग भी तेज़ होगा और समय भी कटेगा।
इस कक्ष में लगी कोई मशीन रह रह कर नियमित अन्तराल पर टूँ-टूँ की आवाज़ कर रही
थी। मैंने उस आवाज़ को गिनना शुरू कर दिया। मैं इस आवाज़ को सोलह सौ तक गिनता
और फिर उलटी गिनती करता शून्य तक आ जाता। एक बार ऐसा करने में दो घंटे का समय
निकल जाता। फिर जब मैं ऐसा करने से ऊब गया तो मैंने अपने मन में गणित की
संख्याओं को गुना और भाग करना शुरू कर दिया। मैं बड़ी बड़ी संख्याओं को आसानी
से गुना भाग कर लेता।
जब उस से भी मन भर गया तो मैंने शतरंज का एक खाली बोर्ड अपने बिस्तर के ऊपर
लटकवा दिया। इस खाली बोर्ड पर मैं शतरंज की चालें सोचता रहता। मैं बहुत समय
ध्यान में भी लगाता। मेरे जीवन का यह कठिन समय एक तपस्या के समान था। जिस से
मैं बहुत कुछ सीख रह था। अध्यात्म और दर्शन में मेरी सदैव रुचि रही थी और इस
कठिन तपस्या के समय में मैं अपनी सोच और समझ को एक नए आयाम और एक नए स्तर तक ले
जा सका था।
कष्ट ही जीवन का सार है। मैं अपने जीवन के अत्यंत कष्ट के समय को अपना
दुर्भाग्य नहीं सौभाग्य समझता हूँ। जीवन में हम जो भी सीखते हैं, समझते हैं और
कर गुज़रते हैं वो कष्ट और तप के समय में ही होता है। आराम के समय में तो हम
मात्र समय काटते हैं। कष्ट का समय हमें स्वयं को साबित करने का अवसर प्रदान
करता है। यदि अभिमन्यु को एक दिन के लिए लड़ाई बचाने का कार्य नहीं दिया जाता तो
उसके जीवन का उद्देश्य ही क्या था? यदि भीष्म पितामह भीष्म प्रतिज्ञा नहीं लेते
तो उनको भीष्म कौन कहता।
"जीवन में हमारा कष्ट और चुनौती का समय ही हमारा धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र है।
ऐसे समय को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखना चाहिए। यह कष्ट और चुनौती का समय
हमारे लिए शिक्षा और परीक्षा, दोनों का समय होता है। हमारा कर्तव्य है के हम
कठिन समय में स्वयं को और स्वयं की योग्यताओं को साबित करें।"
कोई एक महीने बाद मुझे इस वार्ड से निकाल एक शल्यचिकित्सा वार्ड में रख दिया
गया। मैं उस गहन चिकित्सा वार्ड से जीवित निकल आया था। लेकिन मेरी हालत वैसी ही
थी। मेरे सर में वो सरियह अब भी लगे हुए थे। मैं हिल नहीं पाता था और मुझे तेज़
बुखार या कंपकंपी होती रहती थी।
फिर एक दिन मेरे हाथ कुछ हिलने लगे और हाथों के कुछ हिस्सों में आभास होने लगा।
लेकिन मेरे हाथ की मॉस पशियाँ इतनी कमज़ोर हो चुकी थी के मैं उन्हें अपने स्थान
में मात्र थोडा सा हिला डुला ही पाता था। इससे अधिक करने में मैं असमर्थ था।
फिर एक दिन तकरीबन एक घंटे का समय लगा मैं अपने हाथ को धीरे धीरे लुढ़काता
घसीटता अपनी नाक तक लाया और मैंने अपनि नाक को खुजाया।
समय ने मुझे ऐसे स्थान पर ला खड़ा किया था कि जहाँ मैं ऐसी लाचार परिस्थिति में
था। इतना असहाय तो मैं अपने जन्म के समय भी नहीं रहा हूँगा। इस से बड़ी चुनौती
किसी के लिए क्या हो सकती है। लेकिन मुझमें अंश मात्र शंका भी नहीं थी। मैं
जीवन में न सिर्फ वापस आऊँगा अपितु पहले से श्रेष्ठ उपलब्धियाँ प्राप्त करूँगा,
ऐसा मेरा विश्वास था।
'हमारा स्वयं में विश्वास ही हमारी शक्ति है। स्वयं में अपने विश्वास को कभी कम
न होनें दें।'
ईश्वर ने मेरे हाथों में शक्ति लौटा मुझे एक अवसर दिया था कि मैं अपने जीवन का
पुनः निर्माण कर सकूँ और मैं इस अवसर को छोड़ने वाला नहीं था।
अपने जीवन को फिर बनाने का मेरा संघर्ष
इस विकट परिस्थिति से मैंने अपना संघर्ष प्रारंभ किया। यह न सिर्फ मेरी परीक्षा
थी अपितु उन सब सिधान्तों और विचारधाराओं की भी परीक्षा थी जिनको मैंने अपने
जीवन में अपनाया था और जिनपर मैं विश्वास करता था।
मेरी कविता 'वीर' को मैं यहाँ पुनः दोहराना चाहूँगा।
'वीर'
न करे विचलित, मुश्किल न जिसको झुकाए
हार जिस से हार गई सोचे बहुत उपाय
वीर उसको जानिये, जो हर संकट हर जाए
विवेक को अपनी शक्ति बना, संयम को कर प्रबल
विकट स्थिति में रह अपनें उसूलों पर तू अडिग अचल
जो डगमगा गया अपनी कर्मभूमि पर, वो इंसान ही क्या कहलाएगा
जो चलता रहेगा तूफानों में, अपनी मंजिल को वो ही तो पाएगा
संकट जिसकी शक्ति बने, आँधी न जिसको हिलाए
हार जिस से हार गई सोचे बहुत उपाय
वीर उसको जानिये, जो हर संकट हर जाए
जज्बा, जोश, जूनून, जतन, यह जो तेरी पहचान है
वो इंसान क्या, जिसे अपने होने पर नहीं अभिमान है
चार दिन आगे चार दिन पीछे, हर कोई मिटटी में मिल जाएगा
चार दिन में जो कर गया कुछ वो ही तो महान कहलाएगा
न करे विचलित, मुश्किल न जिसको झुकाए
संकट जिसकी शक्ति बने, आँधी न जिसको हिलाए
हार जिस से हार गई सोचे बहुत उपाय
वीर उसको जानिये, जो हर संकट हर जाए
वीर उसको जानिये, जो हर संकट हर जाए
मैंने अपने हाथों को हिलाना डुलाना शुरू किया। पहले पहल मैं अपने हाथों को मोड़
तो पाता था किन्तु सीधा नहीं कर पाता था क्योंकि मेरे हाथों की हाथ मोड़ने वाली
पेशियाँ तो काम करती थी लेकिन हाथ सीधा करने वाली पेशियाँ काम नहीं करती थी।
धीरे धीरे मैंने झटके से हाथ सीधा करना सीख लिया। अब मैं अपने जीवन को वापस
पाने के संघर्ष के लिए पूर्णतय तैयार था।
२८ जून १९९५ की एक शाम मुझे एक सैन्य वायु यान द्वारा पूना शहर के सैन्य
हस्पताल में पहुँचाया गया। जब मुझे इस हस्पताल में एक स्ट्रेचर में लाया गया तो
शाम का समय था और बारिश हो रही थी। संयोगवश इस से ठीक चार साल पहले इसी तारीख
को तकरीबन इसी समय और ऐसे ही मौसम में मैं इस शहर में राष्ट्रीय रक्षा अकादमी
पहुँचा था। आज मैं यहाँ भिन्न परिस्थितियों में आया था, अपने जीवन का युद्ध
लड़ने के लिए।
दुनिया भी शायद मेरे वापिस आने की उम्मीद छोड़ चुकी थी। किसीको यह उम्मीद नहीं
थी कि मैं वापिस जीवन में आकर कुछ कर पाऊँगा। लेकिन मेरा विश्वास अडिग था। अपने
परिश्रम और अपने विश्वास के दम पर मैं अवश्य जीवन में वापिस आऊँगा।
मेरे यहाँ पहुँचने पर मेरे सिर में से वो सरिये नुमा यंत्र को आखिरकार निकाल
दिया गया। मैंने अपने हाथों से व्यायाम करना प्रारंभ कर दिया। पहले पहल मैं
मात्र एक तकिये को उठा पाता था। फिर एक रेत से भरी थैली को उठाना प्रारंभ किया
और धीरे धीरे कर मैं फिर वजन उठाने लगा। लेकिन यह सब व्यायाम मैं लेटकर ही करता
था।
हस्पताल में बिस्तर पर लेटे-लेटे भी मैने कई कवितायेँ लिखीं, जिन्हें मैं बोल
कर लिखवाता था। जीवन के विभिन्न रंगों को दर्शाती मेरी कविता 'ज़रा सा जीवन'
यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
ज़रा सा जीवन
घिरता हुआ गम जीवन है, बिखरती हुए ख़ुशी भी जीवन है
गिरते हुए आँसू जीवन हैं, फूटती हुई हँसी भी जीवन है
इस जीवन में बस एक ज़रा सा जीवन है
मूसलाधार बारिश है, भयंकर आँधी है तूफ़ान है
कड़कती धुप है, गहरी छाँव है
सन्नाटे की रात है, महकता चहकता सा दिन है
भीनी सी खुशबु है, भटकती खोजती सी पवन है
इस जीवन में बस एक ज़रा सा जीवन है
चुभता सा धुँआ है, सुहाते से बादल हैं
बाट देखता बगुला है, दौड़ता हुआ हिरन है
सुखे हरे तन्हा घिरे से पेड़ हैं, हिलते हुए रुके हुए पत्ते हैं
ठंडी बर्फ सी चुभन है, जलती आग सी अगन है
इस जीवन में बस एक ज़रा सा जीवन है
उठती हुई लहरें हैं, घूमता समेटता हुआ भंवर है ,
गिरता बहता रुकता चलता पानी है
कभी शांत तो कभी पुकारते से पर्वत हैं
खुली सी हँसी है, दबी सी सिरहन है
इस जीवन में बस एक ज़रा सा जीवन है
फिर एक दिन मुझे वापिस बिठाने का प्रयास प्रारंभ हुआ। चार महीने लेटी हुई
अवस्था में रहने से मेरा शरीर बैठ पाने में असमर्थ हो गया था। थोडा बहुत भी
बैठने वाली अवस्था में आने से मेरे सर से खून बह जाता और मुझे चक्कर आ जाते।
बहुत दिनों के प्रयासों के बाद मैं बैठ सकने में समर्थ हुआ और डॉक्टरों ने फिर
कहा कि शायद यह एक दिन अपनी व्हीलचेयर(पहियों वाली कुर्सी) खुद चला पाएगा।
लेकिन मुझे यह विश्वास था कि मैं अपनी व्हीलचेयर तो अवश्य चला ही पाऊँगा लेकिन
और भी मैं बहुत कुछ कर पाऊँगा।
'आपकी योग्यता को आपको स्वयं परिभाषित करना है'
आप क्या कर सकते हैं और क्या नहीं कर सकते, यह निर्णय आपको लेना होता है। और
मैं अपना निर्णय ले चुका था।
मेरा शरीर अपना संतुलन बनाए रखने में असमर्थ था और किसी भी तरफ को लुढ़क जाता
था क्यूँकि मेरे शरीर की मॉस पेशियाँ काम नहीं कर रही थीं। अतः मुझे एक पेटी
(बेल्ट) से कुर्सी के साथ बाँध दिया जाता। अपने हाथों की उँगलियों और अँगूठे को
व्हीलचेयर के पहियों में फँसा मैंने पहले दिन से ही अपनी कुर्सी को चलाना शुरू
कर दिया। हालाँकि पहले दिन तो मैं मात्र कुछ गज तक ही अपनी कुर्सी को ले जा सका
और ऐसा करने में मुझे एक घंटे का समय लग गया।
प्रारंभ में तो मैं मात्र एक या दो घंटे ही कुर्सी में बैठ पाता। लेकिन इस समय
में मैं बाहर जा दुनिया को देखता। पेड़, पत्ते, पक्षी, आकाश सब देखे महीनों
गुज़र गए थे। जब मैंने चार महीने बाद आसमान देखा तो मेरी आँखें रौशनी से
चौंधिया कर बंद हो रही थीं जब कि उस समय आसमान बादलों से ढँका हुआ था।
अपने बैठने वाले समय में मैं बाकी मरीजों से जा के मिलता जो अब तक चलने वाली
स्थिति में नहीं थे या मेरे बाद आए थे। मैं उनकी भी हिम्मत बँधाता। पिछले चार
माह में भी मैं हँसमुख रहा था। मैं चिकित्सा कर्मियों से हँसी मज़ाक की बातें
करता। बाकी मरीजों से भी भेंट करता। मैं हमेशा इतना हँसमुख और सकारात्मक रहता
कि डॉक्टर मेरा उदाहरण बाकी मरीजों को भी देते और जब कोई मरीज़ अपनी चोट या
बीमारी के कारण दुखी और परेशान होता तो डॉक्टर मुझे बुलवा भेजते और कहते कि मैं
उस मरीज़ से जाके मिलूँ जो उदास था और उसकी हिम्मत बढ़ाऊँ।
क्यूँकि मैं इतना हँसमुख और सकारात्मक रहता था तो मुझे कोई विशेष प्रयास नहीं
करना पड़ता था। मुझे देख अन्य लोग ऐसे ही प्रोत्साहित हो जाते। उन्हें लगता कि
जब नवीन इतनी बड़ी चोट लगने और नुकसान होने के बाद भी इतना प्रसन्न और
सकारात्मक हो सकता है तो हम लोग क्यों नहीं हो सकते।
'जीवन में प्रेरणा, प्रसन्नता और सकारात्मकता फ़ैलाने के लिए हमें कुछ विशेष
नहीं करना होता। हमें बस खुद प्रसन्न और हँसमुख रहना होता है। इस से खुद ही
चारों ओरे सकारात्मकता फैलती है।' |