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पाँचवाँ भाग

भारतीय सैन्य अकादमी
(सन १९९४-९५)

१९९४ के जुलाई महीने में राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में अपने प्रशिक्षण तो सफल्तापूर्वत समाप्त कर मैंने भारतीय सैन्य अकादमी में प्रवेश लिया जो उत्तराखंड प्रांत की राजधानी देहरादून में स्थित थी। यहाँ मुझे एक वर्ष के गहन सैन्य प्रशिक्षण से गुज़रना था। अपने पिछले तीन साल के प्रशिक्षण से पक कर हम इतने मज़बूत हो चुके थे के हमें यह एक वर्ष का प्रशिक्षण तो औपचारिकता मात्र ही लग रहा था। लेकिन यह सोचने में हम कुछ गलत थे। इस प्रशिक्षण के प्रशिक्षण शिविर पहले से भी बहुत कठिन होने वाले थे।

मैं अपने प्रशिक्षण के अतिरिक्त भी खेल, वाद-विवाद और अन्य प्रतियोगिताओं में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेता रहता। मुश्किल से मुश्किल समय में भी मैंने अच्छा प्रदर्शन किया था और मुझे स्वयं पर गर्व था।

'यह आवश्यक है कि हमें स्वयं पर गर्व हो और हम स्वयं को उस गर्व के योग्य बनाएँ।' - जिस व्यक्ति को स्वयं पर गर्व हो वो कभी हार नहीं मानता और उसका प्रदर्शन और व्यवहार हमेशा अच्छा होता है। अतः हमें स्वयं पर गर्व होना चाहिए। लेकिन यह भी याद रखें कि हमें स्वयं पर गर्व होना चाहिए, घमंड नहीं। निजी व्यवहार और सोच में सौम्यता, सज्जनता और सादगी का प्रदर्शन करें।

देखते ही देखते इस एक वर्ष का अंत होने को आ गया। मैंने सभी परीक्षाओं में अच्छा प्रदर्शन किया था। मेरा निर्णय अब भी एक कमांडो बनने का ही था। पूरे चार साल की कठिन ट्रेनिंग में भी मैंने अपना निर्णय कभी नहीं बदला। अपितु मैंने तो ट्रेनिंग के समय में ही छुट्टियों में हवाई जहाज से छाता ले कूदने वाला प्रशिक्षण भी कर लिया था। इस प्रशिक्षण को अन्य लोग कमांडो बनने के बाद ही प्राप्त करते हैं।

इस प्रशिक्षण का अंतिम प्रशिक्षण शिविर कठिनतम था। सैनिक सामान से लद हमें दिन रात जंगलों में से गुज़रना था। हमें दिन रात चलना था और खाने की व्यवस्था भी स्वयं ही करनी थी। इस प्रशिक्षण शिविर के सफलतापूर्वक समाप्त होने के बाद अब हमारा सेना में अधिकारी बनना तय था। अब सिर्फ उस अंतिम परेड की तैयारी करनी थी जिसके बाद हम सेना में अधिकारी/अफसर बन जाते। अपने उद्देश्य के मैं बहुत निकट था।

एक बाधा दौड़ का मुकाबला शेष था। यह कोई अनिवार्य स्पर्धा नहीं थी। इसमें भाग न लेने से भी अधिकारी बनना तो तय ही था। लेकिन यह एक खेल मुकाबला था। इसमें हमारी अकादमी की विभिन्न सैन्य कंपनियाँ आपस में मुकाबला करती थी। जो कंपनी सबसे कम समय में सब बाधाओं को दौड़ कर पार कर लेती थी, वो जीत जाती थी। मैं अपनी कंपनी का कैप्टेन था। मैंने अपनी कंपनी की अच्छी तैयारी करवाई थी और हमें विश्वास था कि हमारा प्रदर्शन अच्छा होने वाला था।

मृत्यु से मेरी एक मुलाकात
२९ अप्रैल १९९५


आज बाधा दौड़ मुकाबले का अंतिम दिन था। मेरी कंपनी को बाधा दौड़ की बाधाओं पर से गुजरने के लिए शाम ५.४५ का समय दिया गया था। मैं मैंदान में पहुँचकर अपने कंपनी के साथियों की तैयारी करवाने लगा। मैं एक कैप्टेन के तौर पर उनका नेतृत्व कर रहा था और कंपनी के अच्छे प्रदर्शन की जिम्मेवारी मुझ पर अधिक थी।

फ़ुटबाल खेल के मैदान से भी दोगुने मैदान में यह सत्रह सैन्य बाधाओं की श्रंखला थी। मेरी कंपनी में लगभग पचास कैडेट थे और हमें इन बाधाओं के ऊपर से अपनी पूरी तेजी और क्षमता के साथ दौड़ कर और कूद फाँद कर निकलना था। शाम के ५.४५ होने को आए तो हम शुरुवाती रेखा के पीछे चार पंक्तियों में जमा हो गए। हम चार पंक्तियों में इसलिए जमा हुए थे क्योंकि किसी भी बाधा को एक साथ सिर्फ चार व्यक्ति ही पार कर सकते थे। मुझे विश्वास था कि मेरी टीम अच्छा प्रदर्शन करने वाली थी।

उसी समय मेरी नज़र मैदान के एक छोर पर गई। वहाँ सिलसिलेवार लगे शामियानों में दर्शक बैठ इस दौड़ को देख रहे थे। यह देख शायद मुझे अचानक मेरे बचपन की वो दौड़ याद आ गई जिसमें मैं सबसे पीछे आया था और लोग मुझे देख हँस रहे थे। मेरे अन्दर ऊर्जा का एक विस्फोट सा हो गया और मैं एकदम तेज़ दौड़ने को उत्साहित हो गया। मैं श्रेष्ठतम प्रदर्शन करना चाहता था।

दौड़ प्रारंभ हुई और मैं बहुत तेज़ दौड़ पड़ा। पहली बाधा एक नौ फुट का गड्ढा था, जिसे देखते ही देखते मैं फाँद गया। कुछ ही पल में मैं सबसे आगे था। मैंने एक टेढ़ी मेढ़ी बाधा को अपना संतुलन बना पार किया और तीसरी बाधा के ऊपर चढ़ने लगा। तकरीबन नौ फुट की ऊँचाई तक चढ़कर नीचे कूदना था। मैं बहुत गति में था। जैसे ही मैं ऊपर पहुँच कर कूदने लगा तो मुझे पीछे से जोर से धक्का लगा। संभवतः मेरे पीछे जो प्रतियोगी था उसने मुझे धक्का मारा था। उस धक्के के कारण और क्योंकि मैं कूदने वाली अवस्था में था, मैं संतुलन खो कर सर के बल ऊपर से गिर पड़ा।

नौ फुट की ऊँचाई से मैं सिर के बल धरती की ओर पूरी गति से बढ़ रहा था। इतनी ऊँचाई से अगर मैं सिर के बल कठोर जमीन पर गिरता तो मेरे सिर और गले की सारी हड्डियाँ टूट जातीं और मेरी मृत्यु निश्चित थी। उस एक पल में मुझे यही लगा के अगर मैं गर्दन अन्दर मोड़ कर कलाबाजी खा जाऊँ तो पीठ के बल गिर सकता हूँ और उस परिस्थिति में चोट कम लगेगी। लेकिन समय क्षण भर का ही था। कलाबाजी खाने का समय नहीं था। किन्तु कलाबाजी खाने में ही मेरे बचने की कुछ संभावना थी। मैंने कलाबाजी खाने के लिए अपनी गर्दन अन्दर मोड़ी, लेकिन समय इतना कम था के कलाबाजी खाते खाते मैं अपनी गर्दन और कंधे के बल ज़मीन पर जा गिरा। अपनी फुर्ती के कारण ही मैं एकदम से कलाबाज़ी खाने में सफल हुआ था। अन्यथा यह मेरे जीवन का अंतिम क्षण होता।

मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे शरीर में से सैकड़ों वोल्ट की बिजली निकल गई हो। मैं धरती पर लुढ़कता एक ओर जा गिरा। मेरा शरीर मानो गायब हो गया था। मुझे अपने शरीर का कुछ भी ज्ञात नहीं था। ऐसे लग रहा था मानो चेहरे के नीचे का शरीर था ही नहीं। मैं साँस भी नहीं ले पा रहा था। सिर्फ हलकी हलकी हवा ही मेरी नाक में आ जा रही थी। मेरी आँखें खुली थीं और उनसे मैं वहाँ पड़ा शाम के साफ़ आसमान को देख रहा था। और कुछ न दिख रहा था और न किसी चीज़ का अहसास था। एक पल को मैंने सोचा "कहीं मैं मर तो नहीं गया हूँ? अगर जीवित होता तो अपने शरीर का अहसास तो होता।"

आँखों और हलकी साँस के सिवा कोई अहसास न था। मुझे लगा मैं मर चुका हूँ और कहीं परलोक के रास्ते में हूँ।

इतने में एक डॉक्टर अपने दो चिकित्सा कर्मियों के साथ दौड़ता हुआ आया और मेरी बगल में अपने घुटनों के बल बैठ गया।

डॉक्टर ने पूछा "क्या हुआ?"
चूँकि मुझे साँस नहीं आ रही थी, मैंने बहुत कठिनाई से फुसफुसाते हुए कहा "मुझे अपने शरीर का कुछ अहसास नहीं है। साँस भी बहुत कम है।"

डॉक्टर तुरंत समझ गया कि मेरी रीढ़ की गले की हड्डी टूट गई है और मेरा शरीर लकवाग्रस्त हो गया है। ऐसा होने के कारण मेरे मस्तिष्क का संपर्क बाकी के शरीर से टूट गया था और इसी कारण मुझे अपने शरीर का कोई आभास नहीं हो रहा था। परिस्थिति बहुत जटिल थी। एक हलकी सी चूक मेरी मृत्यु का कारण बन सकती थी। हर पल अत्यंत कठिन था। मुझे बिलकुल भी हिलाया नहीं जाना था। थोडा सा भी गलत हिलने से मेरी मृत्यु हो सकती थी। छः चिकित्साकर्मियों की मदद से मुझे बिलकुल सीधा उठाकर स्ट्रेचर पे लिटा दिया गया। स्ट्रेचर समेत मुझको सावधानी पूर्वक उठाया गया और पास खड़ी अंबुलेंस में ले जाया गया।

मेरा गुज़रता हर पल मृत्यु के साथ मेरा संघर्ष था। मैंने अपने जीवन की सारी शक्ति और योग्यता इस परिस्थिति से सामना करने में लगा रखी थी। मैंने अपने जीवन में यह सबक सीखा था कि परिस्थिति जितनी जटिल हो उतना ही आपको शांत रहने की आवश्यकता होती है। शांत रहकर ही आप किसी कठिन परिस्थिति का सामना कर सकते हैं।

'परिस्थिति जितनी भी कठिन हो, आपको उतना ही शांत होना चाहिए। तभी आप उस परिस्थिति का सफलतापूर्वक सामना कर पाएँगे'


मुझे देहरादून छावनी के सैन्य हस्पताल में ले जाया गया और गहन चिकित्सा वार्ड में भर्ती कर दिया गया। विभिन्न प्रकार के जीवन रक्षक यन्त्र मेरे शरीर से जोड़ दिए गए। मैं कतई हिल नहीं पा रहा था और उस बिस्तर में लेटा मैं मात्र छत के कुछ हिस्से को ही देख पा रहा था। यदि कोई मुझसे मिलने आता तो उस व्यक्ति को मेरे ऊपर झुकना पड़ता ताकि मैं उसे देख सकूँ। परिस्थिति बुरी थी और मुझे भयंकर कष्ट झेलना पड़ रहा था। न मैं हिल पा रहा था, न ठीक से साँस ही ले पा रहा था और ना ठीक से बोल पा रहा था।

इस हस्पताल का वरिष्ठ डॉक्टर लखनऊ में एक वरिष्ठ और विशेषज्ञ डॉक्टर से फ़ोन पर संपर्क साधे हुए था और मुझे किस तरह की प्राथमिक चिकित्सा दी जानी है यह हिदायत फ़ोन पर दी जा रही थी। यह एक असामान्य और असाधारण चोट थी। जैसे जैसे रात हुई मेरी आँखों के आगे मेरा जीवन एक तेज गति से चलती फिल्म की तरह गुज़र रहा था। मेरी नाक में साँस लेने की नली लगा दी गई थी। किन्तु कुछ समय बाद उसे निकालना पड़ा क्योंकि वो मेरी नाक में बहुत कष्ट दे रही थी। मैं सिर्फ अपनी धीमे धीमे चलती साँसों के सहारे जिंदा था।

इस हादसे ने मुझे अपने जीवन के सबसे अच्छे समय से उठाकर सबसे जटिल समय में ला खड़ा किया था। एक ओर मैं अपने जीवन में एक शक्तिशाली युवक था जो कुछ ही दिनों में सेना में अधिकारी बनने वाला था और एक पल ही में मैं यहाँ एक शव की भाँति निर्जीव सी अवस्था में पड़ा था। क्या इतनी भयंकर दुर्घटना और चोट के बाद भी मैं कभी अपने जीवन को फिर से पा सकूँगा? इस बड़े प्रश्न का सही उत्तर तो समय ही दे पाएगा।

जीवन पाने का संघर्ष

मैंने अपने जीवन में सिर्फ सफलता और विजय की ओरे बढ़ना सीखा था। 'हार की संभावना से बेपरवाह अपना पूरा ध्यान सिर्फ जीत पर लगा कर रखो' - यही मेरे जीवन का निचोड़ था। इस परिस्थिति में भी मेरे मन में कोई शक नहीं था। मैं इस परिस्थिति से बाहर आने और अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिए हर संभव प्रयास करने वाला था। डाक्टरों ने कहा था कि पहले तीन दिन खतरे से भरे हुए दिन होने वाले थे। मेरे स्वास्थ्य में कैसी भी जटिलता किसी भी समय आ सकती थी और जानलेवा हो सकती थी। क्या मेरा शरीर बदले हुए हालात में खुद को ढाल पाएगा? यह देखने वाली महत्वपूर्ण बात थी। अगर मैं तीन दिन बच जाऊँगा तो मेरे जीवित बच जाने की सम्भावना हो जाएगी, ऐसा डाक्टरों का मानना था।

मैंनें अपनी पलकें मूँद लीं और कल्पना की कि मैं अपनें कन्धों पर भारी सैन्य सामान उठा जंगलों और पर्बतों के बीच से गुज़र रहा हूँ। बहुत थकी हुई हालत में भी मैं इन दुर्गम रास्तों पर एक एक कदम बढाता चला जा रहा हूँ। इसी कल्पना के साथ इस अवस्था में मेरी पहली रात निकल गई। सुबह हुई तो मैं जीवित था।

मेरे माता पिता को रात में ही फ़ोन पर सूचित कर दिया गया था कि मुझे इतनी भयंकर चोट लगी है। रात भर सफ़र कर मेरे माता पिता सुबह हस्पताल में पहुँचे। मुझे देख मेरे पिता फूट फूट कर रो पड़े लेकिन मेरी माँ शांत रही। उन्होंने मेरी हिम्मत बढ़ाई। मैं वैसे भी अपनें विषय में अधिक चिंतित नहीं था। मुझे यह भी ज्ञात था कि मेरे पिता मेरे सामने ही रोए थे और मेरी माँ मेरे सामने ही नहीं रोई थी। वो सिर्फ मुझे हिम्मत देने के लिए नहीं रोई थी।

दिल्ली से विशिष्ट डॉक्टर मेरी जाँच और इलाज के लिए पहुँच गए। मेरी जाँच और x-ray के बाद डॉक्टरों ने बताया कि मेरे गले की हड्डी कई जगह से टूट गई है और उसके अन्दर से होकर जाने वाली तंत्रिकाएँ (जो दिमाग को बाकी शरीर से सन्देश पहुँचाने और पाने के लिए जोडती हैं) टूट चुकी हैं। अतः मेरे मस्तिष्क का मेरे शरीर से संपर्क टूट गया था। इसीलिए मुझको अपने शरीर का आभास नहीं हो रहा था। पुरे विश्व में चिकित्सा विज्ञान में कहीं भी इस चोट का इलाज नहीं था। यही आशा की जा सकती थी कि आने वाले समय में कुछ स्वयं ही सुधार हो।

मेरे सिर में दोनों ओर चमड़ी में सुराख कर मेरे सिर की हड्डी में एक यन्त्र कस दिया गया। इस यंत्र ने मेरी खोपड़ी को दोनों ओर से जकड रखा था। फिर इस यन्त्र से एक वजन को टाँग दिया गया। इस तरह मेरे सिर और गर्दन के एकदम सीधा रहने की संभावना थी और यह मेरी गर्दन की हड्डी वापिस जुड़ने के लिए आवश्यक था। गर्दन की हड्डी को तो वापिस जुड़ जाना था लेकिन उसके अन्दर की तंत्रिकाओं को जोड़ने के लिए कुछ नहीं किया जा सकता था।

आने वाले दिनों में मुझे या तो इतना तीव्र बुखार रहता कि मैं अपनी सुध बुध खो बैठता या मेरा शरीर इतनी बुरी तरह ठिठुरने और काँपने लग जाता के मेरे जबड़े की हड्डियाँ दर्द करने लगतीं। खाना तो असंभव सा कार्य था। मैं किसी नर्म पदार्थ को चबा तो सकता था पर निगल नहीं पाता था। पानी पीना तक कठिन था और कभी नली से पीने की कोशिश करता तो साँस की नली में पानी उलझ जाता।

कुछ ही दिन में मैं एक शक्तिशाली युवक से परिवर्तित हो हस्पताल में पड़ा एक हड्डियों का ढाँचा सा रह गया था। लेकिन मैंने हार कतई नहीं मानी थी। मैं अपनी कठिनाइयों को तपस्या समान समझता था। जो भी लोग, दोस्त, रिश्तेदार मुझसे मिलने आते वे मुझे मुस्कुराता और हँसता हुआ पाते। उनको यह देख बहुत हैरानी होती कि कोई ऐसी परिस्थिति में भी इतना हँसमुख और शांत हो सकता है।

हस्पताल के इस गहन चिकित्सा कक्ष में धीमी रौशनी रहती थी। हलचल न के बराबर थी। आने जाने वालों पर बहुत पाबंदी थी। उस अवस्था में सीधे पड़े मैं कुछ भी करने की अवस्था में नहीं था। मेरी स्थिति इतनी कष्टदायक थी के मुझे कतई नींद नहीं आती थी। मुझे सिर्फ कमरे की छत का एक हिस्सा दिखाई देता था।

मैने देखा कि छत के एक कोने में एक मकड़ी अपना जाला बुनती रहती थी। सफाई कर्मचारी उस जाले को प्रतिदिन सफाई करते समय साफ़ कर देते लेकिन वो मकड़ी बिना इस बात की परवाह किये के जाला बार बार मिटाया जा रहा है, तुरंत फिर से अपना जाला बनाने लग जाती। उस मकड़ी ने मुझे अपना महत्वपूर्ण सबक फिर याद दिला दिया।

'कर्मण्ये वाधिकारस्ते...' - कर्म ही आपका अधिकार है। बिना हार जीत की परवाह किये कर्म करते रहो।

मेरी हालत थोड़ी सुधरने पर मुझे दिल्ली के बड़े सैन्य हस्पताल में ऑपरेशन करने के लिए ले जाया जाना था। किन्तु मेरी हालत बिगडती ही गई। ऐसी परिस्थिति में पड़े पड़े मैं सोचता कि काश मैं एक करवट ले के सो पाता तो कितना अच्छा होता या काश मैं ठन्डे पानी से नहा पाता तो कितना अच्छा होता।

'हमारे जीवन में विकट परिस्थितियों का समय ही वो समय होता है जब हमें छोटी छोटी चीज़ों का महत्व पता चलता है और खुद जीवन का महत्व पता चलता है।'

लगभग पंद्रह दिन ऐसी परिस्थिति में रहने के बाद मुझे दिल्ली के बड़े सैन्य हस्पताल ले जाने का निर्णय लिया गया। संयोग से यह वही हस्पताल था जिसमें तब से बाईस वर्ष पूर्व मेरा जन्म हुआ था। और संयोगवश अब बाईस वर्ष बाद मैं उसी हस्पताल में दोबारा जीवन पाने के प्रयास में जा रहा था।

एक हेलीकाप्टर की व्यवस्था की गई। देहरादून से दिल्ली की उड़ान लगभग दो घंटे में तय की जानी थी। यह एक छोटा सा हेलीकाप्टर था। इसकी पिछली सीट पर मुझे लिटाया गया और जिस डॉक्टर को मेरे साथ सफ़र करना था वो भी इसी सीट पर टेढ़ा होकर बैठ गया। आगे वाली सीट पर चालाक और सहचालक थे। हेलीकाप्टर की छत शीशे की थी और तेज़ धूप मेरे चेहरे पर आ रही थी। मुझे तेज़ बुखार था लेकिन हेलीकाप्टर के ऊँचे शोर में कोई मेरी बात नहीं सुन सकता था। गनीमत से डॉक्टर मेरे चेहरे पर पानी छिड़क कर मेरे तापमान को नियंत्रित रखे रहा।

एक तो यह सफ़र मेरे लिए बहुत कष्टदेय था और ऊपर से कुछ तकनीकी समस्याओं के कारण हेलीकाप्टर को दिल्ली पहुँचने में दो के बजाए छः घंटे लग गए। शाम होते होते हेलीकाप्टर दिल्ली हस्पताल में जा उतरा। मुझे तुरंत इस हस्पताल के गहन चिकित्सा कक्ष में ले जाया गया। मैं सकुशल पहुँच गया था।

पहुँचने के तीन दिन बाद विशिष्ट डॉक्टरों की एक टीम नें मेरा ऑपरेशन किया। मेरे गले की हड्डी की चोट को ठीक करने के लिए और मेरे गले की हड्डी को मज़बूत करने के लिए मेरे कुल्हे की हड्डी से हड्डी की एक हलकी परत उतार मेरे गले की हड्डी पर लगाई गई। इस ऑपरेशन द्वारा मेरी रीढ़ की हड्डी के बीच से गुज़रती तंत्रिकाओं पर टूटी हुई हड्डी से पड़ रहे दबाव को भी दूर किया गया। ऑपरेशन के पश्चात् मुझे फिर गहन चिकित्सा कक्ष में ले जाया गया।

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८ सिंतबर २०१४                                आगे-

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