सत्य और सिद्धांत-
एक बार एक राष्ट्रीय स्तर की सामान्य ज्ञान परीक्षा हो रही थी और उस परीक्षा का
केंद्र हमारे स्कूल में भी था। यहाँ पर निरिक्षण की अच्छी व्यवस्था नहीं थी
क्योंकि यह एक छोटा सा स्कूल था और फिर यह कोई मुख्य परीक्षा भी नहीं थी। कम
निरीक्षण के कारण सब छात्र एक दूसरे से पूछे गए प्रश्नों के उत्तर पूछ रहे थे
और नक़ल कर रहे थे। मैंने और मेरे मित्र ने यह निर्णय लिया कि हम नक़ल नहीं
करेंगे और जितने प्रश्न स्वयं हमें आते हैं, हम मात्र उन्हीं प्रश्नों का उत्तर
देंगे। हमने ऐसा ही किया। कुछ माह बाद जब उस परीक्षा का परिणाम आया तो सब
छात्रों के अंक ९० प्रतिशत से ऊपर थे और मेरे और मेरे मित्र के अंक मात्र साठ
प्रतिशत के आस पास अंक थे।
मेरे अंक सबसे कम आए थे लेकिन मुझे स्वयं पर गर्व था और इस परीक्षा के अंकों का
प्रमाणपत्र मेरे जीवन का अब तक का सबसे महत्वपूर्ण प्रमाणपत्र है। ऐसा मैं
मानता हूँ।
‘यदि कठिन समय में या प्रलोभन के समय में आप अपने उसूलों से समझौता न करें तो
आपको स्वयं पर गर्व होता है और आप एक मजबूत इंसान बनते हैं। वहीं यदि आप अपने
उसूलों से समझौता कर लें तो आप कमज़ोर हो जाते हैं। अतः कभी भी अपने सिद्धांतों
से समझौता न करें।’
ग्रामीणजीवन का अनुभव
मेरा ननिहाल हरयाणा प्रांत के जिला झज्जर के गाँव बरहाना में था और मैं अपनी
छुट्टियाँ अपने ननिहाल में ही बिताता था। साल में दो-तीन महीने गाँव में ही
बीतते थे। गाँव का जीवन मुझे बहुत लुभाता था। मिटटी की खुशबू, पक्षियों का
चहचहाना, पशु, तालाब, खेत, हरियाली और सादा जीवन, सब लुभाते थे। मेरे नाना सेना
से सेवानिवृत्त हो गाँव में ही रहते थे और ग्राम सुधार के लिए बहुत काम करते
थे। नानाजी सत्संग, योग शिविर और शिक्षाप्रद कार्यक्रम आयोजित करते और मैं इन
सब में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेता। मैंने उनको बिना किसी लाभ की इच्छा के निस्वार्थ
भाव से दिन रात लोगों की सेवा करते देखा और यही देख मेरे मन में भी एक अच्छा
इंसान बन ने की इच्छा सुद्रढ़ हुई। मैं भी चाहता था के एक दिन समाज के लिए कुछ
अच्छा कर सकूँ।
मैंने नाना के साथ खेत में काम भी किया। पशुओं को तालाब पे पानी पिला के लाना,
उनका चारा काटना और अन्य ऐसे ग्रामीण जीवन की दिनचर्या के काम किये। मैंने
वर्जिश, व्यायाम और कुश्ती में भी हिस्सा लिया।
एक बार गाँव की सालाना कुश्ती का समारोह था। इसमें दूर दूर के गाँव से पहलवान
भाग लेने आते और एक दूसरे से जोर आजमाते। मेरी भी इच्छा थी कि मैं भी हिस्सा
लूँ लेकिन मेरे नानाजी ने मुझे समझाया कि कुश्ती सिर्फ ताकत से ही नहीं होती।
इसके दाँव पेंच भी सीखने पड़ते हैं। उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं कुश्ती न
लडूँ। लेकिन मैं अपने निर्णय पर अडिग था। मैंने तो कह दिया के मैं कुश्ती लड़
के रहूँगा।
जब नानाजी ने देखा के मैं मानने वाला नहीं हूँ तो उन्होंने स्वयं मुझे कुछ दाँव
सिखाए। मेरे नाना कद काठी से छोटे थे लेकिन उनमें बहुत ताकत थी। उन्होंने तुरंत
पंजे लड़ाते हुए मुझ से कहा "लगाओ ताकत" ज्यों ही मैंने जोश में अपनी ताकत लगाई
तो वे मेरे हाथों को घुमा नीचे बैठ गए और मैं उनके ऊपर से दूसरी तरफ जा गिरा।
उन्होंने मेरी ताकत का इस्तेमाल कर मुझे पटक दिया था। मेरी समझ में बात आ गई कि
सिर्फ ताकत से काम नहीं चलेगा, दिमाग भी लगाना पड़ेगा और सीखना भी पड़ेगा।
मुझमें बचपन से ही यह प्रवृति आ गई थी कि जो भी कुछ नया अनुभव करने का या सीखने
का अवसर मुझे मिलता तो मैं पीछे नहीं हटता, चाहे कुश्ती लड़ना हो, खेलकूद हो या
कला अथवा अध्ययन का क्षेत्र हो, मैं विभिन्न क्रियाओं में पूरे उत्साह के साथ
हिस्सा लेने का प्रयास करता।
"जीवन का मूल है कि उसमें हम अधिक से अधिक अनुभव करने और सीखने का प्रयास करें"
मेरे घर में भी कुछ सादगी का माहौल था और कुछ गाँव के जीवन के अनुभव ने भी मुझे
सादगी पसंद बना दिया। और इसके लिए मैं स्वयं को सौभाग्यशाली समझता हूँ।
मेरे पिता का गाँव इसी जिले में इस गाँव से कुछ तीस-चालीस कोस की दूरी पर था।
उस गाँव का नाम 'खेडी' था और वो एक बहुत ही छोटा सा गाँव था जहाँ जाने के लिए
सड़क भी नहीं थी। आखिरी के कुछ किलोमीटर तो पगडण्डी से पैदल जाना पड़ता था। मेरा
वहाँ जाना भी होता था। मेरे लिए वहाँ जाना सदैव एक प्रेरणात्मक अनुभव होता था
क्योंकि मेरे पिता इसी छोटे से गाँव के एक छोटे से ईंट और मिटटी के घर से निकल,
परिश्रम कर, सेना में अधिकारी के पद तक पहुँचे थे। उनके जीवन के संघर्ष की
कहानी मेरे लिए सदैव एक प्रेरणा स्रोत रही है। हमारे जीवन में कोई भी पाठयक्रम
हमें उतना नहीं सिखा सकता जितना हम अपने आदर्श बड़ों से सीख सकते हैं। मैंने
अपने जीवन में बहुत कुछ अपने पिता और नाना के जीवन को देख सीखा।
'स्वयं को प्रेरित करना और स्वयं को सदैव प्रेरित रखना जीवन में अति आवश्यक है'
ग्रामीण जीवन में रहते और मेरे नाना जी और उनके साथियों की संगती में रह मेरा
रुझान आध्यात्म और दर्शन की ओर भी हुआ। विभिन्न विषयों पर चिंतन मनन करना मेरे
स्वभाव का अंग बन गया। मेरा मानना है कि जीवन आपके अन्दर उठ रहे प्रश्नों के
उत्तर की खोज का नाम है।
इसी खोज को दर्शाती मेरी कविता 'खोज' यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
रेत की पगडंडियों पर तनहा उठती हुई धूल में
उभरते हुए एक साए सा चल रहा हूँ रोज़ मैं
कर रहा हूँ सत्य की खोज मैं
आधी बंद आधी खुली आँखों से राह को टटोलता
कभी सन्नाटे में चुप, कभी खुद ही से कुछ बोलता
पर्बतों में वादियों में चल रहा हूँ रोज़ मैं
कर रहा हूँ सत्य की खोज मैं
रेत की पगडंडियों पर तनहा उठती हुई धूल में
उभरते हुए एक साए सा चल रहा हूँ रोज़ मैं
कर रहा हूँ सत्य की खोज मैं
सुबह होती हुई रोशनी में हरे पत्तों की ओस को निहारता
चिड़ियों की चहक को, मिटटी की महक को, दिल में यूँ उतारता
कभी भावनाओं में बह कर, कभी आस्थाओं से उठकर
हर पल हर लम्हा कर रहा हूँ सत्य की खोज मैं
चल रहा हूँ रोज़ मैं
रेत की पगडंडियों पर तनहा उठती हुई धूल में
उभरते हुए एक साए सा चल रहा हूँ रोज़ मैं
कर रहा हूँ सत्य की खोज मैं
मेरे स्कूली जीवन के अंतिम पाँच साल
१९८६ में पंजाब प्रांत के उस छोटे से कसबे से निकल अबकी बार मेरा दाखिला मेरठ
शहर के एक ख्यातिप्राप्त स्कूल में हो गया। मैं अब नौवीं कक्षा में था। मैं अब
हाकी, फ़ुटबाल, दौड़, तैराकी जैसे विभिन्न खेलों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने लगा
था और मैंने विभिन्न स्तर पर यह खेल खेले। मैंने वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ,
कवि-सम्मेलनों और नाट्य प्रस्तुतियों में भी हिस्सा लिया। मुझे भिन्न क्षेत्रों
और विषयों के बारे में अध्ययन करना अच्छा लगता था। भाषा, विज्ञान, कला एवं खेल
कूद, सब विषयों में मेरी रुचि थी।
मैं नियमित रूप से प्रतिदिन चार-पाँच किलोमीटर दौड़ के आता और एक-दो घंटा
व्यायाम करता था। फिर एक दिन से मुझे साँस फूलने की दिक्कत होने लगी और दौड़ा
बिलकुल नहीं जा रहा था। जब मैं डाक्टर के पास गया तो उसने मुझे बताया कि मुझे
दमे की बीमारी है। उसने मुझे पास बिठाया और बड़े शांत तरीके से समझाया कि मुझे
खेल कूद से अपना ध्यान हटा लेना चाहिए क्योंकि इस बीमारी के रहते मैं कभी खेल
कूद में अच्छा नहीं कर पाऊँगा।
लेकिन मेरा निर्णय इतनी आसानी से परिवर्तित होने वाला नहीं था। मैंने अगले दिन
से अपने दौड़ने की दूरी को दोगुना कर दिया और प्रतिदिन आठ किलोमीटर दौड़ने लगा।
मैं दोगुना तैराकी भी करने लगा। साँस की दिक्कत के साथ ऐसा परिश्रम करना बहुत
कठिन था लेकिन इसी परिश्रम के कारण मैं उस साँस की समस्या से निजाद पा सका। उस
समस्या से मैं पहले से और अधिक ताकतवर हो के निकला।
'परिस्थितियों को कभी स्वयं पे हावी न होने दो। यदि आपमें साहस है तो आप जीवन
की हर विपरीत परिस्थिति में भी सफल हो सकते हो'
'विपरीत परिस्थितियाँ एक आग की भट्टी की तरह होती हैं। उसमें तप कर हम और भी
कठोर और शक्तिशाली हो के निकलते हैं।'
जब मैं ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा में पहुँचा तो यह निर्णय करने की आवश्यकता
थी के मैं कौनसा विषय पढना चाहूँगा। मैं विज्ञान का छात्र तो था किन्तु उसमें
भी यह देखना था के मैं एक डॉक्टर बनने के उद्देश्य से जीव विज्ञान पढना चाहूँगा
या एक अभियंता/इंजीनियर बनने के उद्देश्य से गणित पढना चाहूँगा। मैं बहुत
दुविधा में पड़ गया। सही मार्गदर्शन का अभाव तो था ही, ऊपर से सबके सलाह देने से
सही निर्णय लेने की क्षमता और भी कम हो गई।
अंत में निर्णय कर मैं दोनों ही पढने लगा। यह मेरे हिसाब से एक चूक थी। यदि
आपको सफल होना है तो आपको अपने चुने एक क्षेत्र में अपना पूरा ध्यान लगा देना
चाहिए।
जब बारहवीं कक्षा का परिणाम आया तो मेरा परीक्षाफल सराहनीय नहीं आया। यह मेरे
स्कूली जीवन की सबसे महत्वपूर्ण परीक्षा थी और इसमें मेरे बहुत कम अंक आए थे।
एक छात्र के रूप में यह मेरे लिए बहुत निराशा की घडी थी। किन्तु मैंने स्वयं को
हतोत्साहित नहीं होने दिया। मैंने सोच लिया कि अब मैं दृढ और स्पष्ट निर्णय
लूँगा। मैंने विभिन्न खेल कूद की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेकर यह सबक सीखा
था:-
'यदि सफल होना चाहते हो तो दृढ और स्पष्ट निर्णय लो और फिर उस निर्णय की सफलता
के लिए अथक निरंतर प्रयास करो'
मुझे अपने बचपन का सपना याद आ गया। मैं भी अपने पिता की भाँती सेना में अधिकारी
बनना चाहता था। राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में प्रवेश पाने हेतु प्रवेश परीक्षा के
लिए दो-तीन महीने का समय ही शेष था। मैंने उस परीक्षा की तय्यारी में अपने सारे
प्रयास लगा दिए। इस प्रवेश परीक्षा में गणित मुख्या विषय था। ढाई घंटे के समय
में एक परीक्षार्थी को एक सौ बीस प्रश्नों के उत्तर देने होते थे। राष्ट्रीय
स्तर की यह परीक्षा इतनी कठिन थी के इस परीक्षा में यदि कोई एक सौ बीस में से
आधे याने की साठ प्रश्नों के उत्तर भी सही दे सके तो वो अपने आपको उत्तीर्ण
होने का प्रबल दावेदार मानता था।
मैंने अपने खेल जीवन में सीखा था
:-
'यदि आप सफल होना चाहते हो तो अपनी तैयारी और अपने जीत के अंतर को इतना बढाओ के
जीत सुनिश्चित हो जाए'
इसीलिए मेरा उद्देश्य साठ प्रश्नों के सही उत्तर देना नहीं था। मेरा उद्देश्य
और प्रयास था कि मैं पूरे एक सौ बीस प्रश्नों के सही उत्तर दे सकूँ। परीक्षा
वाले दिन जहाँ बाकी विद्यार्थी पूरे समय में आधे प्रश्नों के उत्तर देने के
प्रयास में थे, वहाँ मैंने समय पूरा होने से आधा घंटा पहले ही एक सौ बीस में से
एक सौ अठारा प्रश्नों का सही हल निकाल लिया था। दो प्रश्न मुझे आते नहीं थे। जब
मैं परीक्षा भवन से निकला तो मैं जानता था के मैं इस परीक्षा में अवश्य सफल
होऊँगा।
मेरा यह मानना है कि:-
'जीत एक सम्भावना नहीं होनी चाहिए। जीत एक निर्णय होना चाहिए। यदि आप निर्णय कर
लें कि आपको सफल होना है तो कोई आपको रोक नहीं सकता।'
‘विफलता विकल्प नहीं है।’
कुछ महीने बाद जब इस परीक्षा का परिणाम एक दैनिक समाचार पत्र में घोषित हुआ तो
मैंने एक पुस्तकालय में जाकर अपना परिणाम देखा। मैं परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ
था। मैं बहुत खुश हुआ। लेकिन मैं यह भी जानता था के अभी तो मात्र आधी लड़ाई ही
जीती थी। |