''बोलो बिट्टू, तोमार नाम की?
बोलो।'' दादी ने पूछा तो बिट्टू ने अपनी बड़ी-बड़ी भोली आँखें
दादी के पोपले चेहरे पर टिका दीं। दादी ने उसे पुचकारा,
''बिट्टू बोलो, आमार नाम हिम।'' पर हिम नहीं बोला। दादी के गले
में बाँहें डाल हँसता रहा, जैसे अपना नाम बोलने में कोई
गुदगुदी होती हो। दादी ने फिर समझाना चाहा, पर हिम वैसे ही
नटखट-सा मुस्कराता रहा। फिर एकाएक आँखों को गोलमटोल करता हुआ
तुतला उठा, ''तोमार नाम की?'' दादी ने जैसे सोचा ही न हो, वह
कुछ सकपका गई। नाम याद करते हुए सचमुच एक गुदगुदी-सी हो गई
पूरे शरीर में। दादी को यों निरुत्तर देख हिम ने समझाते हुए
कहा, ''बोलो, आमार नाम दा-दी।''
हिम दादी की गोद में ही सो गया
था। दादी यों ही अंदाज़ा लगाने लगी, वह करीब सत्तर पार कर चुकी
थी। माना कि उम्र कुछ ज़्यादा ही हो चली है और वह अब छोटी-छोटी
बातें भी भूल जाया करती है पर ऐसा भी क्या भुलक्कड़पन कि अपना
नाम भी याद न आए। बहुत कोशिश की पर कोई फ़ायदा नहीं। कुछ
बेचैनी-सी होने लगी, बेचैनी से भी अधिक हैरानी। पर वह भी क्या
करे, बेटा माँ पुकारता है, बहू तो संबोधन भी कम ही देती है और
हिम तो जैसे एक ही शब्द कहना जानता है, जब देखो दादी। माँ-बाबा
नहीं कहता, बस एक रट दादी। फिर ध्यान आया, इन्होंने भी कभी नाम
नहीं लिया। जब ज़रूरत पड़ी सुनो जी, और बात शुरू। वह सोचने लगी,
जब उसने बहस की थी, ''नाम क्यों नहीं लेते मेरा?'' तब ये हाथ
मटकाते कहने लगे थे, ''सुनो जी एक ही तो गुण आया है मुझमें
पत्नीव्रती पति का उसे तो न छीनो।'' वे हँसने लगे थे।
दादी गहरे ख्वाब में डूबती जा
रही थी। क्या नाम था उसका? कुछ था तो, अच्छा-सा...। हिम उसके
पोते का बेटा... यानी चौथी पीढ़ी। वह बेटी से पत्नी, फिर माँ,
फिर दादी अब परदादी बनी। वह झुल-झुल बुढ़िया अपने हाथों-पैरों
को देखती है तो लगता है कि ये सूखी लकड़ियाँ अब होम हो जानी
चाहिए। पर अपने हाथ में क्या है? आँखों की बरौनियाँ तक पककर
सफ़ेद हो चुकी है। यह लंबा सफ़र उसे ताउम्र भटकाता रहा... छलता
रहा। वह आँखें मूँदकर फिर खोलती है, कुछ खोजने की कोशिश में -
अपना नाम... अपना परिचय... क्या था भी कभी?
इसी दशहरा की तो बात है, उसका
बड़ा पोता कनाडा से आया हुआ था। घर में बड़ी पूजा थी,
खाते-पीते अच्छी दोपहर हो गई थी। पोते की बहू उसे खिला-पिलाकर
पैर दबाने लगी तो उसके रोम-रोम ने आशीर्वाद दिया। इतने में
छोटा पोता हँसकर पूछने लगा, ''चीन्हती भी है दादी, कौन पैर
दबाती है?''
''अरे हाँ रे, तेरी दुलहिनिया है।''
''ना दादी, ये तो भाभी है।''
उसने झट आँखें तरेरकर खंडन किया। ''विदेसी बहू को कहाँ फुरसत
है मेरी सेवा की,'' इस पर सुराज ने समझाया था, ''हाँ माँ, ये
बड़के की दुलहिन है।''
सच है उम्र का एक लंबा दौर
उसने काट दिया है। पीछे पलटकर देखती है तो बचपन को सीधे-सीधे
नहीं पकड़ पाती। लंबी सुरंग-सी ज़िंदगी... हाँ, उलटे-उलटे पैर
लौटे तो कुछ-कुछ ध्यान आता है। हिम-सुराज के छोटे बेटे का बेटा
है जिसका कोई तीन-चार साल पहले ही ब्याह हुआ था। सुराज का बड़ा
बेटा कनाडा में नौकरी करता है। उसके एक बेटा और एक बेटी है जो
अकसर दुर्गापूजा में घर आते हैं। इस बार भी आया था तो उसके
लिए बड़ी सुंदर चिकनी-सी साड़ी लाया था, पर वह उसे बहुत नहीं
पहन पाती है, माथे से सरका जाती है साड़ी। अब तो बाल भी गिनती
के रह गए हैं सिर पर। उसने सिर पर हाथ फेरा... सन-से सफ़ेद-भुट्टे
जैसे बाल...। बचपन में भुट्टे के बाल इकट्ठे किया करते थे
हम... वह सोचने लगी। और सोचते हुए अपने बाबा के मकान के
पिछवाड़े जा पहुँची... बरसों पीछे मिट्टी का घर, ऊपर खपरैल का
छत... पिछवाड़े में खड़ा नीम गाछ। वह संभ्रांत बंगाली परिवार
की लड़की थी, उस ज़माने में भी काफ़ी आधुनिक सोच वाले थे उसके
माता-पिता। मास्टर जी घर पर आते थे पढ़ाने के लिए, तब वह इसी
पिछवाड़े छिप जाया करती। कभी भुट्टे के बाल अपने बालों पर ढक
देती और बुढ़िया बनकर हैरानी से सोचती- क्या कभी सचमुच ऐसी ही
बुढ़ी हो जाएगी वह भी? वक्त आज उसे अजीब से मोड़ पर ले आया था।
आज वह बूढ़ी जर्जर अपने बचपन को टटोल रही थी।
''गुड्डी... गुड्डी... '' माँ
पुकार रही थी, ''खित्तदा आए हैं कहाँ छिपी बैठी है?'' पहले भी
दो रोज़ लौट गए थे खित्तदा। माँ झल्ला रही थी जब नहीं पढ़ना
चाहती तो ज़रूर है पढ़ाना... छोड़ो भी, लड़की है, कोई लड़का तो
है नहीं कि कमाकर खिलाए। माँ बड़बड़ाती हुई बाबा पर गुस्साने
लगी, ''अरे लड़की को सिलाई-बिनाई सिखाना चाहिए, खूब पढ़-लिखकर
क्या करेगी, अपना नाम लिख लेती है, बस हो गया।''
''अपना नाम... '' हाँ, यही तो टूटा तार था उसका। उसने लिखा है
अपना नाम, इन्हीं उँगलियों से... पर आज याद नहीं आ रहा। नाम...
जिसे दुनिया में उजागर करने की प्रेरणा देते थे खित्तदा...हाँ,
खित्तदा, नाम तो था क्षितिज, पर खित्तदा ही पुकारते थे सब
उन्हें। कैसी जोश भरी बातें करते थे खित्तदा, ''जननी जन्मभूमि
स्वर्ग से महान है। जानती हो, हमारा देश अभी आज़ाद नहीं है,
अंग्रेजों के शिकंजे में जकड़ा है और पराधीन जीवन व्यर्थ है,
एकदम व्यर्थ...। हमें कुछ करना चाहिए, इस देश का क़र्ज़ा है हम
पर, हमें उसे खून देकर भी चुकाना होगा। ये जो तुम भागती हो
पढ़ने से क्या सोचती हो, तुम लड़की हो तो फारिग हो गई इस
ज़िम्मेवारी से?''
वह हैरान देखती, ''आमी की, कैनो...मैं क्या, कैसे कर सकती हूँ
खित्तदा?'' ''तुम क्या नहीं कर सकती? देखो तुम लड़की हो,
तुम्हें देखकर कोई शक भी नहीं करेगा...हमारी कितनी चिट्ठी-पतरी
पहुँचा सकती हो... पर नहीं, तुम्हारे बस का नहीं। तुम तो एक
डरपोक लड़की हो और पढ़ाई-लिखाई से भी तुम्हारा दूर-दूर तक
वास्ता नहीं... ना-ना तुम से न होगा।''
वह आज भी विह्वल हो गई है।
खित्तदा ने उसकी ज़िंदगी को नया अर्थ दिया था, उद्देश्य दिया
था। कितनी ही बार उसने उनके ज़रूरी काग़ज़ इधर-उधर पहुँचाए थे,
किसी को कानोंकान ख़बर न हुई थी। एक बार कालीबाड़ी के पीछे से
निकलते हुए गीली मिट्टी पर पैर फिसल गया और उसकी चीख निकल आई।
गोरे सिपाही दौड़कर आए थे, घेर लिया उसे।
''किधर जाता? नाम केया तुम्हारा?'' एक पल को घिग्घी बँध गई
उसकी, पर फिर अगले ही पल वह और गँवारों-सी मुँह फाड़कर रोने
लगी, ''आमार नाम केया।'' ''केया... ? वाट... ? नाम बताओ...
जल्दी, नहीं तो अरेस्ट कर ले जाएँगे।''
''ओई तो... आमार नाम केया, केया तुमी जानो ना? एकटा फूल होए।''
और ऊपर डाल पर लगे फूल की ओर इशारा किया था उसने।
''तुम को फूल माँगता?'' गोरा हँसने लगा और डाल हिलाकर ढेरों फूल
गिरा दिए उसने... नीचे हरसिंगार के सफ़ेद-सिंदूरी फूल-ही-फूल
बिछ गए थे।
वह हँस पडी... केया, नहीं यह
तो यों ही, अंग्रेज़ों के वाट-वाट, केया-केया सुनकर रख लिया था
उसने और यही नाम काम कर गया था। बहरहाल, केया नाम भी बुरा नहीं
था। खित्तदा हौले-से हँसे थे उसकी चातुरी पर।
''देखो केया, ज़ोखिम भरा काम है यह, जान भी जा सकती है
इसमें।''
''जानती हूँ खित्तदा, जग्ग(यज्ञ)
में आहुति तो देना ही पड़ता
है। मैं तैयार हूँ... आप आगे का काम बताएँ,'' उसने कमर कस ली
थी। ऐसे कितने ही अवसर आए थे। वह घर से निकलती तो एक बार भर आँख
देखती थी अपना घर और पिछवाड़े का नीम गाछ।
''काम होने पर मिलूँगी
खित्तदा,'' कहकर एक आशा बाँधे सख्त बनकर निकल पड़ती थी।
समय जैसे पींग बढ़ा रहा था, अब वह भी खित्तदा के दल और अभियान
का एक ज़रूरी हिस्सा थी। ऐसा सिर्फ़ एकबार ही हुआ था कि कोई काम
उसे सौंपने से मना कर दिया था खित्तदा ने।
''केनो, केनो,'' पूछ-पूछकर जी
हलकान कर बैठी थी वह।
''नहीं, बहुत जोखिम भरा काम है यह, और फिर ससुरारियों को
किंचित शंका भी हो गई है तुम पर...।'' खित्तदा अँग्रेज़ों को
ग़ुस्से में ससुरारी कहकर गलियाते थे।
''शक ससुरारी को नहीं, तुम्हें है खित्तदा, मेरी
क़ाबिलीयत पर,
जाने दो मुझे, विश्वास करो, काम पूरा किए बिना मरूँगी नहीं
मैं।''
अगले रोज़ सुबह-सुबह एक पंजाबिन खित्तदा के दरवाज़े खड़ी थी।
''किसी चाहिए? हमने पहचाना नहीं आपको?'' खित्तदा ने विस्मय से
पूछा तो वह झक्क से हँस दी, ''तुस्सी मैन्नू पहिचान सकदे ने?
नई ना... तो ससुरारी मैन्नू किस तरा पहिचान सकदे हाँ? खित्तदा,
तुस्सी शुबा ना करो, मैन्नू कम्म सोंपो...।''
''ओरी बाबा... तुमी अपूर्णा... ,'' कहते हुए खित्तदा ने खुशी
से तीन बार ताली बजाई, ''खूब भालो, खूब भालो अपूर्णा।''
हाँ, अपूर्णा! यही तो नाम था उसका, नहीं अपूर्णा... कलकत्ता से
अपूर्णा बन गया था। पर यही सही-सगा नाम था उसका, उसकी परिणति
को दर्शाता। खित्तदा ने सबसे भारी काम सौंप दिया था उसे। वह
निकल पड़ी थी उसे अंजाम देने। पर उधर किसी ने मुखबिरी की और
उधर गोरों ने घेर लिया खित्तदा को। खित्तदा पुलिस मुठभेड़ में
मारे गए। काम पूरा कर लौटी तो पता चला। लगा जैसे अपूर्णा ही रह
गई वह...। कितनी लंबी बरसात रही... अपूर्णा छिप-छिपकर रोती
रही।
वक्त बीतता चला गया। खित्तदा
की जगह कोई न ले सका। दल के सभी साथी बिखर गए। कुछ एक तो अलग
दलों में जा मिले और प्रफुल्लो दा ने नीरा दी से ब्याह कर
गृहस्थी बसा ली। बाबा ने सुयोग्य वर देखकर उसे भी ब्याह दिया।
वह मन में एक टीस दबाए नियति के आगे नतमस्तक हो गई। ब्याह का
विरोध कर पाने का संस्कार नहीं था उसके पास। एक हूक ही रह गई
कि वह भी देश के काम आती।
दीपेन रोज़ सुबह-सबेरे घर से
निकलते और देर रात लौटते।
''सुनोजी मैं बिसेस काज से दिल्ली जा रहा हूँ, सप्ताह भर में
लौटूँगा, तुम्हें भय तो नहीं लगेगा?''
''मैं किसी से नहीं डरती।'' एकदम सधी आवाज़ में अपूर्णा बोली
थी। दीपेन अकसर काम से दिल्ली-कलकत्ता करते रहते। एक दिन कुछ
ज़्यादा ही विचलित दिखाई पड़ रहे थे।
''सुबह से देख रही हूँ, बरामदे में चहलक़दमी कर रहे हैं, कोई
परेशानी है तो बताइए।''
और दीपेन ने पहली बार नज़र भर कर देखा था अठारह बरस की उस दिलेर
लड़की को।
''जानती हो, मेरे जीवन का एक मिशन है, एक ध्येय -
आज़ादी...सुराज...अपना देश...अपना राज...किसी की गुलामी
नहीं...सुराज...सुराज।''
अपूर्णा को लगा जैसे उसका
जन्म फिर अर्थ खोजने लगा। वह अपना टूटा तार फिर से जोड़ने लगी
और बुलंद इरादों से खड़ी हो गई दीपेन के साथ। कदम-कदम पर
ख़तरों से खेलना उसकी और दीपेन की दिनचर्या बन गई थी। दीपेन
गर्म दल के सक्रिय कार्यकर्ता थे, स्वतंत्रता की ललक सर चढ़कर
बोल रही थी। एक दिन उन्होंने अँग्रेज़ कलेक्टर पर बम फेंका,
उन पर मुकदमा चला और वंदेमातरम का नारा लगाते वे फाँसी के फंदे
पर झूल गए। अपूर्णा ने वैधव्य का सिंगार ओढ़ लिया। सूना माथा,
सूने हाथ... शाखा-पोला, सब धरा का धरा रह गया। फिर पंद्रह
अगस्त आया...स्वतंत्रता मिली...मिशन पूरा हुआ... खित्तदा का
मिशन... दीपेन का मिशन। अपूर्णा का मिशन भी ठीक उसी रोज़ पूरा
हुआ।
''मुबारक हो दीदी, बेटा हुआ है... नाम सोचा है कुछ? सुराज।''
अपूर्णा की मुँदी आँखों से जलधार बह निकली।
आज भी नयन कोर गीले हो गए
बूढ़ी अपूर्णा के। किंतु नहीं... वह अपूर्णा थी ही कब... वक्त
के हाथों नाचती कठपुतली थी वह। उसे गाना अच्छा लगता था, पर
बाबा की इच्छा थी वह पढ़े, उसने पढ़ा-बंगला, हिंदी और थोड़ी अंग्रेज़ी भी। खित्तदा ने सिखाया देश पर उत्सर्ग होना...खुद
उत्सर्ग हो गए। दीपेन की संगिनी बनी...दीपेन ने साथ छोड़ दिया।
नीरा दी उसे कितना भाती थी। भर हाथ लाल-लाल चूडियाँ, ताँत की
लाल पाड़ की साड़ी, माथे पर बड़ी-सी टिकुली और माँग में
टिहु-टिहु लाल सिंदूर। वह देखती थी खुद को... ऐसे ही चूड़ियाँ
छनकाते...सुराज के पीछे भागते...वह चाहती थी कि सुराज उसे
दौड़ा-दौड़ाकर थका दे... पूछ-पूछकर, बोल-बोलकर माथा झुका दे।
पर सुराज बिलकुल उलट था। शुरू से ही धीर-गंभीर, समझदार। वह
बहुत भाँपकर चलता था कि कभी उसके किए से माँ को कोई तकलीफ़ न
पहुँचे, बहू भी खूब ध्यान रखती थी अपूर्णा का।
लेकिन फिर भी, ज़िंदगी शायद
नाम ही समझौतों का है। जब सुराज के बड़े बेटे को कनाडा जाना था
नौकरी करने, तब वह कितना आहत हुई थी। पढ़ाई-लिखाई की यहाँ,
लायक बनाया इस देश ने और सेवा करने चल दिया दूसरे देश? सुराज
ने समझा-बहला दिया उसे। फिर उस रोज़ जब पासपोर्टवाला बाबू
छानबीन करने आया था घर और पोते ने धर दिया था उसकी हथेली पर सौ
का एक नोट, तब सुराज ने तो अनदेखा कर दिया पर वह न कर सकी...
बिलकुल ही टूट गई वह। क्या इसी दिन के लिए जान हथेली पर लिए
फिरते थे हम सब... क्या इसी दिन के लिए खित्तदा ने, दीपेन ने
अपनी जान उत्सर्ग की? उसकी ज़िंदगी का आधे से अधिक हिस्सा,
सुराजेर माँ के नाम से जाना जाता रहा... क्या यही था
सुराज?
हिम जाग गया था और दा-दी
पुकारकर उससे लिपट गया। कितनी मिठास थी इस एक संबोधन में -
जैसे उसके मन का सारा अवसाद ब्लॉटिंग पेपर की तरह जज़्ब कर
लिया हो हिम ने। वह झूल गया था दादी की टहनी-सी बाँह पर और लगा
जैसे उसने हिला दी हो डाली फूलों की - ''तुम को फूला माँगता?''
...और हर ओर जैसे हरसिंगार के सफ़ेद-सिंदूरी फूल-ही-फूल बिखर गए
हों। ज़िंदगी आँख मिचौली खेलती उसी से पूछ रही थी। कौन हो तुम
- पूर्णा... या अपूर्णा... |