खुले मैदान में अर्जुनदास कुर्सी पर बैठा सुस्ता रहा था। मैदान
में धूल में उड़ रही थी, पाँवों को
मच्छर काट रहे थे, उधर शाम के साए उतरने लगे थे और अर्जुनदास
का मन खिन्न–सा होने लगा था।
जिन बातों ने जिंदगी भर परेशान नहीं किया था, वे जीवन के इस
चरण में पहुँचने पर अंदर ही अंदर से
गाहे–बगाहे कचोटने–कुरेदने लगती थी। अनबुझी–सी उदासी, मन पर
छाने लगती थी। कभी–कभी मन में सवाल उठता, अगर फिर से जिंदगी
जीने को मिल जाती तो उसे मैं कैसे जीता? क्या करता, क्या नहीं
करता? यह तय कर पाने के लिए भी मन में उत्सुकता नहीं थी। थका–थका
सा महसूस करने लगा था।
यों तो ऐसे सवाल ही निरर्थक होते हैं पर उनके बारे में सोचने
के लिए भी मन में उत्साह चाहिए, जो इस समय उसमें नहीं था। जो
कुछ जीवन में आज तक करता आया हूँ शायद
फिर से वही कुछ करने लगूँगा, पर ज्यादा
समझदारी के साथ, दायें–बायें देखकर, सोच–सूझकर, अंधाधुंध
भावुकता की रौ में बहकर कुछ नहीं करूँगा।
अपना हानि–लाभ भी सोचकर और इतनी जल्दबाजी में भी नहीं जितनी
जल्दबाजी में मैं अपनी जिंदगी के फैसले करता रहा हूँ।
सोचते–सोचते ही उसने अपने कंधे बिचका दिए। क्या जिंदगी के अहम
फैसले कभी सोच–समझकर भी किए जाते हैं?
साए
और अधिक गहराने लगे थे। मैदान में बत्तियाँ जल उठीं थी।
लंबे–चौड़े मैदान के एक ओर मंच खड़ा किया गया था। मंच पर
रोशनियाँ, माइक्रोफोन आदि फिट किए जा रहे थे, मंच ऊँचा था लगभग
छह फुट ऊँचा रहा होगा। मंच के नीचे, दायें हाथ को कनात लगाकर
कलाकारों के लिए वेशभूषा कक्ष बना दिया गया था। अभी से कनात के
पीछे से तबला हारमोनियम बजने की आवाजें आने लगी थी।
युवक–युवतियाँ नाटक से पहले पूर्वाभ्यास करने लगे थे।
अपनी–अपनी वेशभूषा में सजने लगे थे।
मंच को देखने पर उसके मन में पहले जैसी हिलोर नहीं उठी थी। इसी
पुराने ढर्रे पर अभी भी हमारा रंगमंच चल रहा है। दुनिया कहाँ
से कहाँ पहुँच गई है, हम अभी भी वहीं पर खड़े हैं जहाँ पचास साल
पहले खड़े थे। फटीचर–सा मंच खड़ा किया करते थे। बिजली की रोशनी
नहीं मिलती तो गैस के लैंप उठा लाते। रात पड़ जाती तो वहीं मंच
पर अभिनय के बाद सो भी जाते थे। तब भी न जेब में पैसा था न
कहीं से चंदा उगाह पाते थे। बस, खेल दिखाओ, दर्शकों के सामने
झोली फैलाओ और खर्च निकाल लो। कोई दुवन्नी डाल देता, कोई
चवन्नी, कभी कोई दर्शक अधिक भावुक हो उठता तो चमकता रुपए का
सिक्का डाल देता। मैं और मेरे साथी, सबकुछ भूले हुए इसी काम
में मस्त थे। इसी काम में सारी जवानी
खप गई। न जाने कैसे खप गई। उन दिनों भी अर्जुनदास के पाँवों
में फटे हुए सस्ते चप्पल हुआ करते थे, आज भी वैसे ही चप्पल है,
केवल अब जिंदगी ढलने लगी है। बहुत से साथी काल प्रवाह में बहते
हुए न जाने किस ठौर जा लगे हैं। अब वह स्वयं बहुत कम अभिनय कर
पाता है, साँस फूलने लगती है, आवाज बैठ जाती है, माथे पर पसीना
आ जाता है और टाँगे काँपने–थरथराने लगती है।
मैदान में युवक–युवतियाँ
अब अधिक संख्या में इकठ्ठा होने लगे थे। कुछेक बड़ी उम्र के
संयोजकों को छोड़कर बहुत कम लोग इसे जानते–पहचानते थे। कुछ लोग
दूर से इसकी ओर इशारा करते। वह रंगमंच का 'खलीफा' बन गया था,
छोटा–मोटा नेता। इस रंगोत्सव में उसे पुरस्कार देने के लिए
बुलाया गया था। आज से नाट्य–समारोह शुरू होने जा रहा था।
संयोजक उसकी खातिरदारी कर
रहे थे। सब कुछ था, पर मन में वह उछाह नहीं था, जो कभी रहा
करता था।
समारोह आरंभ होने में अभी देर थी। अब इस तरह के कार्यक्रम
अर्जुनदास से निभते भी नहीं थे। नौ बजे का वक्त देते हैं, दस
बजे शुरू करते हैं। दर्शक लोग भोजन करने के बाद, पान चबाते,
टहलते हुए आएँगे गप्पे हाँकते। कहीं कोई उतावली नहीं होगी, कोई समय का
ध्यान नहीं होगा। यहाँ पर वक्त की पाबंदी कोई अर्थ नहीं रखती।
किसी से पूछो, "नाटक कब शुरू होगा?" तो कहेंगे, "यही नौ–दस
बजे।" "समाप्त कब होगा?" "यही ग्यारह–बारह बजे।" "अध्यक्ष
महोदय कब आएँगे?" "बस आते ही होंगे।" वह जानता था कि नाटक
अधकचरा होगा। मंच की साज–सज्जा से ही उसका नौसिखुआपन झलक रहा था। इसके मन
में टीस उठने का एक कारण यह भी रहा था। अभिनय और कला कहाँ से
कहाँ पहुँच चुकी है पर हमारा यह रंगमंच अभी भी पुराने ढर्रे पर
चल रहा है। आज रंगमंच में प्रविधि के स्तर पर एक विशेष निपुणता आ गई है। रोशनी का
प्रयोग मंच की सज्जा, वेश–भूषा, चुस्ती–मुस्तैदी, वह नहीं कि
धूल भरे मैदान में – जहाँ पानी का छिड़काव कराने तक के लिए पैसे
संयोजकों की जेब में न हों – और फटे–पुराने पर्दे और कनातें और
मुड़ी–निचुड़ी दरियाँ, और जहाँ हाथों से, खींच–खींचकर पर्दा
गिराया जा रहा हो, और वह भी पूरी तरह स्टेज को ढक नहीं पाए और
पर्दे के पीछे, इधर से उधर भागते अभिनेता नज़र आ रहे हों। पर
ऐसे ही रंगमंच पर अर्जुनदास ने जिंदगी बिता दी थी।
वह जानता था नाटक बेढंगा
होगा, न ढंग की, वेशभूषा, प्रांपटर की आवाज पर्दे के पीछे से
एक्टर की आवाज से ज्यादा ऊँची सुनाई देगी। केवल संवादों के बल
पर नाटक चलेगा, या फिर गीतों के बल पर, वे असरदार हुए तो नाटक
जम जाएगा, वरना वह भी नहीं जमेगा। युवा अभिनेता पंक्तियाँ
भूलेंगे, स्टेज पर डोलते रहेंगे, एक–दूसरे का रास्ता काटते
रहेंगे। तुम लोग केवल भावना के बल पर नाटक का अभिप्राय दर्शकों
के दिल में उतारना चाहते हो, अब यह नहीं चलेगा। लोग नफासत माँगते हैं, और कला और
अभिनय का ऊँचा स्तर और मंच कौशल। अनगढ़ नाटक के दिन बीत गए यहाँ
लोग आएँगे, सैंकड़ों की संख्या में भले ही लोग इकठ्ठा हो
जाएँगे, पर वह तुम्हारे नाटक के कारण नहीं वे तफरीह चाहते हैं,
जिसे तुम मुफ्त में जुटा रहे हो, इसलिए आएँगे। तुम्हारी कला
देखने नहीं आएँगे, रात को खाना खा चुकने के बाद पान चबाते हुए, यहाँ घड़ी दो घड़ी
मन बहलाने आएँगे। वह भी इसलिए कि तुम अपने खेल मुफ्त में
दिखाते हो, टिकट लगाते तो कोई देखने नहीं आता।
आज से दसियों साल पहले भी यही स्थिति थी। एक जगह पर नाटक खेलते
फिर वहाँ से भागते हुए बगल में वेशभूषा का बुक्का दबाए किसी
दूसरी बस्ती में नाटक खेलने पहुँच जाते। सिर पर जुनून तारी था,
वरना धैर्य से सोच–विचार करते थे समझ जाते कि इस तरह यह गाड़ी
दूर तक नहीं जा पाएगी कि लोग थक जाएँगे, नाटक खेलने वाले थक
जाएँगे, दर्शक उब जाएँगे।
आज ही प्रातः कुछेक पुराने रंगकर्मियों की चौकड़ी जमी थी। वे सब
युवा नाट्य समारोह को एक तरह से आशीर्वाद देने आए थे। उनमें अर्जुनदास भी था।
अर्जुनदास की पत्नी कमला भी थी। दो–एक अन्य स्त्रियाँ भी थीं
जो किसी जमाने में इनके साथ गान मंडली आदि में भाग लिया करती
थीं। सभी मिल बैठे गप्प लड़ा रहे थे। पुराने दिनों को याद कर
रहे थे। अपने–अपने अनुभव, किस्से सुना रहे थे, पुराना उत्साह
मानो फिर से जाग उठा था। तरह–तरह के अनूठे अनुभवों, जोखिम भरे
अनुभवों की चर्चा चल रही थी।
"याद है? जब कि . . .बस्ती में 'शिखरिणी' खेला था?" अर्जुनदास
सुना रहा था, "रात इतनी देर से शो खत्म हुआ कि सामान
समेटते–समेटते एक बज गया। सभी बसें बंद, गाड़ियाँ बंद, कुछ
हमारे साथी तो शो खत्म होते ही निकल गए थे, वे तो घरों को
पहुँच गए, रह गया मैं और रमेश। हम रात को वहीं मंच पर पसर गए।
जाते भी कहाँ? सुबह उठकर सामान बाँधा, एक बैलगाड़ी भाड़े पर ली,
सारा सामान लादा और सामान के अंबार के ऊपर हम दोनों बैठ गए,
"कहते–कहते अर्जुनदास की आँखों में पहले–सी चमक आ गई, "और
बैलगाड़ी धीरे–धीरे एक सड़क से दूसरी सड़क और हम सामान के ऊपर
बैठे गीत गा रहे थे, एक गीत के बाद दूसरा गीत, बैलगाड़ी रेंगती
हुई, सुबह दस बजे की निकली दोपहर चार बजे कार्यालय के सामने
जाकर रूकी। सारा दिन इसी में निकल गया पर उसी शाम शो भी हुआ,
और शो के बाद हम लोग घर
पहुँचे। ऐसे भी दिन थे . . .
इस पर कोई दूसरा रंगकर्मी अपनी आपबीती सुनाने जा ही रहा था जब
अर्जुनदास की बगल में बैठी उसकी पत्नी बोली, "तुम तो दिन भर
बैलगाड़ी पर बैठे गीत गा सकते थे, शहर भर की सैर कर सकते थे,
तुम्हें मैं जो मिली हुई थी, घर में पिसने वाली।"
कमला ने कहा तो मजाक में
कहने के बाद स्वयं हँस भी दी, पर इससे अर्जुनदास सिमटकर चुप हो
गया।
पंजाब का एक वयोवृद्ध साथी सुना रहा था, "एक नाटक था,
'कुर्सी', तुम्हें याद होगा। उस नाटक पर सरकार ने रोक लगा दी
थी। पर हमने वह नाटक अजीब ढंग से खेला। एक जगह खेलते तो फौरन
ही बाद, बस में बैठकर अगले शहर जा पहुँचते, वहाँ खेलते और फिर
अगले शहर के लिए रवाना हो जाते। पुलिस पीछे–पीछे, हम आगे–आगे .
. ."
पुलिस की चर्चा चली तो
अर्जुनदास को अपना एक और किस्सा याद हो आया –
"मेरे खिलाफ वारंट तो नहीं था। पर मुझे शहर में घुसने की इजाजत
नहीं थी। पर वहाँ हमारी केन्द्रीय कार्यकारिणी की बैठक होने
वाली थी। मुझे वहाँ पहुँचना था, मैं लुक–छिपकर पहुँच गया। एक
स्कूल की ऊपर वाली मंजिल पर मीटिंग चल रही थी। अब मैं मीटिंग
में अपनी बात कह ही रहा था जब खबर मिली कि बाहर पुलिस पहुँच गई
है। मैं समझ गया कि मुझे
ही पकड़ने आई होगी। मैंने अपनी बात खत्म की, अभी बहस चल ही रही
थी कि मैं चुपचाप उठा और कमरे के बाहर आ गया। स्कूल का गलियारा
लाँघकर मैं पिछवाड़े की ओर जा पहुँचा। स्कूल के पीछे कोई मंदिर
था। उस वक्त शाम के साए उतरने लगे थे और मंदिर में सायंकाल की
आरती चल रही थी। घंटियाँ बज रही थी। गर्मी के दिन थे। मैं ऊपर बरामदे में खड़ा था।
मैंने बुश्शर्ट उतारी और उसकी दोनों आस्तीनें कमर में बाँध ली
और उसकी छत पर से कूद पड़ा और सीधा मंदिर के आँगन में जा उतरा।
जमीन कच्ची थी, मुझे चोट नहीं आई। फिर मैंने वैसे ही भक्तों की
तरह, बुश्शर्ट को कमर में से उतारकर कंधे पर रखा और धीरे–धीरे
टहलता हुआ बाहर निकल आया। मंदिर के फाटक के ऐन सामने सड़क पर एक
सिपाही खड़ा था। उससे थोड़ा हटकर दाईं ओर को, एक और सिपाही तैनात
था। दोनों के हाथ में
लाठियाँ थी, बहुत से भक्त आ जा रहे थे, सिपाही ने मेरी ओर कोई
ध्यान नहीं दिया। मैं बाहर आ गया और दाएँ हाथ को टहलता हुआ आगे
बढ़ने लगा। ज्यों ही मैं अंधेरे में पहुँचा कि मैं सरपट दौड़ने
लगा, ऐसा भागा कि शहर के दूसरे कोने में ही जाकर दम लिया जहाँ
हरीश, मेरा मित्र रहता था . . ."
इस जोखिम भरी घटना के ब्योरे को सुनते हुए भी उसकी पत्नी के मन
मे क्षोभ–सा उठा था। उसे भी वह दिन याद आ गया था। उसे याद आ
गया था कि उसी दिन उनकी बिटिया को खसरा निकला हुआ था और उसे
तेज बुखार था, और थकी–मादी वह बच्ची के सिरहाने बैठी घड़ियाँ
गिन रही थी कि कब उसका पति घर लौटेगा और बेटी के उपचार का कोई
प्रबंध कर पाएगा।
जिस मस्ती में अर्जुनदास का लड़कपन और जवानी बीते थे उसका
आकर्षण अब कुछ मंद पड़ चुका था, स्वयं अर्जुनदास की नजर मंद पड़
चुकी थी। इतना वक्त इस काम को दिया, क्या तुक थी।
उसके इस जुनून की आलोचना, उसकी पत्नी, उन बीते दिनों में किया
करती थीं। वह सुन लिया करता था और सिर झटक दिया करता था या हँस
दिया करता था, क्योंकि उन दिनों उसे इस काम की सार्थकता में
गहरा विश्वास था। पर अब, वर्षों बाद उसका विश्वास शिथिल पड़ने
लगा था, और उसके साथ उसका आग्रह भी मंद पड़ने लगा था, और उसी
समय से उसके अंदर एक प्रकार की अपराध भावना भी बढ़ने लगी थी, कि
वह मात्र अपनी आदर्शवादिता और जुनून में खोया रहा है, कि वह
अभी भी व्यवहार के धरातल पर नहीं उतरा, अपने दायित्व नहीं
निभाए, एक तरह से कहो तो 'स्वान्तः सुखाय' ही जीता रहा है।
उसकी नजर फिर मंच पर पड़ी। अब वहाँ पहले से ज्यादा गहमागहमी थी।
बार–बार माइक्रोफोन पर कुछ न कुछ बोला जा रहा था। माइक्रोफोन
को टेस्ट किया जा रहा था। पर्दे पर बार–बार खींचा–खोला जा रहा
था। बहुत से बच्चे और लौंड़े–लपाड़े मंच के आसपास मंडराने लगे
थे। एक ऊँचा–लंबा, छरहरे शरीर वाला युवक, हाथ में एक कागज
उठाए, कभी एक ओर तो कभी दूसरी ओर मैदान में भागता फिर रहा था,
बार–बार माथे पर से बालों की लट को हटाता हुआ, वह शायद
कार्यक्रम का संयोजक था, कागज पर खेलने वालों के नाम होंगे,
जरूरी कामों की फेहरिस्त होगी, पर उसके चेहरे पर ऐसा भाव था
मानो सारे देश का संचालन उसी के हाथ में हो, जैसे उसके हाथ में
पकड़ा कागज का टुकड़ा, कोई सूची न होकर कोई ऐतिहासिक दस्तावेज
हो। अर्जुनदास को उसकी भागदौड़ में अपनी भागदौड़ की झलक नज़र आ
रही थी। कुछ बरसों बाद शायद इसका विश्वास भी शिथिल पड़ने लगेगा।
इस समय तो अगर इसके हाथ से कागज का टुकड़ा गिर जाए तो मानों
पृथ्वी की गति थम जाएगी। उसकी ओर देखते हुए अर्जुनदास के अंदर
विचित्र–सी भावनाएँ उठ रही थीं, कभी स्फूर्ति की लहर दौड़ जाती।
कभी संशय डोलने लगता, कभी उसके उत्साह में उसे बचकानापन नजर
आने लगता।
और अब युवक, हाथ में कागज का फड़का उठाए अर्जुनदास की ओर बढ़ता आ
रहा था। शायद रंगमंच की रूप–सज्जा तैयार हो गई है और खेल शुरू
होने वाला है। संभवतः युवक उसे कोई सूचना देने या बुलाने आ रहा
है। चलिए, देर आए दुरुस्त आए, ज्यादा देर इंतजार नहीं करना
पड़ा। ग्यारह बजे तक भी खेल समाप्त हो जाए तो जल्दी छुटकारा मिल
जाएगा।
लड़का पास आ गया था। अर्जुनदास ने कुर्सी पर से टाँगें हटा लीं।
पर युवक खड़ा रहा। बुजुर्ग के सामने उसे कुर्सी पर बैठने में
झेंप हो रही थी।
"कहो बरखुरदार, सब तैयारी हो गई? अब पर्दा उठने वाला है?"
"नहीं साहिब, हमारे दो कलाकार अभी तक नहीं पहुँच पाए हैं।
उन्हें स . . .से आना है, उन्हें पहुँचने में देर हो गई है।"
अर्जुनदास के मन में खीझ उठी पर वह चुप रहा। स्वयं अतिथि होने
के कारण कुछ कहते नहीं बनता था। ओखली में सिर दिया तो रोना
क्या।
"क्या वे स . . .से आ रहे हैं?"
"जी!"
"वह तो बहुत दूर है।"
"जी पर बसें, हर आधे घंटे के बाद चलती रहती हैं। उन्हें अब तक
पहुँच जाना चाहिए था।"
अर्जुनदास चुप रहा। यह सोचकर कि वे दोनों युवक इस आयोजन में
भाग ले पाने के लिए इतनी दूर से बसों में धक्के खाते
पहुँचेंगे, दो घंटे के शो के लिए दस घंटे का सफर तय करके आएँगे
और फिर कल लौट जाएँगे। यह मौका शिकायत करने का नहीं था।
अर्जुनदास ने युवक की ओर देखा। बड़ा प्यारा–सा लड़का था, मसें
भीग रही थीं, चेहरे पर जवानी की लुनाई थी, आखों में स्वच्छ–सी
चमक जिसका भास सायंकाल के इस झुटपुटे में भी हो जाता था।
"बैठो।" अर्जुनदास ने खाली कुर्सी की ओर इशारा करते हुए कहा।
लड़का कुछ सकुचाया, फिर बैठ गया।
"सर, आपसे एक अनुरोध है, आप मेरी सहायता करें।"
"क्या बात है?"
"सर, आप मेरे पिताजी को समझाएँ। वह नहीं चाहते कि मैं रंगमंच
का काम करूँ।"
"वह क्या चाहते हैं?"
"वह चाहते हैं मैं नौकरी करूँ, कोई सरकारी नौकरी। वह इसे फिजूल
काम समझते हैं, आप समझाएँगे तो वह समझ जाएँगे।"
अर्जुनदास ने हँसकर कहा, "मैं क्या समझाऊँगा। मैं तो बाहर का
आदमी हूँ। मैं तुम्हारी परिस्थितियों को तो नहीं जानता हूँ।"
"नहीं सर आपने बहुत काम किया है आपको जिंदगी भर का अनुभव है।"
अर्जुनदास को अपनी जवानी के दिन याद आए। वह दिन भी जिस दिन
उसने स्वयं रंगमंच के साथ नाता जोड़ा था। पर वह तो किसी से
परामर्श करने अथवा सहायता लेने नहीं गया था। उसने तो न पत्नी
से पूछा था, न घर वालों से, और इस काम में कूद पड़ा था। इसने कम
से कम अपने पिता की बात सुनी तो। इतनी समझदारी तो की।
"अभी तुम व्यस्त हो, तुम्हारा शो हो जाए अभी मैं यहीं पर हूँ।
बाद में मिल–बैठकर बात करेंगे। यह मसला सुलझाना इतना आसान नहीं
है।"
"अच्छा सर, मैं कल आपसे मिलूँगा।"
और वह उठकर, कदम बढ़ाता रंगमंच की ओर चला गया।
इस युवक ने अर्जुनदास की पुरानी यादों को और ज्यादा कुरेद दिया
था।
रंगमंच के साथ जुड़ने से पहले वह देश के स्वतंत्रता संग्राम की
ओर उन्मुख हुआ था। न जाने वह भी कैसे हुआ। शायद इसलिए कि
वातावरण में अजीब सी धड़कन पाई जाती थी, अजीब सा तनाव और
आत्मोत्सर्ग की भावना। दिल में भावनाओं के ज्वार से उठते थे और
एक दिन वह खादी का कुर्ता–पायजामा पहनकर घर के बाहर निकल आया
था। बात मामूली–सी थी, खादी का कुर्ता–पायजामा पहनने में क्या
रखा है, लेकिन उसकी नजर में यह देश–सेवियों का पहरावा था।
विद्रोह का प्रतीक था। इसे पहनना देश के विराट आंदोलन के साथ
जुड़ना था, उसे बार–बार रोमांच हो रहा था, उसे लग रहा था जैसे
वह किसी घेरे को तोड़कर बाहर निकल आया है, और ठाठें मारते किसी
महानगर में कूद गया है।
रंगमंच की ओर भी वह कुछ इसी तरह से ही आकृष्ट हुआ था। बंगाल
में दुर्भिक्ष पड़ा था और बंगाल से कलाकर्मियों का एक दल उसके
शहर में आया था। वे लोग बंगाल के सँकट को नाटक–संगीत द्वारा
प्रस्तुत कर रहे थे। उस दिन वह शाम को घूमने के लिए
कैन्टोन्मेंट की तरफ निकल गया था। आम तौर पर वह सैर करने के
लिए खेतों की ओर निकल जाया करता था, उस दिन अनायास ही उसके
पाँव इस ओर को उठ गए थे। उसे इस अभिनय की जानकारी भी नहीं थी।
घूम चुकने पर वह घर की ओर लौट रहा था जब एक सिनेमाघर के सामने
उसे छोटी सी भीड़ खड़ी नजर आई थी और अर्जुनदास कुतूहलवश उस ओर
चला गया था।
पर्दा उठने पर एक वयोवृद्ध व्यक्ति, कोई अभिनेता, जो वयोवृद्धा
व्यक्ति की भूमिका निभा रहा था, पीठ झुकी हुई, सफेद दाढ़ी, हाथ
में हरीकेन लैंप उठाए मंच पर आया था और काँपती आवाज में बोला
था, "सुनोगे? अभागे बंगाल की कहानी सुनोगे?"
और अर्जुनदास को जैसे बिजली छू गई थी। और उसके बाद जितने दृश्य
सामने आए थे सभी उद्वेलित करने वाले, सभी उसके दिल को मथते रहे
थे। लगभग डेढ़ घंटे तक कार्यक्रम चलता रहा था, अनेक गीत थे,
वृंदगान के रूप में, कुछ हिंदुस्तानी में, कुछ बंगला में, सभी
हृदयस्पर्शी, दिल को गहरे में छूने वाले, वह पहली बार ऐसा नाटक
देख रहा था जो अन्य नाटकों से भिन्न था। मंच–सज्जा न के बराबर
थी, अनगढ़–सी पर हाल में बैठे लोग मंत्र–मुग्ध से देखे जा रहे
थे। दृश्य श्रृंखलाबद्ध भी नहीं थे। पर उनमें कुछ था जो सीधा
दिल में उतरता था।
और अंत में उसी वयोवृद्ध ने मंच पर से उतरकर दुर्भिक्ष–पीड़ितों
के लिए झोली फैलाई थी और झोली फैलाए दर्शकों की पाँतों के
सामने आने लगा था। तभी अर्जुनदास के आगे वाली सीट पर बैठी एक
भावविह्वल युवती ने अपने कानों में से झिलमिलाते सोने के झूमर
उतारकर वयोवृद्ध की झोली में डाल दिए थे, और उसी क्षण मानो
अर्जुनदास के जीवन का काँटा भी बदल गया था।
तब भी उसने किसी से परामर्श नहीं किया था और रंगकर्मियों की
टोली में शामिल हो गया था।
यह मेरे स्वभाव का ही दोष रहा होगा कि मैं भावोद्वेग में अपना
संतुलन खो बैठता हूँ और बिना हानि–लाभ पर विचार किए बिना
आगा–पीछा देखे, कूद पड़ता हूँ। पर यह स्वभाव का दोष केवल मेरा
ही तो नहीं रहा। अनेकानेक लोगों का रहा है और वे कितने
निखरे–निखरे व्यक्तित्व वाले लोग थे। कितने सच्चे, कितने
ईमानदार।
उसकी आँखों के सामने दूर अतीत का किसी जलसे का दृश्य घूम गया।
तब वह बहुत छोटा सा था, स्कूल में पढ़ता था। न जाने वह आदमी कौन
था, उन दिनों नमक का कानून तोड़ने का आंदोलन चल रहा था। भरे
जलसे में, जहाँ मंच पर गैस का लैंप जल रहा था, और समूचे जलसे
के लिए यही एक रोशनी थी, एक आदमी मंच पर चढ़कर आया था। छोटी सी
सिर पर पगड़ी, पतली–पतली सी मूंछें, हाथ उठाकर उसने एक शेर पढ़ा
था :
"वह देख सितारा टूटा है,
मगरब का नसीब फूटा है।"
और उसके साथ ही जेब में से एक कागज की पुड़िया निकाल लाया था,
और गैस की रोशनी में सभी को दिखाते हुए ऊँची आवाज़ में बोला था,
"साहिबान, यह नमक की पुड़िया है। आज मैंने नमक कानून तोड़ा है।
यह मेरी बापू को छोटी–सी भेंट है। छोटी नदी के किनारे पानी को
सुखाकर नमक तैयार किया गया है। वंदे मातरम्!" कहकर मंच पर से
उतर गया था। हॉल तालियों से गूँज उठा था। श्रोताओं के आगे वाली
पाँत में पुलिस के तीन बावर्दी अफसर कुर्सियों पर बैठे थे और
भीड़ के पीछे मैदान में ही एक सिरे पर पुलिस की सींखचों वाली
गाड़ी खड़ी थी। जलसा अभी खत्म ही हुआ था कि उसे हथकड़ी लगा दी गई
थी और उसे पुलिस की गाड़ी में धकेलकर बंद कर दिया गया था और देर
तक जब तक बंद गाड़ी दूर नहीं चली गई, उसके नारे सुनाई देते रहे
थे, "इंकलाब जिंदाबाद!" बोल महात्मा गांधी की जय।" और वह जैसे
ही लोगों की आँखों के सामने आया था वैसे ही ओझल भी हो गया था।
क्या मालूम उस रोज अर्जुनदास, बंगाल के दुर्भिक्ष से जुड़े
अभिनय को देखने हॉल में अचानक प्रवेश नहीं कर जाता तो कभी इस
रास्ते आता ही नहीं। क्या मालूम हॉल में अर्जुनदास के सामने
बैठी युवती ने अगर सोने के झूमर उतारकर उस अभिनेता की झोली में
नहीं डाल दिए होते तो उसकी जिंदगी का काँटा नहीं बदलता। कौन
जाने? क्या मालूम जिंदगी का काँटा बदलने के लिए कोई और कारण बन
जाता।
उसके कानों में फिर से उसकी पत्नी का वह वाक्य गूँज गया। जिसे
वह अकसर कहा करती थी, "तुम्हें ब्याह नहीं करना चाहिए था। तुम
जैसे लोग ब्याह करके अपने घर वालों को भी दुखी करते हैं और खुद
भी दुखी होते हैं . . ."
जिंदगी में अनेक अवसरों पर उसकी पत्नी उसे झिंझोड़ती रही थी।
अपने बच्चों का वास्ता डालती रही थी। सुबह से शाम तक घर के
कामों में पिसती रही थी पर अर्जुनदास के सिर पर तो जुनून सवार
था। बंबई में कांग्रेस का अधिवेशन था। अर्जुनदास को तो जाना ही
जाना था। "तुम भी चलो।" उसने अपनी पत्नी से कहा। पर छोटे–छोटे
दो बच्चों को छोड़कर कैसे जाती? "देश सेवा का काम तो मर्दों के
लिए बना है, तुम ही जाओ। मैं घर में ठीक हूँ।" और अर्जुनदास
बुक्का उठाकर चला गया था।
हर बार ऐसा ही होता था। बुक्का उठाकर चल देता था।
अर्जुनदास को धनोपार्जन के लिए और तो कोई धंधा नहीं सूझा था,
उसने पुस्तकों की दुकान खोल ली थी। यह काम रंगकर्म के आड़े नहीं
आता था। कभी–कभी छोटी–मोटी पूँजी लगाकर पुस्तकें प्रकाशित भी
कर देता। पर दुकान खोल देना एक बात है, उसे चलाना, बिल्कुल
दूसरी बात। लोग–बाग मुफ्त में पुस्तकें उठाकर ले जाते। अपने
पैसे लगाकर पुस्तक छापता, पुस्तक–विक्रेता महीनों तक अदायगी
नहीं करते। दुकान पर मित्रों, रंगकर्मियों का ताँता लगा रहता।
सभी अर्जुनदास की जेब से चाय पीते और गप्पें हाँकते, कुछ लोग
अपनी घटिया किताबें छपवा लेते। उसी दुकान में ही गान–मंडली की
रिहर्सलें होती, ऊँची–ऊँची तानें उठतीं।
कमला को पता चलता तो मन ही मन कुढ़ती रहती, अंत में जब बच्चे
कुछ बड़े हुए तो वह स्वयं दुकान पर जाकर बैठने लगी थी। इससे कुछ तो इस
महादानी पर अंकुश लगेगा, चाय की प्यालियाँ कुछ तो कम होंगी, और
इसके निगोड़े साथियों को कुछ तो शर्म आएगी। पर दुकान पर बैठने
का मतलब था, घर पर भी पिसो और अब दुकान पर भी। तभी कमला ने
निश्चय किया कि वह किसी स्कूल में नौकरी कर लेगी। जिस दिन उसे
एक प्राइमरी स्कूल में नौकरी मिली और उसने दुकान पर लड्डू बाँटें,
उसी दिन अपने पति से यह कह भी दिया, "अब तुम स्वतंत्र हो, जो
मन में आए करो।" और ऐन इसके महीने भर बाद अर्जुनदास जेलखाने
में पहुँच गया था।
बंबई में जहाजियों की बगावत हुई थी। जगह–जगह पर विरोध–प्रदर्शन
हुए थे और पकड़–धकड़ शुरू हो गई थी। कमला ने दुकान को ताला लगाया
और घर चली आई। सारा रास्ता मन को समझाती रहीः
"उसे पकड़े तो जाना ही था। वह कुछ भी नहीं करता तो भी सरकार इसे
पकड़ ले जाती।"
पूरे दो साल तक अर्जुनदास जेल में रहा था। और पूरे दो साल तक
कमला, प्रति सप्ताह उसे मिलने पाँच मील दूर, जेलखाने जाती रही
थी। जीवन की कठिनाइयों को देखने के अलग–अलग नजरिए होते हैं।
कमला ने अर्जुनदास की सरगर्मियों को स्वीकार कर लिया था। वह
जानती थी कि वह उन्हें छोड़ेगा नहीं। इसी ढर्रे पर उसका जीवन
चलेगा। जब कठिनाई बढ़ जाती तो वह रो देती। पर मन ही मन उसने
अपनी नियति को स्वीकार कर लिया था और नियति को स्वीकारने का एक
परिणाम यह भी हुआ था कि कमला की भावनाओं में से कटुता और
झल्लाहट कम होने लगी थी, और कभी–कभी उसके मन में अपने प्रति
सहानुभूति–सी भी उठने लगी थी। करता है, पर कोई बुरा काम तो
नहीं करता, अपनी भूख–प्यास भी तो भूले हुए है।
जब अर्जुनदास जेल से छूटकर आया तो वह वामपंथी बनकर लौटा था।
जेल के अंदर कुछ ऐसे देशभक्त भी थे जो मार्क्स और लेनिन की
चर्चा किया करते थे, अर्जुनदास उनकी बातें सुनता रहता, उनकी दी
हुई किताबें पढ़ता। कहने को तो वह भी अनायास ही हुआ था। अगर उसी
जेल में दर्शनसिंह कैद होकर नहीं आता तो अर्जुनदास पर
मार्क्सवादी विचारों का रंग नहीं चढ़ता। पर ये सब कहने की बातें
हैं। होता वही है जो होकर रहता है।
आजादी आई। देशवासियों के हाथ में सत्ता की बागडोर आई। उसके
अनेक साथियों ने हवा का रूख देख लिया और समझ गए कि अब
जेलयात्रा वाले आंदोलन नहीं चलेंगे। अर्जुनदास के बहुत से
पुरानी साथी छिटक गए। पर अर्जुनदास तो यह कहता फिरता था कि
स्वतंत्रता–आंदोलन अभी समाप्त नहीं हुआ है बल्कि अब तो निर्माण
कार्य होगा न्यायसंगत
समाज की स्थापना के लिए संघर्ष होगा।
मतलब कि अर्जुनदास की गाड़ी पहले की ही भाँति चलती रही। उसकी
चाल बेढंगी ही रही। उन्हीं दिनों दिल्ली की एक सड़क पर उसे
देवराज मिला था। देवराज आकाशवाणी में नौकरी करता था और अच्छे
ओहदे पर था। उसने उसे आकाशवाणी में नौकरी करता था और अच्छे
ओहदे पर था। उसने उसे आकाशवाणी में नौकरी कर लेने का सुझाव
दिया था। देश का बँटवारा
हो गया था और शरणार्थी सड़कों पर मारे–मारे घूम रहे थे।
"बहुत सी नौकरियाँ निकली हैं। कहो तो बात करूँ?" देवराज ने कहा
था।
और अर्जुनदास ने देवराज की ओर यों देखा था मानो देवराज ने उसका
अपमान किया हो। वह और नौकरी? इस पर सरकारी
नौकरी? देवराज के मन में यह ख्याल ही कैसे आया था। उसी शाम
उसकी गान मंडली ने कनाट प्लेस के बड़े मैदान में अपना रंगारंग
प्रोग्राम प्रस्तुत करना था और नए गीत पेश करना था। यह तो वह
यों ही चाय का प्याला पीने एक ढाबे में चला आया था। देवराज को
इस बात का ख्याल ही कैसे आया कि मैं नौकरी के लिए दरख्वास्त
दूँगा और उसने देवराज को नाटक देखने का न्यौता दिया था। बहुत
दिन बाद, जब एक दिन, उसने डींग हाँकते हुए इस घटना की चर्चा
अपनी पत्नी से की थी तो उसने सुनकर मुँह फेर लिया था, "तुम्हें
घर परिवार की चिंता होती तो तुम नौकरी करते। तुम तो आदर्शवाद
के घोड़े पर सवार तीसमारखाँ बने घूम रहे थे। जमीन पर तुम्हारे
पाँव ही नहीं टिकते थे।" फिर तनिक संयत होकर बोली, "उस वक्त
रेडियो की नौकरी कर ली होती तो इस वक्त क्या मालूम तुम
डायरेक्टर होते, पंडारा रोड पर तुम्हें बंगला मिला होता, बाद
में पेंशन मिलती, मैं भी कुछ सीख–पढ़ लेती।"
उन्हीं दिनों अनेक अन्य अनुभव भी हुए। आजादी के बाद कुछ ही
सालों में बड़ा अंतर आ गया था। उसके अनेक साथी छिटककर अलग हो गए
थे। वैद्य रमानाथ का औषधालय चल निकला। हंसराज को ठेके पर ठेके
मिलने लगे। मोहनसिंह विदेशी दूतावासों के साथ संपर्क बढ़ाने
लगा, उनके पेम्फलैट छापता और देखते ही देखते उसने अर्जुनदास के
ही मुहल्ले में एक
दुमंजिला मकान खरीद लिया। वारे–न्यारे होने लगे।
उसकी आँखों के सामने बोधराज का चेहरा घूम गया। बोधराज
स्वतंत्रता संग्राम के विलक्षण सेनानी रह चुके थे। जीवन के
सोलह वर्ष जेलों में काट चुके थे, पर आजादी के बाद एक ही झटके
से मानों घूरे पर फेंक दिए गए थे। आजादी के बाद एक नई पौध उभरी
थी – सियासतदानों की। सियासतदान उभरने लगे थे और देशभक्त घूरे
पर फेंक दिए गए थे। आजादी के बाद पाँचेक साल में ही, वह आदमी
जो कभी घर–घर जाकर स्वतंत्रता–संग्राम के लिए लोगों को
उत्प्रेरित किया करता था, अब अपने मुहल्ले में पड़ा सड़ रहा था,
देश को कहीं भी उसकी जरूरत नहीं रह गई थी। और काम तो क्या
करता, लोगों के घर–घर जाकर तंबाकू नोशी के नुकसान समझाता फिरता
था और उनसे वचन लेता फिरता था कि वे सिगरेट नहीं पिएँगे।
हुआ यह कि हंसराज – जो आजादी के बाद ठेके लेने लगा था, बोधराज
को राजधानी में ले गया था। वहाँ वह उन्हें किसी केन्द्रीय नेता
के पास ले गया। केन्द्रीय नेता बड़े आदर–सत्कार के साथ बोधराज
से मिले थे, हंसराज को धन्यवाद कहा था कि उसके सौजन्य से वह एक अनन्य
देशसेवी के दर्शन कर पाए हैं। हंसराज ने ही यह सुझाव रखा कि एक
समाज कल्याण योजना बनाई जाए जिसकी अध्यक्षता बोधराज जी करें।
अभी बात चल ही रही थी और बोधराज प्रस्ताव की तह तक पहुँचने की
कोशिश कर ही रहे थे कि उनके हाथ में कलम थमा दी गई थी। और वह
किसी कागज पर हस्ताक्षर कर रहे थे।
यह तो बहुत बाद में उन्हें चेत हुआ कि हंसराज उनके साथ दांव
खेल गया है। उन्हीं का नाम लेकर उन्हीं के नाम पर पचास हजार
रुपए का अनुदान हड़प गया है। यह उन्हें तब पता चला जब साल भर
बाद, सरकार की ओर से बोधराज को एक पत्र मिला कि अनुदान का
हिसाब भेजें, और बोधराज भौंचक्के रह गए थे, और बोधराज की वह
रगड़ाई हुई थी कि दिन को भी उन्हें तारे नजर आने लगे थे।
वहीं स्वतंत्रता सेनानी बोधराज अब लोगों के सिगरेट छुड़वाता फिर
रहा था।
ऐसे ही धक्के अर्जुनदास के दिल और दिमाग को उन दिनों बार–बार
लगते रहे थे और वह पिटा–पिटा सा महसूस करने लगा था।
एक दिन उसे भी एक पत्र मिला। जिस समय डाकिया चिठ्ठी लेकर आया
उस समय कमला घर पर नहीं थी। वास्तव में यह पत्र न होकर एक
निमंत्रण था। स्वतंत्रता सेनानियों का कोई जमाव राजधानी में
होने जा रहा था और उसमें एक जाने–माने स्वतंत्रता सेनानी के
नाते उसे आमंत्रित किया जा रहा था। पत्र के साथ एक फॉर्म भेजा
गया था जिसे भरकर सम्मेलन के कार्यालय को भेजना था। फॉर्म में
यह पूछा गया था कि स्वतंत्रता संघर्ष में आपका क्या योगदान रहा
है। उनके प्रश्न थे : कितने दिन जेल काटी, कभी भूख हड़ताल की,
जेल के अंदर, जेल के बाहर, कभी किसी लाठी चार्ज में जख्मी हुए,
किसी गोली–कांड में, रचनात्मक कार्य में कैसा योगदान रहा, कभी
पदाधिकारी रहे तो, रहे हों तो किस समिति के स्थानीय, जिला अथवा
प्रादेशिक? आदि आदि। लगता था इस फॉर्म में दी गई सूचनाओं के
आधार पर सरकार स्वतंत्रता
आंदोलन का कोई वृहद इतिहास–ग्रंथ छापेगी।
पत्र देख चुकने पर उसके मन की पहली प्रतिक्रिया तो यही हुई कि
चलो, देर से ही सही, सरकार को स्वतंत्रता सेनानियों की सुधि तो
आई। उनकी निष्ठा, उनके काम पर उनकी कुर्बानियों की ओर किसी का
ध्यान तो गया।
कमला अभी बाहर से लौटी नहीं थी, और अर्जुनदास हाथ में पत्र
उठाए, खाट की पाटी पर बैठा अपने योगदान पर विचार कर रहा था। वह
कमला को यह पत्र और फॉर्म दोनों दिखाना चाहता था। और उसकी
प्रतिक्रिया जानना चाहता था। कमला के इंतजार में वह बार–बार
बरामदे में जाकर खिड़की में से दाएँ–बाएँ बाहर देखता रहा था। और
गली की ओर देखते हुए पहली बार उसका ध्यान इस ओर गया था कि
मुहल्ला अब भले लोगों के रहने लायक नहीं रह गया है। कमला की
बहुत दिनों से शिकायत रही थी कि मुहल्ले में तरह–तरह के लोग आ
गए थे। शराब और जुए के अड्डे बन गए थे, माल लादने वाले ट्रकों
के ड्राइवर जो सुनने में आया था, तस्करी भी करने लगे थे। कमला
कहा करती थी, बेटी बड़ी हो रही है, अब हमारा यहाँ पर रहना ठीक
नहीं। पर जवाब से अर्जुनदास तुनक उठा करता था।
"हम लोग शरीफ हैं तो ये लोग बदमाश है, क्या? हाथ से काम करने
वाले लोग कभी बुरे नहीं होते। इस बात को समझ लो।"
पर आज पहली बार उसे लगा था कि नहीं, मुहल्ला बदनाम बस्ती सा
बनता जा रहा है। इसमें अब रहना ठीक नहीं, बच्चों पर बुरे
संस्कार पड़ेंगे।
और तभी उसे कमला सड़क पर आती नजर आई थी और उस पर आँख पड़ते ही
उसका दिल भर आया था। पत्नी को घर के अंदर देखना एक बात है, और
उसे सड़क पर अकेले चुपचाप चलते हुए देखना बिल्कुल दूसरी बात। तब
उसके प्रति अपनेपन की भावना अधिक जागती है। तब उसमें स्त्री
सुलभ कमनीयता भी होती है और अपनत्व का भाव भी। तभी अर्जुनदास
को इस बात का भी भास हुआ कि उसकी पत्नी को उसके साथ रहते हुए
बहुत कुछ सहना पड़ा है कि वह उसे कोई भी सुख–सुविधा नहीं दे
पाया। कमला के प्रति भावना का ज्वार–सा उसके अंदर उठा था।
जब कमला अंदर पहुँची, हाथ–मुँह धोए, दो घूँट पानी पिया और
दुपट्टे से हाथ–मुँह पोंछती हुई उसके पास आकर बैठी तो उसने बात
चलाई।
"सरकार की तरफ से चिठ्ठी आई है।"
"तुम्हें?" उसने तनिक हैरानी से पूछा।
"हाँ, मुझे।"
"क्या लिखा है?"
"बुलाया है।"
"तुम्हें बुलाया है? सरकार को तुम्हारी क्या जरूरत पड़ गई?"
"आजादी की वर्षगांठ है, बहुत से लोगों को बुलाया है जिन्होंने
आजादी की लड़ाई में भाग लिया था राजधानी में।"
"वहाँ तुम लोगों का अचार डालेंगे क्या?" और कमला हँस दी थी।
कमला की लापरवाही–सी हँसी को लेकर अर्जुनदास को तनिक झेंप हुई
थी। वह स्वयं सारा वक्त सरकार की आलोचना करने लगा था, पर यह
पत्र मिलने पर उसे अपनी विशिष्टता का कुछ–कुछ भास होने लगा था।
"जाओगे?"
"हाँ, जाएँगे, क्यों नहीं, जाएँगे। आजादी की सालगिरह है।" फिर
फॉर्म की ओर इशारा करते हुए बोला, "यह फॉर्म भेजा है।" और
फॉर्म कमला की ओर बढ़ा दिया।
कमला देर तक बैठी उसे पढ़ती रही। फिर बोली, "यह किसलिए है? क्या
देशभक्तिों को उनकी देशसेवा का मुआवजा मिलेगा?" और लापरवाही से
फॉर्म पति को लौटा दिया।
मुआवजे का ख्याल अर्जुनदास को नहीं आया था। मुमकिन है सरकार
कुछ मुआवजा देने की ही सोच रही हो। बात अनोखी–सी थी पर देर तक
उसके मन में बार–बार उठती रही।
वह राजधानी गया था। उसके शहर से नौ और व्यक्ति भी गए थे।
राजधानी पहुँचने पर वह बेहद उत्साहित हुआ था। स्वतंत्रता
सेनानियों का कैंप लगा था। तंबू ही तंबू थे। पूरी की पूरी
बस्ती उठ खड़ी हुई थी। अर्जुनदास पुलक़–पुलक उठा था। मेरी भी इस
महायज्ञ में अल्प–सी आहुति रही है, वह मन ही मन बार–बार कहता।
राजधानी में रैली क्या रही थी मानो मानवता का सैलाब उमड़ पड़ा
था। उसका मन चाहा इस जनप्रवाह में डूब जाए, उसे बार–बार रोमांच
हो आता। मैं इस मिट्टी की उपज हूँ और अपने देश की इसी मिट्टी
में मिल जाना चाहता हूँ। इसी प्रकार के उद्गार उसके दिल में
हिलोरे ले रहे थे।
और यहाँ पहुँचकर एक और निर्णय उसने भावावेश में कर डाला था।
बात मुआवजे को लेकर ही थी। कमला को फार्म का आशय ठीक ही सूझा
था।
जब से अर्जुनदास राजधानी पहुँचा था, कैंप में जगह–जगह सरकारी
भत्ते की ही चर्चा सुन रहा था। सरकार प्रत्येक स्वतंत्रता
सेनानी का मासिक भत्ता बाँधने जा रही थी, ऐसा सुनने में आया
था। चारो ओर उसी की चर्चा चल रही थी। तरह–तरह की टिप्पणियाँ
सुनने को मिलतीं। उसके अपने शहर से नौ और देशसेवी आए थे।
"क्या सभी को एक जैसा भत्ता देंगे? इसमें क्या तुक है? जिसने
तीन महीने जेल काटी है, उसे भी उतना ही भत्ता मिले जितना उस
आदमी को जिसने ग्यारह साल जेल काटी है?" कोई कह रहा था। इस पर
किसी ने हँसकर जोड़ा, "नहीं सबको तोल–तोलकर मिठाई बाँटेंगे,
कुर्बानी के मुताबिक।"
"क्या सूत कातना भी कुर्बानी माना जाएगा? प्रभात फेरी भी?
तामीरी काम भी? इसे भी फॉर्म में लिखूं?"
उन्हीं के तंबू में एक बार झगड़ा उठ खड़ा हुआ था। किसी ने कहा,
"अब मैं नाम नहीं लेना चाहता लेकिन रोशन लाल ने कौन–सी जेल
काटी है? एक जुलूस में उसने भाग लिया था जिस पर लाठी चार्ज हुआ
था। मैंने अपनी आँखों से रोशन लाल को वहाँ भागते हुए देखा था,
भागकर हलवाई के तख्ते के नीचे छिप गया था। वह भी यहाँ भत्ता
लेने पहुँचा हुआ है।"
इस पर एक और ने जोड़ा, "ऐसे लोग भी भत्ता माँगेंगे जो कांग्रेस
में काम भी करते थे और अंग्रेज सरकार की मुखबरी भी करते थे।"
"कुर्बानी की तसदीक कौन करेगा?"
कोई कह रहा था, "कौन दरयाफ्त करने जाएगा कि मैंने तीन महीने
जेल काटी है या तीन साल? भत्ता मांगने वालों में ऐसे लोग भी
होंगे जो झूठी दरख्वास्तस्तें देकर भत्ता मंजूर करवा लेंगे।"
इस पर कोई आदमी बिफरकर बोला था, "और जो मर गए, जो फांसी चढ़ गए?
उन्हें क्या मिलेगा?"
दो आदमियों को उसने फुसफुसाते हुए भी सुना था।
"दरख्वास्त तो दे दो, जो मन में आए भर दो, तसदीक करवा लेंगे।
तसदीक करने वाला भी मिल जाएगा, क्या मुश्किल है।"
इसी तरह एक आदमी घबराया हुआ, चिंतित–सा कह रहा था :
"मैंने तो जेल, सियालकोट में काटी है, और वह पाकिस्तान में चला
गया है। मैं तसदीक किससे करवाऊँगा . . ."
तरह–तरह के टिप्पण सुनता रहा था और उत्तरोत्तर अटपटा महसूस
करता रहा था। कहीं कुछ घट रहा था जो उसकी समझ में नहीं आ रहा
था।
नतीजा यह हुआ कि वह कार्यालय में अपना फॉर्म दिए बिना घर लौट
आया था।
और जब घर लौटकर आया और पत्नी को सारी वार्ता कह सुनाई तो
भावावेश में बोला, "मैंने भत्ते के लिए दरख्वास्त नहीं दी। यह
मेरी देशसेवा का अपमान नहीं है क्या? क्या मैं जेल इसलिए गया
था कि एक दिन मैं उसके लिए भत्ता माँगूँगा?"
कमला चुप रही थी। वह न तो निराश हुई थी न ही आश्वस्त, केवल
मुस्कराकर सिर हिला दिया था, "अगर तुम दरख्वास्त देकर आते तो
मैं जरूर हैरान होती।" उसने कहा था और वह अपने काम में लग गई
थी।
यह बात भी धीरे–धीरे आई–गई हो गई थी, अर्जुनदास को इसका खेद भी
नहीं था, वह इसे भूल भी चुका था, पर कहीं पर एक हलका–सा बोझ
उसकी छाती पर छोड़ गई थी।
बाद में बहुत से लोगों को भत्ता मिला। महँगाई बढ़ रही थी, इस
छोटे से भत्ते से निश्चय ही लोगों को लाभ पहुँचा था, पर घर पर
इसकी चर्चा बंद हो गई थी, न कभी अर्जुनदास ने की, न कभी कमला
ने।
राजधानी से लौटते समय एक और अटपटा–सा अनुभव अर्जुनदास को हुआ
था, जिसने निश्चय ही उसे विचलित किया था। उसे लगा था जैसे कुछ
घट रहा है जो उसकी पकड़ में नहीं आ रहा जैसे कोई चीज पटरी पर से
उतर गई हो।
राजधानी से लौटते समय रेलगाड़ी खचाखच भरी थी। उसके डिब्बे में
उसके अपने शहर के देशवासियों के अतिरिक्त बहुत से वयोवृद्ध
देशभक्त बैठे थे। किसी को कहीं पर उतरना था, किसी को दूसरे
स्टेशन पर। जब गाड़ी चली तो प्लेटफॉर्म पर नारे गूँज उठे।
वातावरण में फिर से उत्तेजना और देशभक्ति की लहर दौड़ गई।
अर्जुनदास भी इससे अछूता नहीं रहा। लगा पहले वाला वक्त फिर से
लौट आया है।
जब गाड़ी ने रफ्तार पकड़ी तो डिब्बे में बैठे बहुत से वयोवृद्ध
देशभक्त एक आवाज होकर गाने लगे :
"जरा वी लगन आज़ादी दी
लग गई जिन्हां दे मन विच्च!
और मजनूं वण फिरदे ने
हर सहरा हर वन दे विच्च!"
कुछ लोग सुर में गा रहे थे। कुछ बेसुरे थे, कुछेक की आवाज सधी
हुई, कुछेक की खरखराती। कोई पंचम में, कोई सप्तम में, कुछेक को
खाँसी आ गई, पर मस्ती में सभी के सिर हिल रहे थे, सभी वज्द में
थे।
दूसरी बार जब गीत की दूसरी पंक्ति गाई गई :
"लग गई जिन्हा दे मन दे विच्च!"
तो डिब्बे में कहीं से हँसने, मसखरी करने की आवाज आई :
" . . .वि च च च!"
"ओ बाबू, यह 'विच्च' क्या हुआ?" कहीं से ठहाका फूटा।
सचमुच इस 'विच्च' शब्द से बड़ी मजाकिया स्थिति बन गई थी। दूसरी
बार जय देशभक्तिों ने वही पंक्ति दोहराई, "हो गई जिन्हां दे मन
दे विच्च!"
तो चार–पाँच मनचले डिब्बे में एक ओर को बैठे हुए एक साथ बोल
उठे, "विच्च" और फिर ठहाका हुआ।
अब की बार भी देशभक्तों ने विशेष ध्यान नहीं दिया पर फिर अगली
पंक्ति के अंत में यही शब्द आया।
"ओह मजनूँ बण फिरदे ने
हर सहरा, हर बन दे विच्च!
तो अब की बार पूरा डिब्बा गूँज उठा :
"विच्च!"
अर्जुनदास मन ही मन बौखला उठा। तमतमाते चेहरे के साथ उठ खड़ा
हुआ।
"आपको शर्म आनी चाहिए देशभक्ति के गीत का आप मजाक उड़ा रहे
हैं?"
इस पर चार–पाँच नौजवान फिर बोल उठे, "विच्च!"
और फिर ठहाका हुआ।
पर अर्जुनदास तर्जनी हिला–हिलाकर गुस्से से बोलने लगा, "आपने
शर्म हया बेच खाई है? ये लोग जो यहाँ बैठे हैं, सब देशभक्त
हैं, इन्होंने कुर्बानियाँ दी हैं, जेले काटी हैं, देश आजाद
हुआ तो इनके बल पर . . . और आज . . ."
अर्जुनदास का वाक्य अभी पूरा नहीं हुआ था कि फिर से कोई मनचला
चहक उठा," . . .विच्च!"
रेलगाड़ी आगे बढ़ती जा रही थी। अर्जुनदास मन मसोसकर बैठ गया।
सारा मजा किरकिरा हो गया था। त्याग और आत्मोत्सर्ग का जो माहौल
इस गीत से बनने लगा था, वह छिन्न–भिन्न हो गया। कुछ लोगों पर
अभी भी वज्द तारी था। उनमें से एक ने फिर से कोई इंकलाबी गीत
गाना शुरू कर दियाः
"सर फिरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं
देखना है जोर कितना बाजू–ए–कातिल में हैं।"
कुछ देर के लिए तो डिब्बे में चुप्पी छा गई। लोग ध्यान से
सुनने लगे। अर्जुनदास ने भी मन ही मन कहा, "क्यों नहीं सुनेंगे
इस गीत को तो देश का दुश्मन भी सिर झुकाकर सुनेगा। यह गीत
लिखने वाला तो स्वयं फाँसी के तख्त पर झूल गया था।
पर अर्जुनदास भूल कर रहा था। मनचले फिर से खी–खी करने लगे थे।
एक ने फिर से "विच्च" चिल्लाकर कहा। दूसरे ने गीत के गंभीर
स्वर की नकल उतारते हुए कहा, "हाय, मार डाला!" तीसरे ने दिल पर
हाथ रखकर कहा, "कुंद छुरी से ज़बह कर डाला!" और फिर से ठहाके
लगने लगे।"
अर्जुनदास को अभी भी समझ लेना चाहिए था कि बीते काल के माहौल
को फिर से पकड़ पाने का प्रयास, उसे फिर से जीवित कर पाने का
प्रयास विफल रहेगा, कि उनकी मानसिकता पकड़ नहीं पा रही है, कि
उनका कालखंड समय के प्रबल प्रवाह में कब का डूब चुका है।
राजधानी से लौटकर अर्जुनदास अपनी नई गान मंडली संगठित करने में
जुट गया था। बेशक राजधानी के उस दौरे से से धक्का लगा था पर वह
बिल्कुल अप्रत्याशित भी नहीं था। पिछले दौर की अपनी माँगे थीं,
आज के दौर की अपनी माँगे हैं। अपनी भावुकता भरी यादों के कारण
तो वह पिछले दौर से चिपटा नहीं रह सकता था।
उसके मन में कभी–कभी जरूर सवाल उठता : क्या मैं दिग्भ्रमित हो
गया हूँ? क्या सचमुच मैं आदर्शवाद के हवाई घोड़े पर सवार
इधर–उधर भटक रहा हूँ? क्या वे लोग जो आजादी मिलने के बाद अपने
पैर जमाने के लिए ठेकें और लाइसेंस हथियाने लगे थे, ज्यादा
समझदार थे जो हवा का रूख पहचानते थे? पर अर्जुनदास का मन नहीं
मानता था कि वह भूल कर रहा है।
अर्जुनदास की गाड़ी पहले की ही भाँति चलती रही, अभी भी दुकान
थी, प्रकाशन गृह था। पर अब उसमें समाजवाद का समर्थन तथा प्रचार
करने वाली पुस्तकें अधिक छपती थीं, वाम कवियों के संग्रह छपते
थे। अर्जुनदास सन् पैतालीस के नाविक विद्रोह के बाद जब जेल से
छूटकर आया था तो मार्क्सवादी विचारों का रंग उस पर गहरा हो गया
था। जेल के अंदर कुछ ऐसे देशभक्त भी थे जो मार्क्स और लेनिन की
चर्चा किया करते थे। अर्जुनदास उनकी बातें सुनता रहता,
उन्होंने कुछ साहित्य पढ़ने को दिया। उसे भी वह बड़े चाव से पढ़ता
रहा था।
अर्जुनदास पहले की तुलना में और ज्यादा कर्मठ और उत्साही हो
गया था। उधर गान मंडली भी बदल गई थी। नए–नए युवक युवतियाँ
उसमें आ गए थे, स्फूर्ति और उत्साह पाए जाने लगे थे। अमरदास
उन्हीं में से था। हाथ पसारकर ऐसी तान छेड़ता कि सारा पंडाल
गूँज उठता। सच तो यह है कि अब जलसों–जुलूसों के मात्र देशभक्ति
के अथवा गांधी–नेहरू के प्रति श्रद्धा के गीत बहुत जमते भी
नहीं थे। भले ही स्वर योजना कितनी ही सुरीली क्यों न हो। मात्र
भारत माता का गौरवगान दिल को छूता नहीं था, झिंझोड़ता नहीं था।
अर्जुनदास की दुकान और प्रकाशन गृह पहले ही तरह घिसट रहे थे। न
दो कौड़ी की कमाई आजादी के पहले हुई थी, न दो कौड़ी की कमाई
आजादी के बाद हो रही थी। पर अपने ढर्रे पर अर्जुनदास के पाँव
फिर भी नहीं डगमगाए थे। अब वह हर बात का आर्थिक–सामाजिक कारण
निकाल लेता और संतुष्ट हो जाता। यदि पत्नी के दिल में अभी भी
अच्छे रहन–सहन की चाह है तो इसलिए कि बचपन में उसका लालन–पालन
मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। और मध्यवर्ग वह वर्ग है जो सदा
धन–ऐश्वर्य को प्राथमिकता देता है, आदि आदि।
पत्नी की माँगे इतनी बड़ी और असाध्य नहीं थी। पर अर्जुनदास की
धृष्टता उनके आड़े आती रही थी। आदर्शवाद ने उसे अंदर से कड़ा बना
दिया था वरना क्या था, वह ऐसे घर में रहना चाहती थी जिसके आगे
छोटा सा आँगन हो, जिसमें वह बेल–बूटे उगा सके। या कि उनका घर
किसी सँकरे बाजार में न होकर किसी खुले इलाके में हो। इसके
पिता छोटे सरकारी अफसर रहे थे, इसलिए उनका रहन–सहन अधिक सुचारु
और करीने वाला था, समय पर भोजन वह भी मेज पर, साफ–सुथरे कपड़े,
हर चीज अपनी जगह पर, घर में कहीं भी बेतरतीबी नहीं थी, बड़ा
सुचारु सुव्यवस्थित जीवन था।
पर अर्जुनदास को इसमें भी, 'अंग्रेजियत' की बू आया करती थी।
सुव्यवस्थित रहन–सहन की इन विशिष्टताओं को भी वह 'अंग्रेजियत'
का नाम दिया करता था। एक बार यह वह जमाना था जब शादी के कुछ ही
साल बाद वह सक्रिय रूप से रंगमंच पर काम करने लगा था। वे दोनों
किसी रेलवे स्टेशन पर उतरे थे और कुछ फल खरीदकर साथ में ले
लेना चाहते थे। उसकी पत्नी आम खरीदना चाहती थी जबकि वह खरबूजा
लेने के हक में था। खरबूजे की तुलना में उसकी पत्नी को आम
ज्यादा पसंद था और जब उसने आम लेने पर इसरार किया तो वह तुनक
उठा था। वह आम इसलिए लेना चाहती है क्योंकि आम ज्यादा महँगा फल
है, उसे ऊँचे दर्जे के लोग खाते हैं, जबकि खरबूजा आम आदमी का
फल है। अंत में वह चुप हो गई थी और उसने खरबूजा लेना ही मान
लिया था, लेकिन उसे यह तर्क सुनकर बड़ा अचंभा हुआ था।
"मैंने कब कहा है आम बड़े आदमियों का फल है। और खरबूजा छोटे
आदमियों का? यह तुम कैसी बातें करने लग जाते हो?" और वह रो पड़ी
थी।
आज इस छोटी सी घटना को याद करके उसका मन आत्म–ग्लानि से भर
उठता था। पर उन दिनों उसे इसका कोई क्षोभ नहीं हुआ था।
जिंदगी इसी तरह हिचकोले खाती यहाँ तक पहुँची थी।
जमाना बीतता गया था। न तो अर्जुनदास की अपनी दिनचर्या बदली थी
न पत्नी की। किताबों की कमाई में वृद्धि तो असंभव थी, हाँ,
पत्नी की जोड़–तोड़ से नौका डूबने से बची रही। वह स्कूल में भी
पढ़ाती रही और दुकान का काम भी देखती रही। घर बना रहा, बेटी बड़ी
हो गई, उसकी शादी भी हो गई। बेटा जहीन निकला उसे राजनीति से तो
चिढ़ थी, पर किताबों के माहौल में पला था इसलिए उसकी जिज्ञासा
बनी रही और वह अपनी नौका अलग से ठेल ले जाने में सफल हो गया।
अधेड़ उम्र तक पहुँचते–पहुँचते, हर आए दिन विचित्र अनुभव होते
रहे थे। उनकी बेटी उनके आदर्शवाद की खिल्ली उड़ाने लगी
थी।ह्यवैसे ही जैसे, बरसों पहले रेलगाड़ी के सफर में, मनचले
युवक देशभक्तों के गीत की खिल्ली उड़ाते रहते थे।हृ बेटी को, या
तो मन–ही–मन अपनी मां के साथ हमदर्दी थी कि उसके पिता ने उसकी
मां को परेशान किया था और इसके लिए वह उसे क्षमा नहीं कर पा
रही थी। या यही नहीं, उसकी मूल आपत्ति उसकी मान्यताओं, उसकी
आदर्शवादिता के प्रति थी, जिसमें उसका कोई विश्वास नहीं था।
उसकी बातें सुनते हुए, अर्जुनदास हताश तो नहीं होता था – हर
युग के अपने ध्येय अपने आदर्श होते हैं – उसे अचंभा इस बात का
होता था कि उसकी आदर्शवादिता उसकी बेटी को कहीं पर भी छूती तक
नहीं थी। "बस बस, पिताजी, सुन लिया, बहुत सुन लिया" वह उसका
मुँह बंद करने के लिए खीझकर कहती और उठकर चली जाती थी।
बेटे ने भी कुछ बरस बाद ऐसा ही रूख अपनाया था। जब बी.ए. की
पढ़ाई खत्म कर चुका तो एक दिन बाप से तुनककर बोला, "न आपको कोई
पूछता है, न जानता है, आप मेरी मदद क्या करेंगे?"
जहाँ धन का अभाव हो वहाँ जिंदगी आए दिन थपेड़े मारती रहती है,
छोटे–मोटे थपेड़े तो यों ही पड़ते रहते हैं, पर बड़ा धक्का तभी
लगा जब पहले एक फिर दूसरा बच्चा, हाथ से निकल गए थे।
और जब पति–पत्नी वृद्धावस्था में प्रवेश कर रहे थे तो पहली बार
अर्जुनदास को इस बात का भास होने लगा था कि उसका आदर्शवाद तो
रोशनी की लौ की तरह उसका पथ प्रदर्शन करता रहा था, कुछ–कुछ मंद
पड़ने लगा और यह सवाल बार–बार उसके मन में उठने लगा था। क्या
मैंने अपनी जिंदगी नासमझी में व्यतीत की है? यदि मैं फिर से
जन्म लेकर आऊँ तो क्या फिर से ऐसा ही जीवन व्यतीत करना
चाहूँगा?
मैदान में बैठा वह अपने से यही प्रश्न पूछ रहा था और उसे कोई
स्पष्ट उत्तर नहीं मिल रहा था। बैठे–बैठे ही वह बुदबुदाया।
"जिस दिल पे मुझको नाज था,
वह दिल नहीं रहा।"
तभी रंगमंच की ओर घंटी की आवाज सुनाई दी। अर्जुनदास मानों
तंद्रा से जागा। मैदान में अच्छी–खास भीड़ जमा थी। रोशनी कम थी,
केवल कुछ खंभों पर ही तारें जोड़कर रोशनी के कुमकुमे लगाए गए
थे, वह भी मद्धम से। कार्यक्रम आरंभ होने वाला था।
सहसा अर्जुनदास को चेत हुआ, कार्यक्रम के बाद युवक उसके पास
आएगा, मार्गदर्शन के लिए, मैं उससे क्या कहूँगा? क्या मैं उससे
कहूँगा कि बेटा, कूद जाओ, दिल का रास्ता ही सीधा रास्ता होता
है या मैं उससे कहूँगा कि जो निर्णय करो, सोच–विचार कर करो,
अपनी स्थिति पर विचार करके, अपने दायित्वां पर भी।
उसकी आँखों के सामने युवक का चेहरा उभर आया, ऊँचा–लंबा कद
छरहरा बदन, मसें भीगी हुईं, स्वच्छ उत्साह भरी आँखें, अनछुआ
व्यक्तित्व, कहीं किसी थपेड़े की छाया नहीं, न ही किसी संघर्ष
का तनाव। उत्साह ही उत्साह, उत्साह और उत्सुकता। आज वह उस स्थल
पर खड़ा है जहाँ से उसकी जीवनयात्रा आरंभ होगी।
मैं उससे क्या कहूँगा? उसे कहूँ कि प्रत्येक ध्येय की एक उम्र
होती है, वह उस समय तक जीवित रहता है और लोगों को उत्प्रेरित
करता रहता है जब तक उसके चरितार्थ किए जाने की संभावना बनी
रहती है। जब वह संभावना समाप्त हो जाती है तो उस ध्येय की
प्रासंगिकता भी समाप्त हो जाती है, यदि एक बार पता चल जाए कि
वह जीवन की संभावनाओं से दूर हो गया है तो उसकी सार्थकता
समाप्त हो जाती है।
पर क्या वह समझ पाएगा? और क्या सचमुच इस युवक के ध्येय की
प्रासंगिकता समाप्त हो गई है? क्या सचमुच स्थितियाँ बदल गई हैं
और ध्येय की सार्थकता मंद पड़ गई है? कहीं ऐसा तो नहीं –
अर्जुनदास ने मन ही मन कहा – कि मैं अपनी कमजोरी को
आदर्शों–ध्येयों पर थोप रहा हूँ? यह समझ रहा हूँ कि जिन
आदर्शों का दामन पकड़कर मैं दसियों साल पहले इस रास्ते पर आया
था वे अपनी सार्थकता खो चुके हैं। वास्तव में अपने जीवन की
विकट स्थितियों को मैं संभाल नहीं पाया, अपने निजी विरोधाभासों
को मैं देख नहीं पाया, और आदर्शों और ध्येयों को दोष देने लगा
हूँ।
सहसा उसके कानों में किसी गीत के स्वर पड़े। बहुत से कंठ एक साथ
गा रहे थे, और स्वर लहरियाँ वातावरण में हिलोरे लेने लगी थीं।
अर्जुनदास उठ खड़ा हुआ और धीरे–धीरे चलता हुआ दर्शकों की पाँतों
की ओर बढ़ गया। उसे पता नहीं चला कि कब उसके वयोवृद्ध साथी,
उसकी पत्नी, अन्य लोग, मैदान में पहुँच गए थे और कहाँ पर जा
बैठे थे। खंभों पर लगी मद्धिम–सी बत्तियों की रोशनी में वह
मैदान में बढ़ता हुआ, पिछली एक पाँत में बैठ गया। मैदान में
भारी भीड़ जमा हो गई थी और ऊँचे मंच पर, माइक के पीछे एक गान
मंडली खड़ी गा रही थी। मंडली के आगे वही युवक खड़ा था, अपना
दायाँ हाथ ऊँचा उठाए, गहरी रुँधी हुई भावना में ओतप्रोत आवाज
में वह सहगान में अपनी मंडली का नेतृत्व कर रहा था। सारा
वातावरन उद्वेलित होने लगा था।
"एक साथ है कदम, जहान साथ है . . ."
लोगों की भीड़ पर उस गीत का असर होने लगा था। देश की विकट
स्थिति आँखों के सामने उभरने लगी थी, मानो उनकी आवाज में वह
दारूण स्थिति मुखर हो उठी हो। स्वर लहरियाँ उठ रही थी, गीत के
शब्द दिलों पर दस्तक देने लगे थे। अर्जुनदास पीछे की कतारों
में से एक कतार में चुपचाप आकर बैठ गया था। लोग इस भावोद्वलित
गीत को सुनने में इतने तन्मय थे कि संयोजकों में से किसी का
ध्यान वयोवृद्ध अर्जुनदास की ओर नहीं गया, नहीं तो उसके पास
दौड़े आते और उसका हाथ थामकर उसे अगली पाँत में बैठने के लिए ले
जाते।
गीत समाप्त हुआ, पर उसका स्पंदन वायु मंडल को उद्वेलित किए
रहा। फिर एक और गीत गाया गया, वही मंडली फिर से गा रही थी।
मंडली के पास केवल एक ढोल और एक हारमोनियम था, गानेवाले भी सही
निपुण कलाकार नहीं थे, परंतु भावना सभी अभावों की पूर्ति कर
रही थी, कहीं कुछ था जो उनके अनगढ़, कहीं–कहीं बेमेल आवाजों में
भी मर्मस्पर्शी संगीट का संचार कर रहा था। अर्जुनदास को
बैठे–बैठे अमरदास याद हों आया जो हाथ पसारकर ऐसे तान छेड़ता था
कि सारा पंडाल गूँज उठता था। अमरदास जो अभावों में मरा था, पर
जो हजारों–हजार लोगों के दिलों को बाँध लिया करता था।
अर्जुनदास धीरे–धीरे उस कार्यक्रम में खोता चला गया। ऐसा अकसर
होता था, गीत सुनते हुए भाव–विभोर हो उठता था, पर कार्यक्रम
समाप्त हो जाने पर उसका नशा जल्दी उतरने भी लगता और
वस्तुस्थिति के कंकड़–पत्थर जैसे फिर से उसे चुभने लगते।
फिर वैसी ही बात हुई जैसी दसियों साल पहले, अर्जुनदास की जवानी
के दिनों में हुई थी, मानो अतीत के धुँधलके में घटी हो। वही
छरहरे शरीर वाला युवक मंच पर लालटेन उठाए बूढ़े बुजुर्ग की दाढ़ी
लगाए, ऊँची थरारती आवाज में कह रहा था, "सुनोगे? इस विपदा की
कहानी सुनोगे?"
और दर्शकों की भीड़ दत्तचित्त सुने जा रही थी। उस युवक के हाथ
में झूलता हरीकेन लैंप लगता किन्हीं सुनसान बियाबानों को लाँघ
रहा था।
लगभग डेढ़ घंटे बाद खेल समाप्त हुआ। खेल समाप्त होने पर वही
युवक मंच पर से उतर आया और झोली पसारे मैदान में बैठे दर्शकों
की पाँतों की ओर बढ़ने लगा। युवक के पीछे–पीछे मंडली के अन्य
युवक युवतियाँ भी उतर आए थे। सभी नीचे पहुँचकर छितर गए थे और
झोली फैलाए एक पाँत से दूसरी पाँत की ओर जाने लगे थे।
जब वही युवक, झोली फैलाए, अर्जुनदास के निकट, सामने वाली पाँत
के सामने से गुजर रहा था तो एक स्त्री ने भावविह्वल होकर अपने
दोनों हाथ उठाकर अपने कानों में से झूमर उतारकर युवक की झोली
में डाल दिए थे।
अर्जुनदास चौंका, उसने ध्यान से देखा उसकी पत्नी कमला ने झूमर
उतारकर झोली में फेंके थे। उसका एकमात्र झूमरों का जोड़ा जो
बेटी की शादी के समय उसने अपने लिए बनवाया था। झूमर फेंक चुकने
के बाद, कमला सिर पर अपनी ओढ़नी ठीक कर रही थी और अपनी आँखें
पोंछ रही थी। |