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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से डॉ. सूर्यबाला की कहानी— 'दादी की ख़ज़ाना'


चुन्नू को लगता, ज़रूर दादी के पास कोई छुपा हुआ ख़ज़ाना है। यह बात उसने अपनी छुटंकी बहन मिट्ठू को भी कई बार बताई थी। मिट्ठू को ख़ज़ाने-वज़ाने की अकल तो भला क्या होती, लेकिन उससे पूरे तीन साल बड़े और 'तेरा भइया' का रुतबा रखनेवाले, चुन्नूजी ने इसे यह राज़ बताया, यही उसके निहाल हो लेने के लिए काफी था। उसने फुसफुसाकर पूछा, ''भइया! तुम्हें कैसे पता?''

चुन्नू ने बड़े मातबरी अंदाज़ में कहा, ''देखती नहीं, दादी हमेशा कितनी खुश, कितनी मगन रहती हैं। इतना खुश तो वही हो सकता है, जिसके पास कोई माल-खज़ाना छुपा होता है।''

मिट्ठू ने पूरे विश्वास से हामी भरी, लेकिन तत्क्षण अगली जिज्ञासा भी पेश कर दी, लेकिन ख़ज़ाने की तो चाबी भी होती है न! दादी कहाँ रखती हैं, अपनी चाबी?''
चुन्नू जी पहले तो अटपटाए, लेकिन फौरन अकल काम कर गई,
''किसी-किसी ख़ज़ाने की नहीं भी होती...बस, 'खुल जाए सिमसिम' कह देने से कितना बड़ा ख़ज़ाना खुल जाता था। दादी भी ऐसा ही कोई 'कोड-वर्ड' कहती, बोलती होंगी।
मैं कहता हूँ, उन्हें देखकर ही लगता है कि वे किसी-न-किसी ख़ज़ाने की मालकिन है ज़रूर।''

चाहे अपने छः महीने के बेबी की नॉन-स्टॉप चीख पुकार से रुआँसी हुई नीना आंटी-अंकल,  चाहे माधो चौकीदार, चाहे मनकू धोबी-जो भी परेशान, रुआँसा, खीझता-झल्लाता आता है, दादी उसे ऐसा समझातीं-बुझातीं, सहलातीं-दुलारतीं हैं कि वह हँसीं-खुशी से मालामाल होकर लौटता है।

यों भी उनके पास बातों का ख़ज़ाना तो है ही। चुटकुलों और हँसी-ठिठोली की भी।
हँसती हुई, मगन मन, गुनगुनाती हुई दादी... क्या गुनगुनाती हैं दादी? ...श्श...ज़रूर कोई कोड-वर्ड.. जानना चाहिए। इसी कोड-वर्ड से दादी पड़ोसियों की झड़पें और हंगामे भी हँसते-हँसते शांत कर दिया करती हैं।

एक बार तो मम्मी मना करती ही रह गईं और दादी अपनी वैजयंती बाई और बगल की गंगू बाई के बीच होती तेज़-तर्रार तकरार के बीच भी पहुँच गईं। दोनों पाँच के एक खोटे सिक्के को लेकर भिड़ी हुई थीं। एक कहती, तूने ही यह सिक्का मुझे दिया, उधारी की वापसी के साथ, दूसरी कहती, हर्गिज़ नहीं। दादी ने उनसे पाँच का खोटावाला सिक्का देखने के लिए माँगा। फिर उन्हें एक दूसरा चमचमाता हुआ सिक्का पकड़कर हँसती हुई घर के अंदर चली आईं।

ज़रूर वह चमचमाता सिक्का दादी के ख़ज़ाने का रहा होगा और ज़रूर उस खोटेवाले सिक्के को दादी अपने ख़ज़ाने में डाल. कोड-वर्ड से खरा कर देंगी। अच्छा तो ये हमारी दादी खोटे से खरा करने का जादू भी जानती हैं। यह भी चुन्नू ने मिट्ठू को बताया।
मिट्ठू ने फिर झपाझप पलकें झपकाकर हामी भरी। एक दोपहर दादी मिट्ठू को थपकी दे-दे कर सुलाते हुए कुछ गा रहीं थीं। चुन्नू थोड़ा बोर हो रहे थे, क्यों कि इस समय तेज़-तेज़ झम्मा-झम्मा, छैंय्या-छैंय्या और तारा-रा-रा का कैसेट भी नहीं बजाया जा सकता था। जम्हाई लेकर बोले, ''दादी! ज़रा ज़ोर से गाइए नं! मिट्ठू तो सो गई।''
''क्यों गाऊँ ज़ोर से, मैं कोई हजेला आँटी और शर्मा अंकल का रिकार्ड प्लेयर हूँ?''

दादी की आदत ही है चुन्नू को छेड़ने की... लेकिन चुन्नू भी कहाँ बाज़ आनेवाले, पापा की तरह शेखी बघारते हुए बोले,  ''इसलिए कि मुझे 'थोड़ा' चेंज चाहिए।''
लेकिन फिर दादी के गले में झूल गए, ''प्लीज दादी गाइए नं!''
''सचमुच सुनना है मेरा गाना?'' अचानक दादी सेंटीमेंटल हो आईं।
''और नहीं तो क्या... मैं झूठ बोलता हूँ- जबसे आपने पिछली बार, दो आइस्क्रीम खाने और एक बताने पर डाँटा, न मैंने एक बार भी चीटिंग की, न झूठ बोला।''
''अच्छा तो आ मेरे साथ!''

दादी ने चुन्नू की मदद से पलंग के नीचे रखा लकड़ी का एक बहुत पुराना बॉक्स निकलवाया। खुलने पर उसके अंदर से काली पॉलिश और सफ़ेद कत्थई पेंदीवाला एक खूबसूरत हारमोनियम निकला। झाड़-झूड़ कर उसकी साफ़-सफ़ाई की गई। फिर हल्के-हल्के उससे स्वर निकालती दादी गाने लगीं।

चुन्नू ने महसूस किया, यह 'चेंज' तो कुछ बुरा नहीं था। सचमुच हारमोनियम के साथ आती दादी की आवाज़, उनका गीत अच्छा लग रहा था। बस एक ही बात पर थोड़ी हँसी आई कि दादी के गाने में माँ-माँ जैसा शब्द कई बार आया। इसलिए गाना ख़त्म हुआ तो उसने हँसकर चिढ़ाया, ''आप तो खुद ही थोड़ी बूढ़ी यानी दादी-माँ हैं, फिर आप कौन-सी माँ का गाना गा रही हैं?''
दादी ने मज़े से हँसते हुए कहा, ''बताऊँ, मैं न माँ सरस्वती, माँ शारदे, माँ भारती और माँ दुर्गा, लक्ष्मी...''
''ओ गॉड! अकेली आपकी इतनी सारी माँएँ...''
''सिर्फ़ मेरी नहीं चुन्नू जी, ये तो सबकी माँएँ हैं। बच्चों की, मम्मी की, पापा की, दादी की... सुवर्णा आंटी की और वैजयंती बाई की भी...''
''धत्त- दादी, ऐसा कैसे हो सकता है?''
''क्यों नहीं हो सकता? तुम लोग स्कूल में प्रार्थना करते हो नं... 'आवर फादर इव हेवेन'... तो, वे तो नर्सरी से लेकर ऊँची कक्षाओं तक के सारे बच्चों, टीचरों, प्रिंसिपल सभी के फादर हुए नं... या नहीं?...''

चुन्नू चमत्कृत और निरुत्तर हो गए। तर्क अकाट्य था। ''तो इसका मतलब तो यह हुआ दादी कि हम सबके सब एक दूसरे के रिलेटिव हैं...।''
''रिलेटिव नहीं, एक घर, एक कुटुंब के। जानते हो, हमारे यहाँ एक श्लोक है संस्कृत का, जिसका मतलब है कि सारा देश ही नहीं, सारी दुनिया एक कुटुंब के समान है- एक फैमिली...''
''एक फैमिली? ... क्रेज़ी....फनी...'' चुन्नू इतनी ज़ोर से चिल्लाए कि मिट्ठू जाग गई। ''इतनी बड़ी फैमिली के लिए उतना बड़ा घर बनाएगा कौन जी!''
दादी कहाँ पीछे रहनेवाली, ''बनाना कहाँ है जी...घर तो बना बनाया है- यह एक पूरी दुनिया है ही बनी बनाई और इसमें इंग्लैंड, यूरोप, अमेरिका...''

चुन्नू अकड़े और उसको पता है, ये सारे देश कहीं ज़्यादा अच्छे हैं, इंडिया की तरह गंदे-संदे नहीं। एकदम सनाका खा गईं दादी।... फिर अपने को सँभाला, समेटा। और सहज विनोदी-भाव से बोलीं, ''लेकिन तू कब घूमा इन सारे देशों में चून्नू?''
''मैं नहीं घूमा तो क्या हुआ, मेरा दोस्त विक्रम गया था लंडन और नताशा भी। वे दोनों बता रहे थे कि इंडिया तो बिलकुल बंकस कंट्री है। यहाँ सब गरीब, गँवार लोग रहते हैं। पुअर और फुलिश...

दादी का चेहरा उतरता-सा गया। लेकिन उन्होंने ज़ाहिर नहीं किया। उल्टे नाटकीय मुद्रा में च-च्च करते हुए बोलीं, ''अरेरे रे सच्च! मुझे नहीं मालूम था कि तुम और मिट्ठू पुअर, फुलिश और गँवार हो।''
''नहीं, हमने अपने को थोड़ी न कहा...''
''तो फिर तुम्हारे मम्मी-पापा और दादी - पुअर, फुलिश और गँवार होंगे जी...''
चुन्नू चिढ़ गए, ''जाइए आप तो चिढ़ाती हैं।''
''क्यों नहीं चिढ़ाऊँगी- जो खुद ही अपने आपको दूसरों से पुअर, फुलिश और गंदा-संदा कहलाया जाना पसंद करेगा, उसका तो लोग मज़ाक बनाएँगे ही न!''
चुन्नू आप से बाहर होने लगे, ''अब आगे आपने हँसी उड़ाई न दादी तो मुझे सचमुच गुस्सा आ जाएगा...''
''वाह! गुस्सा तो तुम्हें तब आना चाहिए था न जब नताशा और विक्रम ने तुम्हारा मज़ाक बनाया।''
''लेकिन वे मुझे नहीं कर रहे थे न।''
''अच्छा कोई तुम्हें नहीं पर तुम्हारे घर को घरवालों को गंदा-संदा कहें तो तुम्हें अच्छा लगेगा?''
''न, नहीं।''

चुन्नू ने निरुत्तर होकर गर्दन झुका ली।
''तब तुम्हें नताशा और विक्रम को समझाना चाहिए था न कि अपने देश को पुअर, फुलिश कहने का मतलब है, खुद को फुलिश, असभ्य मानना।''
चुन्नू बुरी तरह फँस गए थे। कोई उत्तर न सूझा तो सिर खुजाते हुए बोले, ''असल में वे दो थे नं?''
''तो तुम मिट्ठू को बुला लेते...''

चुन्नू ने मन-ही-मन निश्चय किया कि सचमुच मिट्ठू को हमेशा ही 'लड़की' और 'बुद्धू' समझना ठीक नहीं। ज़रूरत पड़ने पर वह मददगार और फ़ायदेमंद दोनों साबित हो सकती है।
''पर एक बात तो तुम्हारी सही है कि ये सारे देश हमसे कहीं ज़्यादा साफ़-सुथरे हैं...''
चुन्नू हुमककर बोले, ''लीजिए, यही बात जब मैं आपसे कह रहा था तो आप...''
''अपनी कमियाँ और बुराइयाँ देखना बुरा नहीं चुन्नू, अपना आत्मसम्मान खोना बुरा है। कमियाँ देखकर हम उन्हें सुधार सकते हैं। लो तुम्हीं दोनों से पूछती हूँ, 'भला कौन रखता है उन देशों को उतना साफ़-सुथरा?''
''कॉमनसेंस की बात है- 'वहाँ के लोग।'' चुन्नू में दुबारा उनके पापा की आत्मा प्रवेश कर गई।
दादी चहक उठीं, ''तो फिर हम भी आज से ही अपने घर के आसपास को साफ़-सुथरा रखना शुरू कर देंगे। जिन्हें नहीं मालूम, उन्हें बताएँगे। जानते हो, अपने देश को मदर-लैंड कहते हैं, यानी माँ का घर...
मिट्ठू और चुन्नू मन-मन हँसे- येल्लो एक और माँ...
लेकिन दादी के कान तो बच्चों के मन में आई बात भी सुन लेते हैं-
''एक औऱ माँ नहीं, बहुत-बहुत सारी माँएँ हैं- नदियाँ भी माँ हैं, धरती भी माँ है, 'मदर अर्थ' सुना है न। हम नदी को सिर्फ़ गंगा नहीं, गंगा मइया कहते हैं?''
सहसा मिट्ठू चहकीं। ''और यशोदा मइया भी तो...न दादी?''

चुन्नू मन-ही-मन झुंझलाए- उफ् ये मिट्ठू की बच्ची भी इस बार बाज़ी मार ले गई-  लड़की कहीं की? फिर ज़रा रुआब से बोले, ''दादी! आप ज़्यादा हिंदी पढ़ती हैं न, इसीलिए इतनी सारी माँओं के नाम मालूम हैं आपको। लेकिन एक बात बताइए, हमें क्या करना है उतनी सारी माँएँ इकट्ठी करके... एक दादी, एक मम्मी, काफ़ी नहीं क्या?''
''इसलिए कि माँएँ जितनी ज़्यादा होती हैं, बच्चों को उतना ज़्यादा प्यार मिलता है, गिफ्ट और प्रेजेंट्स मिलते हैं... उतनी ज़्यादा लोरियाँ और कहानियाँ सुनने को मिलती हैं।''
''कहाँ? हमें तो मम्मी ने नहीं सुनाईं।''
''मम्मी को टाइम किधर मिलता है? ऑफिस, घर और तुम लोगों का ढेरमढेर होमवर्क...इसीलिए वे लोग दादियों, नानियों को बुला लेते हैं। अब मम्मी सुनाए या पापा की मम्मी...
लेकिन चुन्नू सीधे पॉइंट पर आए, ''तो क्या आपको इन सारी माँओं से गिफ्ट और प्रेजेंट मिले हैं?''
''हाँ मिले हैं।'' दादी एक क्षण को तो सकपकायीं, लेकिन फौरन वापस मोर्चे पर आ डटीं, ''लेकिन इन लोगों का देने का तरीका थोड़ा अलग होता है। जैसे टी.वी. पर बड़े-बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर, दूकानें, अपने-अपने आइटम और फ़ोन नंबर नोट करा देते हैं न! और हम जिन्हें भेजना चाहते हैं, उनके नाम-पते दूसरों को भेज देते हैं, कुछ-कुछ उसी तरह। फूल भी तो हम लोगों के जन्म-दिनों पर ऐसे ही भिजवाते हैं। दीवाली और त्यौहारों के उपहार भी। वैसे भी... माँ-लक्ष्मी तो धन की देवी ही हैं। पैसे ही नहीं होंगे तो हम कपड़े, खिलौने, चॉकलेट्स सब खरीदेंगे कहाँ से? माँ शारदा, सरस्वती हमें बुद्धि, विवेक देती हैं- उन्हीं की वजह से हमें पढ़ाई-लिखाई समझ में आती है। नहीं तो एकदम बुद्धू, गँवार रह जाएँ हम। और यशोदा मइया के बालकृष्ण की नटखटी की तो इतनी कहानियाँ हैं कि हँसते-हँसते पेट दुख जाए- सिर्फ़ हँसी की नहीं, बड़े-बड़े राक्षसों को मारनेवाली बहादुरी की भी...और गंगा मइया तो इस देश में आईं कैसे, इसी की इतनी लंबी कहानी...
''आप सुनाएँगी हमें?''

फिर तो सिलसिला शुरू हो गया, हर रोज़ होमवर्क के बाद दादी की कहानियों वाले धारावाहिक का। कभी राजा भगीरथ द्वारा गंगा मइया को धरती पर लाने की कहानी तो कभी माँ सरस्वती और उनके म्यूज़िकल इंस्ट्रूमेंट वीणा की, कभी सिंहवाहिनी दुर्गा की तो कभी उलूकवाहिनी लक्ष्मी की।

माँओं के साथ-साथ तमाम सारे बेटों की कहानियाँ भी भक्त प्रह्लाद, ध्रुव, नचिकेता, अभिमन्यु, सत्यवान, श्रवणकुमार, वारुणी और इन सबके साथ शेखचिल्ली के कारनामों की भी... जिससे बीच-बीच में हँसी-ठिठोली भी चलती रहे। सुननेवालों में जितना उत्साह था, सुनानेवाली में उससे रत्तीभर भी कम नहीं। यहाँ तक कि दादी अपनी पुरानी संदूकची के नीचे से बचपन की पढ़ी 'सिंहासन-बत्तीसी', 'बेताल पचीसी' और 'जातक कथाएँ' भी निकाल लाई थीं।

ओहो 'जातका टेल्स' हमारे पास इंग्लिश में भी है। दादी आपकी कहानियाँ तो अच्छी हैं, पर आपकी किताबें कैसी उघड़ी-पघड़ी, फटी-चटी, बदरंग.. हमारी स्लीपिंग ब्यूटी, गोल्डी लॉक, रेड राइडिंग हुड जैसी रंगबिरंगी, चमकीली, चिकनी नहीं हैं।''
''कैसे होंगी- कहाँ यह इंडिया, कहाँ वह लंदन...'' कहकर दादी फिर से हँस दीं। लेकिन चुन्नू नहीं हँसे। उन्होंने बहुत धीरे से मन-ही-मन में कहा ..सॉरी दादी।''

शायद दादी समझ भी गईं। इसीलिए उन्होंने शेखचिल्ली के नए कारनामेवाली कहानी सुनाकर विषयांतर के साथ बच्चों को लहालोट कर दिया। लेकिन सबसे अलग कहानी होती माँ पार्वती की...जो जब भी किसी दुःखी, गरीब को देखतीं, शंकर जी से ज़िद करके उसकी मदद करतीं ही करतीं।
''अभी भी?'' चुन्नू ने टटोला, ''हमें तो दीखी नहीं कभी...''
''कैसे दीखेंगी? कोई दिखा के, ढिंढोरा पीट के थोड़ी करती हैं? तुम्हें कहानियाँ में बताया नहीं कि अपना वेष बदल कर, नाम छुपा के करती हैं। लेकिन अब पापुलेशन इतनी  बढ़ गई है, तो हमें भी तो थोड़ी बहुत लोगों की मदद करनी चाहिए, अकेली पार्वती जी ही बेचारी कितना दौडें।

बच्चों ने मुंडी हिलायी। जिसका मतलब था, हाँ यह तो है। अब दादी ज़्यादा शामिल थीं चुन्नू मिट्ठू के खेलों में। यहाँ तक कि कंप्यूटर के साथ चलती कारगुज़ारियाँ भी अब चुन्नू दादी को बताने लगे थे- वरना पहले तो साफ कहते- इंग्लिश की बातें हैं, आपकी समझ में नहीं आएँगी।''

शायद इसीलिए एक दिन 'श्रद्धालु' का मतलब 'सतालू' समझ लेने पर दादी ने खिलखिला कर चिढ़ाया था, ''ये हिंदी की बातें हैं चुन्नू जी, आपकी समझ में नहीं आनेवाली...''
एक बार मिट्ठू ने पूछा, ''अच्छा दादी, आपकी ये सारी कहानियाँ गाने किसने बताए?''
''माँ ने, दादा-दादी, ताया, चाचा, बुआ और मौसियों ने- हाँ, सिर्फ़ गाने हमारे संगीत के गुरुजी मिताई बाबू ने। तुम लोगों को उनका बहुत मनपसंद गाना सुनाऊँ? उत्साह से छलकती दादी ने छोटी बच्ची की तरह हारमोनियम अपने पास खींच लिया और जी-जान से बाजे के सुरों के सहारे- सहारे गाने लगीं...
हिमाद्रि तुंगशृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती...गाती हुई दादी ऐसी विभोर थीं, जैसे ये शब्द नहीं, झरोखे हैं, जिनसे झाँकती हुई वे अपने अंदर जगर-मगर करते खज़ाने को देख रही हैं।

गीत समाप्त हुआ। फूलती साँसों को सहज करते हुए दादी ने बच्चों की ओर देखा, जैसे वे बच्चे नहीं, परीक्षक हों-
''अच्छा लगा?''
''ट्यून तो अच्छी थी। और थोड़ी बूढ़ी होने पर भी, आप गा तो अच्छा लेती हैं लेकिन गाने का मतलब कुछ ज़्यादा समझ में नहीं आया।''
''वह तुम लोगों की ग़लती नहीं। इसका मतलब थोड़ा मुश्किल है भी। लेकिन मतलब तो तुम लोगों को तारा-रा-रा और छैंय्या-छैंय्या का भी समझ में नहीं आता न! न उस मलाई-मलाई का वाले का-''

बच्चे हँसते-हँसते एक दूसरे पर लोटने-पलोटने लगे, ''ओहो दादी आप इस तरह मलाई-मलाई करेंगी तो हमारे फ्रेंडस कितना हँसेंगे...''
मिट्ठू ने कहा, ''आप हमें कोई 'आसान' सा हिंदी गाना सुनाइए न, जो हम भी आपके साथ गा सकें।''
दादी ने गाया। बच्चों ने साथ दिया। ख़त्म हुआ तो मिट्ठू चुन्नू के कानों में फुसफुसायी, ''भइया! पता चल गया, दादी के पास गानों का ख़ज़ाना है।'' ठीक उसी स्टाइल में दादी उन दोनों की मुंडी आपके गालों के पास लाकर फुसफुसायीं, ''तुम लोग चाहो तो ख़ज़ाना लूट सकते हो।''
''वाह! हम आपका ख़ज़ाना क्यों लूटें?''
''इसलिए कि यह जादू का ख़ज़ाना है। तुम लुटते जाओगे, यह ख़त्म नहीं होगा। लूटनेवाले भी मालामाल लुटानेवाले भी-''
बच्चों की समझ में नहीं आया, ''कैसे?''
''ऐसे कि जब तुम ये गाने सीख कर स्कूल के डिबेट, प्रतियोगिताओं में गाओगे, सुनाओगे तो लोग तालियाँ बजाएँगे, तुम्हें इनाम मिलेंगे- लक्ष्मी जी और सरस्वती जी के स्पॉन्सर किए हुए।''
तीनों एक साथ खिलखिलाकर हँस दिए।
''आपको मिलते थे न!'' चुन्नू ने दादी की आँखों में झाँका। अंतर्यामी।
''हाँऽऽ, जब मैं बच्ची-''
''आप-बच्ची-दादी-बच्ची- ही-ही-ही-ही...''
''जब आप दादी बनेंगी तब आप भी ऐसे ही कहेंगी...''
''मिट्ठू दादी मिट्ठू दादी-'' चुन्नू और दादी दोनों ने मिट्ठू को चिढ़ाया।

बाद में दादी थोड़ी सकुचाती हुई बताने लगीं, ''जब हमारे स्कूलों में गांधी जयंती, तुलसी-जयंती, रवींद्र जयंती, पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी, जन्माष्टमी, वसंत पंचमी आदि त्यौहार मनाए जाते थे तो हम बच्चे कविताएँ, गाने गा-गाकर सुनाते थे।
''आप कितनी छोटी थीं?''
''क्या पहनती थीं?''
दादी ने बताया, जब वे छोटी थीं, स्कूल के समारोह में, पंद्रह अगस्त को सफ़ेद सलवार, कमीज़ और केसरिया चुन्नी। दो कसी चोटियों में सफ़ेद रिबन बाँधकर, जलती धूप में, सीधी आँखों, तिरंगे को सेल्यूट करती हुई सारी लड़कियाँ एक साथ गाती थीं-
सारे जहाँ से अच्छा, हिंदोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, ये गुलसिताँ हमारा...

हारमोनियम के पर्दों पर थोड़ा आहिस्ते उँगलियाँ चलाते हुए दादी कुछ इस तरह डूबकर गा रही थीं कि चुन्नू और मिट्ठू की आँखों में, देखते-देखते वे एक छोटी बच्ची में तब्दील हो गईं। उस बच्ची की काली कसी चोटियों में सफ़ेद रिबन के फूल खिल गए। उसकी आँखें एकटक, अपलक अभी-अभी फूलों की पंखुड़ियाँ बिखेरकर लहरानेवाले तिरंगे झंडे पर टिकी थीं और वह सफ़ेद रिबन, काली चोटियों वाली हज़ारों छोटी बच्चियों के साथ गा रही थी-
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जमाँ हमारा...
बावली उन्मादिनी-सी दादी एक-एक शब्द दुहरा तिहरा कर गाती जा रही थीं- चुन्नू और मिट्ठू अभिभूत, अचंभित सुन रहे थे-
''कुछ बातें हैं कि हस्ती मिटती नहीं हमारी'' शब्द आसान थे। ये वाला गाना तो कई बार का सुना हुआ भी था। आता भी था। बच्चों का मन गाने के लिए अकुला आया, एक नशा-सा छाने लगा। वे साथ-साथ गाने लगे।

चुन्नू ने देखा, अचानक दादी की आँखों से दो बड़े आँसू ढुलक पड़े। दादी ने उन्हें छुपाने की बिलकुल भी कोशिश नहीं की।
चुन्नू ने अकल दौड़ायी- ज़रूर दादी को उन्हीं दुश्मनों की याद आ गई होगी, जिनका ज़िक्र गाने की लाइनों में था। रामलीला के लक्ष्मण जी की तरह उसकी भुजाएँ फड़कने लगीं। उसने ओजस्वी स्वर में पूछा, ''दादी, ये दुश्मन कौन है? वही न, जो हम अपनी हिस्ट्री बुक्स में पढ़ते हैं।''
''नहीं चुन्नू! आज तो हम ही अपने सबसे बड़े दुश्मन हो गए हैं। जो कहते हैं कि हम पुअर, फुलिश और गँवार हैं।''
''ओह दादी! सॉरी। सॉरी दादी।''

दोनों लपक के दादी की गोदी में बैठ गए।
हारमोनियम और दादी वापस चालू हो गए। बच्चे भी हुमक-हुमक कर पूरे जोश से साथ देने लगे- कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।

आश्चर्य! उस दिन, अगले दिन और उसके अगले दिन भी, बच्चों ने पाया कि अनजाने उनके दिमाग़ में हिंदोस्ताँ हमारा...वाली ट्यून ही गूँज रही है वरना तो अब तक हमेशा साबुन, तेल, शैंपू, टूथपेस्ट के विज्ञापनों वाले जिंगल्स ही बजते रहते थे- कभी सनसनाती ताज़गी तो कभी सफ़ेदी की चमकार...

अब तो चुन्नू और मिट्ठू को कविताएँ सीखने का जुनून-सा सँवार हो गया। हौसला बढ़ा, तो एकाध बार स्कूल के फंक्शनों में भी गाकर तालियाँ, इनाम बटोर लाए। समझ में आने लगा कि दादी और हिंदी उतनी कुछ खास बोरिंग नहीं। उल्टे खुली आवाज़ में हारमोनियम के सुरों के साथ जोश-खरोश से गाने में मज़ा भी खूब आता है। दादी गाने भी तो क्या ए-वन निकालती हैं। बहुत सारे तो पुरानी फिल्मों के भी। अब जैसे यही कि ''आओ बच्चो तुम्हें दिखाएँ झाँकी हिंदुस्तान की...'' वाले गाने में एक साथ वंदमातरम...गाने में कितना अच्छा लगता है। गाने का गाना, खेल का खेल।

पता नहीं मम्मी-पापा ने क्यों नहीं ये सारी मज़ेदार चीज़ें बताईं कभी। असल में मम्मी-पापा हमेशा ही तो परेशान रहते हैं, अपने-अपने ऑफ़िस से। पापा देर से आए तो चलता है, लेकिन मम्मी देर से आईं और पापा कुछ भी बोले तो...वो क्या कहते हैं महाभारत। फिर तो यही लगता है कि चाहे खाना-वाना मत बनाओ, दूध, सैंडविच खाकर सो रहेंगे, पर लड़ाई-झगड़ा मत करो। हमसे तो कहते हैं, ''स्टॉप नॉनसेंस! और वे खुद कितनी नॉनसेंस कर गुज़रते हैं, उन्हें कौन बताए। हँसी-हँसी में शुरू किए झगड़ों पर भी इतने खूँखार हो उठते हैं, जैसे पिक्चरों के विलेन।

आज ही तो टीवी पर इतनी अच्छी परेड आ रही थी, तभी पापा आए और टेलीफोन के बिल को लेकर भभक पड़े। खूब ज़बरदस्त बहसाबहसी, गरमागरमी। उन्हें पता भी नहीं चला कि कब परेड खत्म हो गई।

चुन्नू मिट्ठू रुआँसे से दादी के कमरे की ओर भागे। दरवाज़े से ही देखा, परेड ख़त्म होने के बाद टीवी पर राष्ट्रगीत की धुन बज रही थी और दादी अचल, अविचल, शांत भाव से आँखें मूँदे खड़ी थी।

धुन समाप्त हुई। दादी पलटीं...देखा, बच्चे भी ठीक उन्हीं की तरह उन्नत सिर, झुकी आँखों श्रद्धाभाव से अविचल खड़े हैं।

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११ अगस्त २००८

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