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संध्या का
झुटपुटा गहराने लगा था।
जेल का एक वार्डर बनवारी हाथ में एक छोटी-सी लालटेन लिये कुछ
गुनगुनाता चला आ रहा था- कोठरियों के तालों की चेकिंग करने।
वह हर कोठरी के सामने ठहरता, ताला खींचकर इत्मीनान करता कि
ताला अच्छी तरह बंद है, फिर उस सीलन भरी अँधेरी कोठरी में झाँक
कर कैदी को आवाज देता-“ऐ मोशाय शो गिया?” अंदर का कैदी कुछ
‘हाँ-हूँ’ करके जवाब दे देता।
इसी तरह कई कोठरियों के
तालों को झिंझोड़ता, कैदियों से एक-दो बातें करता, वह एक कोठरी
के सामने आकर ठहर गया। ताला खींचा, फिर एक क्षण को उस लालटेन
की मद्धिम रोशनी में इधर-उधर देखकर आहट ली और फिर बहुत धीमी
फुसफुसाती आवाज में बोला, “कन्हाई बाबू! ऐ कन्हा ई बाबू, जरा
इधर आओ!”
वार्डर की यह फुसफुसाती रहस्यभरी पुकार सुनकर एक दुबला-पतला
युवक जेल के सीखचों के पास आकर खड़ा हो गया-“क्या है बनवारी
भैया?”
“सुनो, तुम्हारा नरेन गुसाईं सरकार से मिल गया है।“ |