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					 “देखिये, 
					हम कुछ नहीं कर सकते। आपके कागजात पूरे नहीं हैं, आपका वीजा 
					नहीं हो सकता।“ भारतीय वाणिज्य दूतावास की खिड़की पर बैठी महिला 
					ने फिर से वही रटा-रटाया वाक्य दुहराया और अगले नम्बर के लिये 
					घंटी बजा दी। खिडकी के ठीक ऊपर लगा बोर्ड लाल रंगों में अगला 
					नम्बर दिखाने लगा। शुभेन्दु के पीछे खड़े लोग अकुलाने लगे कि वह 
					हटे तो उनकी बारी आए। पिछले दो दिनों से, सुबह-शाम इस खिड़की पर हाजिरी लगाते-लगाते 
					शुभेन्दु बौखला चुका था। माँ की मौत पर कायदे से रो भी नहीं पा 
					रहा। हर क्षण यह अहसास कि कलकत्ते में, गरियाहाट वाले घर में, 
					माँ की लाश पड़ी है, उसके द्वारा मुखाग्नि दिये जाने की 
					प्रतीक्षा में और यहाँ वीजा कार्यालय के नखरे!
 “मैडम, आप समझती क्यों नहीं, मैं पिछले बीस साल से अमेरिका का 
					नागरिक हूँ। मुझे याद भी नहीं कि मेरा पुराना भारत का पासपोर्ट 
					कहाँ है। आप बीस साल बाद भारत का पुराना पासपोर्ट माँग रहे हैं 
					मुझसे, कहाँ से लाऊँ मैं?”
 “देखिये सर, ये नियम दिल्ली से आते हैं। हमें इनका अनुपालन 
					करना है। हम आपको उसके बिना भारत का वीजा नहीं दे सकते।“ खिड़की 
					पर बैठी स्त्री की आवाज अब भी शांत थी।
 
 ‘आप जानती हैं, मुझे भारत क्यों जाना है? मेरी माँ की मृत्य हो 
					गई है।“
 “मैं कुछ नहीं कर सकती।“
 ‘आप बताएँगी, कौन कर सकता है?”
 “आप कौन्सल जेनेरल या असिस्टेंट कौन्सल जेनेरल से मिल लीजिये।“
 बौखलाया हुआ शुभेन्दु खिडकी से हट गया।
 पहला काम तो यह कि घर पर फ़ोन मिलाया। राखी को सूचना दी, वह 
					खाना खाने आज भी नहीं आएगा। वीजा हुआ नहीं अबतक।
 “अरे उन्हें बताओ, हमारा कल शाम का टिकट बुक है। एक बार 
					एक्स्टेंड कर चुके, छ सौ डालर बरबाद हो चुके….“
 “कोई कुछ सुने तब तो।“
 “तब? क्या होगा, कैसे जाएँगे? राखी की चिन्ताकुल आवाज।
 ‘कौन्सल जनरल से मिलके देखता हूँ।“
 “हाँ, मिलो। बोलो कि जाना जरूरी है और हाँ, कहीं मैकडोनाल्ड है 
					आस पास तो जाकर कुछ खा भी लो।‘
 “देखता हूँ।“ उसने फ़ोन काट दिया।
 वह काउन्सल जेनेरल की तलाश में निकला। कार्यालय बड़ा है। अभी 
					-अभी नई इमारत में आफिस स्थानांतरित हुआ है इसलिये थोड़ी पूछताछ 
					करनी पड़ी। पता चला कौन्सल जेनेरल तो खाना खाने चले गए। 
					असिस्टेंट जेनरल खुराना भी निकलने ही वाले हैं।
 शुभेन्दु भागा। असिस्टेंट जेनेरल को उसने कारीडोर में पकड़ा।
 “सर, प्लीज!’
 “क्या है?”
 “सर, मैं शुभेन्दु सरकार।“ मेरा माँ का डेथ हो गया कोलकाता 
					में…“
 “तो मैं क्या करूँ?” बात काट कर बोला मिस्टर खुराना।
 
 शुभेन्दु की इच्छा हुई उसका कॉलर पकड़ ले-बदतमीज! लेकिन उसने 
					अपने को संयत किया- “सर हमको वीजा चाहिये, कोलकाता जाना है। 
					हमको ही मुखाग्नि देना है सर। हम बीस साल से अमेरिकन सिटिजन 
					हैं, हमारा पुराना इंडिया का पासपोर्ट माँग रहे हैं ये लोग।“
 “वो जमा किये बिना वीजा नहीं मिलेगा। हवाई यात्रा का टिकट भी 
					दिखाना होगा।“
 “हमारा टिकट कल शाम का है सर। कल ही जाना था लेकिन कल भी वीजा 
					नहीं मिला तो आज उसको एक्स्टेंड किया, कल शाम के लिये।“ 
					शुभेन्दु ने चार ई-टिकट खुराना के सामने कर दिये।
 “ठीक है, लेकिन इंडिया का पासपोर्ट सबमिट किये बिना तो वीजा 
					नहीं हो सकता।“
 “सर, मेरी सहायता कीजिये, कोई रास्ता बताइये।“ शुभेन्दु ने यथा 
					सम्भव अपने मनोभावों पर नियंत्रण रखा।
 “देखो, मेरा समय खराब मत करो”, कहता हुआ खुराना निकल गया।
 एक बार फिर उसकी इच्छा हुई कि खींच कर एक झापड़ दे साले को। 
					उसका कॉलर पकड़ कर उस पर चढ़ बैठे। साले,कमीने! तेरी माँ मरी 
					होती, तो तुझे समझ में आता। मैं क्या झूठ बोल रहा हूँ!
 
 खुराना जा चुका था। वह उसके आफिस के बाहर प्रतीक्षालय की 
					कुर्सी पर जाकर बैठ गया। कुछ देर यों ही बैठा रहा। क्या करे! 
					यह लौट कर आएगा तो कोई बेहतर व्यवहार तो करेगा नहीं। इससे तो 
					उम्मीद करना बेकार है। खाना खाने जाने की इच्छा ही न हुई। कोई 
					रास्ता तलाशना होगा। वह निरुद्देश्य सा इधर-उधर घूमता रहा। 
					कौन्सेल जेनेरल के आफिस से असिस्टेंट जेनेरल के आफिस के बीच… 
					कारीडोर में दीवारों पर पेंटिग थी। भारतीय चित्रकला के नायाब 
					नमूने। वह एक-एक को रुक कर देखने लगा, गोया उन्हें देखने के 
					लिये ही यहाँ आया हो। कंधे पर लटके बैग से पानी की बोतल निकाल 
					कर पानी पिया। फिर हाथ की फ़ाइल को उसने वापस बैग में ठूँस 
					दिया। खाली बोतल को कूड़े के टब के हवाले किया और फिर से कौन्सल 
					जेनेरल के आफिस की दिशा में चला। आफिस के बाहर एक बुलेटिन 
					बोर्ड था। शुभेन्दु उसे पढ़ने लगा।“ अरे वाह!” उसके दिमाग में 
					बिजली कौंधी, “कल बुधवार है।“ उसकी नजरें तेजी से सूचना पर 
					फिसलने लगीं-कौन्सेल जेनरल ने प्रवासी भारतीयों की समस्याओं को 
					सुनने के लिये बुधवार का दिन निश्चित किया है-सुबह ग्यारह से 
					बारह बजे दिन। हर सप्ताह।“
 वह मिलेगा इनसे, कल।
 
 वह घर वापस आ गया। राखी उसे देख कर एक क्षण को चौंकी। 
					प्रश्नाकुल निगाहों से ताका और अपने आप समझ गई कि वीजा आज भी 
					नहीं हुआ। क्या बतलाएगी आज रात अपनी ननद गोपा को? कल तीसरा दिन 
					है। कब तक रखेंगे माँ को बेटे से मुखाग्नि के इंतजार में। रखना 
					उचित है क्या! गोपा ने ब्याह किया होता तो जमाई बाबू भी 
					मुखाग्नि दे सकते थे लेकिन उसको तो अपनी नौकरी करनी है बस! माँ 
					कब तक साथ रहती, गईं!
 “कल हो जाएगा वीजा।“ शुभेन्दु ने राखी को तसल्ली दी।
 “अच्छा।“
 फिर शुभेन्दु ने पूरे दिन का हाल और कौन्सल जेनेरल से मिलने की 
					योजना बतलाई।
 “तुम पता क्यों नहीं करते कि आखिर क्यों इनकॊ पुराना पासपोर्ट 
					चाहिये।“
 “पूछा था, कहते हैं जन्मतिथि का प्रमाण चाहिये।“
 “अमेरिका के पासपोर्ट में लिखा तो है।“
 ‘अरे! पागल हैं सब!”
 “आज वाशिंगटन से मीरा का फ़ोन आया था। बोल रही थी कि पूरे 
					अमेरिका में सारे दूतावास ऐसे ही हैं और सब जगह ऐसे ही परेशान 
					करते हैं। पिछले साल उसके ससुर की मौत हुई थी। उनके पास उनका 
					भारत का पुराना पासपोर्ट था, उन्होंने जमा किया लेकिन वे लोग 
					उनसे अमेरिकन पासपोर्ट के साथ नेचुरलाइजेशन सर्टिफिकेट माँग 
					रहे थे। वो नहीं था, खो गया है। उन्होंने हार कर उसके लिये 
					आवेदन किया लेकिन उसके मिलने में भी ९० दिन लगते हैं तो अंत 
					में उस रसीद की कापी दिखाई कि आवेदन किया है, तब इमर्जेन्सी 
					वीजा दिया। तुम भी दस साल के वीजा के बदले इमरजेन्सी वीजा माँग 
					कर देखो।‘
 
 “और जो फ़ीस भरी है वो इनकी जेब में जायेगी!”
 “क्या करोगे, समझ लो, पानी में गई। तुम्हारा वीजा ही तो चाहिये 
					न। मेरा, राखाल और सुमित का भारत का वीजा समाप्त नहीं हुआ है। 
					मीरा लोगों के भी खूब फ़ीस बरबाद हुई। टिकट एक्स्टेंड हुआ, 
					हमारे जैसा ही।“
 “इनलोगों ने तमाशा समझ रखा है। दूतावास के बाहर धरना दो तो 
					कहेंगे हमारी इमेज खराब मत करो और काम करने का वक्त आएगा तो 
					कहेंगे – मैं क्या करूँ? साला खुराना….” शुभेन्दु का गुस्सा 
					अभी तक गया नहीं था।
 
 पिछले एक सप्ताह से वह यों भी बेहद उद्विग्न चल रहा था। जब से 
					कम्पनी में सीनियर मैनेजर के रूप में पदोन्नति हुई थी, काम 
					इतना बढ़ गया था कि घर आने के बाद भी आफिस के काम में ही उलझा 
					रहता। रात बारह बजे से पहले कभी बिस्तर नसीब नहीं होता और सुबह 
					आठ बजते ही घर छोड़ देना पड़ता। गोपा लगातार उसे माँ के बारे में 
					बतलाती रही थी। माँ की तबियत उम्र के हिसाब से इतनी भी बुरी 
					नहीं थी कि वह ऐसी किसी आकस्मिक विपत्ति की आशंका पालता। गोपा 
					का फ़ोन रात में आया-“ अभी, ग्यारह बजे दिन में माँ चल बसीं।“ 
					तब रात का डेढ़ बजे का समय था उसके लिये। सोते से बौखला कर उठ 
					बैठा। राखी को उठाया। राखाल और सुमित सोते ही रहे। “कब आ रहे 
					हो?” रोते-रोते बहन ने सवाल किया। जाना तो उसे था ही। अपनी माँ 
					का अकेला पुत्र वह, माँ को मुखाग्नि नहीं देगा तो कौन देगा!
 
 “अभी टिकट बुक कर लेता हूँ। कल सुबह वीजा ले लूँगा। फिर फ़ोन 
					करता हूँ।“ उसने संक्षिप्त उत्तर देकर फ़ोन काट दिया था। नींद 
					उड़ चुकी थी। माँ से जुड़ी सारी स्मृतियाँ एक-एक कर सिर उठा रही 
					थीं। यंत्रचालित आधी नींद में उठकर चलते हुए वह अपने आफिस रूम 
					में गया, टेबल पर पड़ा लैपटाप उठाया और लिविंग रूम में सोफ़े पर 
					जा बैठा। कम्यूटर पर यात्रा का समय देखता और तुलना करता रहा कि 
					किस एयरलाइन से सबसे जल्दी पहुँच सकता है और फिर पूरे परिवार 
					के लिये जब तक टिकट बुक हुआ, सुबह के चार बजने जा रहे थे।
 
 राखी को यात्रा की व्यवस्था करने को कह कर वह सुबह-सुबह भारतीय 
					दूतावास कॆ वीजा कार्यालय में अपने जरूरी कागजातों के साथ लाइन 
					में जा लगा था। आफिस में ई मेल से सूचना भेज दी थी और अपने बॉस 
					का ई मेल उसने लाइन में खड़े-खड़े अपने फ़ोन पर पढ़ा था। उसकी 
					छुट्टी की स्वीकृति के साथ सम्वेदना संदेश भी। उसे अच्छा लगा 
					था कि ये औपचारिकताएँ निभाने में अमेरिकन कभी पीछे नहीं रहते। 
					और अपना खुराना – मुझे खेद है! बोलना तो दूर, तुम्हारी माँ मर 
					गई तो मैं क्या करूँ!
 
 वह रात गए देर तक बिस्तर में भी जागता रहा। गोपा से बात की, कह 
					दिया एक दिन और रुक जाए। मन ही मन योजनाएँ बनाता रहा कि एक बार 
					वीजा मिल जाए और भारत से लौटे तो खुराना के विरुद्ध हस्ताक्षर 
					अभियान चलाएगा। धरना देंगे दूतावास के बाहर जैसे गुजराती समाज 
					ने किया था। तभी से कौन्सल जेनेरल चोपड़ा ने यह बुधवार वाली 
					मीटिंग शुरू की है। अपनी छवि सुधारने के लिये। साले… उसके मन 
					में एक भद्दी सी गाली उभरी जिसे उसने दबा लिया।
 राखी ने यात्रा की सारी तैयारियाँ कर ली थीं। शहर में सारे 
					मित्रों परिचितों को सूचित कर दिया था कि उनके घर पर निगाह 
					रखें, वे तकरीबन महीने भर गायब रहेंगे। आज भी सुबह से ही 
					मित्रों के फ़ोन आने शुरू हो गए। वीजा मिला? आज निकल रहे हो? 
					अच्छा, शुभेन्दु कौन्सलेट गया है.. उसे कहो अपने बॉस से एक 
					चिट्ठी ले ले कि वह सचमुच जा रहा है, सचमुच उसकी माँ की मृत्यु 
					हुई है। किसी अखबार में सूचना छपी हो तो कम्प्यूटर से प्रिंट 
					आउट ले लो। दिखाने के लिये… हर कोई अपने अनुभव से उन्हें सलाह 
					दे रहा था।
 
 “मुझे तो वीजा अंत तक नहीं मिला। मेरा भी एक्स्पायर हो गया था। 
					मेरी सास की डेथ हुई थी। नीलेश तो चला गया, वह अभी तक भारत का 
					नागरिक है, लेकिन मुझे दस दिनों तक दौड़ाते रहे। अंत में नीलेश 
					ने कह दिया कि आने की जरूरत नहीं है। सारे क्रियाकर्म हो गए और 
					वह वापस आ रहा है।“- सैन्फ़्रांसिस्को से अरुंधती ने बताया।
 
 “मेरे पिता तो बड़ी हस्ती हैं, तुम जानती हो। उनकी मृत्यु की तो 
					अखबारों में खबर छपी थी। कम्प्यूटर से अखबार का प्रिंट आउट 
					निकाल लिया था। लेकर गए थे लेकिन तब भी सप्ताह भर बाद इमर्जेंसी 
					वीजा देकर भेजा। जब तक पहुँची तब तक सबकुछ हो चुका था। लगा, 
					जैसे शकल दिखाने के लिये गई। हमारा भी नेचुराइलेशन सर्टिफिकेट 
					खो गया है। इतना कौन रखता है यार!”-अटलांटा से शकुन बोली।
 
 दिवाकर तो उस घटना के साल बीतने के बाद भी बौखलाया हुआ था-
 “साला खुराना, मेरे को तो बोलता था-क्या प्रूफ़ है कि तुमको 
					जाना है? एयर टिकट दिखाओ। मैं बोला, एयर टिकट बुक कर लूँ,तुम 
					वीजा न दो तो डेढ़ हजार डालर तेरा बाप भरेगा? इतना गुस्सा 
					आया…।“
 
 “हमारे तो छह सौ डालर बरबाद हो चुके। टिकट एक्सटेंड किया है। 
					अगर इमर्जेन्सी वीजा देते हैं तो दस साल के वीजा का जो आवेदन 
					दिया उसकी फ़ीस भी बरबाद ही होनी है।“ राखी की कातर आवाज फ़ोन पर 
					गूँजी।
 “विश यू लक!”
 “थैंक यू।“
 राखी ने फ़ोन रख दिया। वह सब की कहानी सुनते-सुनते घबरा गई थी। 
					कोई तो शुभ-शुभ बोले! शुभेन्दु भी तीन दिन से दौड़ रहा है। न 
					ठीक से खा रहा है, न सो रहा है। माँ की मौत का दुख अलग! उसने 
					सोचा अब किसी से बात ही न करेगी। शुभेन्दु दूतावास जा चुका। 
					दिन के ग्यारह बज रहे हैं। वह खाना बनाएगी और फ़ोन तब तक नहीं 
					उठाएगी जब तक शुभेन्दु का फ़ोन न हो।
 शुभेन्दु दूतावास में कौन्सल जेनेरल चोपड़ा के आफिस में बैठा 
					था। चोपड़ा के सामने। उसे अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा था। चोपड़ा 
					से मिलने के लिये वह पहले नम्बर पर था और उसके बाद कुछ दो लोग 
					ही थे। इस नई व्यवस्था की जानकारी शायद अभी लोगों को हुई नहीं 
					है, वह सोच रहा था। कमरा बड़ा था। कमरे में कुछ और लोग थे। 
					कैमरे के साथ, उसकी पीठ के पीछे। एक व्यक्ति चोपड़ा से कुछ दूर 
					हट कर बैठा। कलम और कागज के साथ।
 अच्छे से सूट में सजा-धजा, औसत लम्बाई, अधेड़, सामने से आधा 
					गंजा, औसत नाक-नक्श, शुभेन्दु उसका गौर से निरीक्षण कर रहा था, 
					समझने की कोशिश में कि यह आदमी भी उसका काम करेगा या नहीं। 
					अपनी ओर उसे देखते पाकर चोपड़ा मुसकराया। अपनी कुर्सी से उठकर 
					उसने टेबल के दूसरी ओर बैठे शुभेन्दु से हाथ मिलाया-“गुड 
					मॉर्निंग।“
 “गुड मार्निंग”।
 “तुम कौन हो?”
 “मैं शुभेन्दु सरकार।“
 इस बार उसने उसे घूर कर देखा। शुभेन्दु की समझ में आया-यह 
					जानना चाहता है कि उसने जो इतनी हिम्मत की है उसके दफ़्तर में 
					आकर शिकायत करने की तो उसकी पीठ पर कौन लोग हैं, उसकी हस्ती 
					क्या है आखिर! लेकिन वह तो शुभेन्दु सरकार ही था, जन्म से भारत 
					का और अब अमेरिका का नागरिक। उसकी हस्ती तो इतनी ही है, झूठ 
					क्यों बोले।
 “क्यों आए हो?” इस बार बिल्कुल रूखा स्वर।
 शुभेन्दु ने अपनी समस्या बतलाई।
 “मुझे खेद है कि तुम्हारी माँ का निधन हो गया। मेरी सम्वेदनाएँ 
					तुम्हारे साथ हैं।“ लिखने वाले ने नोट किया।
 “तुम ऐसा करो, इमर्जेन्सी वीजा ले लो। छह महीने का होता है, 
					तुम्हारा काम हो जाएगा।“
 पिछले तीन दिनों से वीजा के कागजात देखने वाली प्राइवेट 
					एजेन्सी और दूतावास के बीच दौड़ते-दौड़ते, मित्रों की कहानी 
					सुनते –सुनते शुभेन्दु के ज्ञान चक्षु खुल चुके थे। वह 
					इमर्जेन्सी वीजा के आवेदन पत्र के साथ ही चोपड़ा के दफ़्तर में 
					हाजिर हुआ था। प्राईवेट एजेन्सी द्वारा “अग्रसारित” की मुहर 
					उसके कागजों पर थी।
 “चोपड़ा ने उसके कागजों पर हस्ताक्षर कर दिये। कैमरे चमके। 
					चोपड़ा ने मुसकरा कर फिर उससे हाथ मिलाया। “हैव अ सेफ़ जर्नी।“
 “थैंक यू।”
 
 कैमरे फिर चमके। लिखने वाले की कलम ने कागज पर कुछ अक्षर और 
					उकेरे।
 वह कमरे से बाहर हो गया। मुड़ कर देखा, उसकी समझ में आया कि 
					पूरी वीडियो रिकार्डिंग चल रही थी। कल के अखबार में यह खबर 
					होगी। उसकी पीठ और चोपड़ा का चेहरा होगा… भाड़ में जाए!
 उसे शाम चार बजे वीजा मिल गया था। भूखा-प्यासा और थका हुआ वह 
					परिवार के साथ अपनी फ़्लाइट पकड़ने के लिये
  एयर 
					पोर्ट भागा था। 
 शाम सात बजे प्लेन में चढ़ने के बाद उसने गोपा को फ़ोन किया-“हम 
					बोर्ड कर गए हैं।“
 “लाश से दुर्गंध उठने लगी थी। हमने माँ का संस्कार कर दिया। 
					बाकी तो तुम आ ही रहे हो।“
 शुभेन्दु अपनी कोने की सीट पर बैठा, आधे चेहरे को रूमाल से 
					ढँके, प्लेन की खिड़की की तरफ़ मुँह किये, फूट-फूटकर रो रहा था!
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