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आज सिरहाने


संपादक
डा सुरेश चंद्र शुक्ल
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प्रकाशक
विजय प्रकाश बेरी
हिंदी प्रचारक पब्लिकेशंस प्रा लि
पिशाचमोचन
वाराणसी–२२१०१०
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पृष्ठ :१४४
°

मूल्य : 7० रूपये

प्रवासी कहानियां (कथा संग्रह)

जब हम किसी एक ही रचनाकार की कहानियों का संग्रह पढ़ते हैं तो हमें इस बात के भरपूर मौके मिलते हैं कि हम उसके भीतर के समूचे रचनाकार की एक झलक पाएं। बेशक कुछ ही देर के लिए सही, हम जानें कि वह अपने पास की दुनिया को लेकर क्या सोचता है, उससे किस तरह से प्रभावित होता है और किस तरह से उन प्रभावों को अपनी लेखनी पर उतारता है। लेकिन जब कोई लेखक अपने समकालीन रचनाकारों की रचनाओं को एक संग्रह में जुटा कर हमारे सामने रखने की कोशिश करता है, भले ही वे रचनाकार एक ही शहर के हों, प्रदेश के हों या देशभर में फैले हुए हों, उन कहानियों का ज़ायका थोड़ा सा बदल जाता है, लेकिन उस संग्रह को पढ़ते हुए एक बात हमारे ध्यान में लगातार रहती है कि ये सब के सब रचनाकार एक ही वक्त को, एक ही समाज को और कमोबेश एक ही जैसी स्थितियों से रू–ब–रू होकर उसे अपनी कहानियों में दर्ज कर रहे हैं और इस तरह के संकलन एक ही समाज की तस्वीर हमारे सामने पेश करते हैं।

लेकिन जब हमारे हाथ में कोई ऐसा कहानी संकलन आए जिसमें दुनिया के कई देशों में एक ही वक्त में लिखी जा रही कहानियां हों, जो अपने साथ अलग–अलग देशों की संस्कृतियों, समाजों और जीवन शैली की सुगंध लेकर आएं तो हमें दोहरी खुशी होती है और संपादक को ऐसे प्रयास के लिए बधाई देने को जी चाहता है।

इसका कारण यह भी है कि इस तरह के संग्रह या संकलन से हमें इस बात को जानने का मौका भी मिलता है कि अलग–अलग देशों, समाजों और परिस्थितियों में अपने वतन से हज़ारों मील दूर रह रहे ये हिंदी रचनाकार अपने मौजूदा वक्त की सच्चाइयों से किस तरह से जूझ रहे हैं और उसे अपनी लेखनी का आधार बना रहे हैं।

मेरे सामने एक ऐसा ही कहानी संग्रह है 'प्रवासी कहानियां' जिसके संपादक हैं नार्वे में अर्से से बसे हिंदी रचनाकार सुरेश चंद्र शुक्ल। वे निश्चित ही उस अनूठे आयोजन के लिए बधाई के पात्र हैं।

इस संग्रह में सुषम बेदी, तेजेंद्र शर्मा, अश्विन गांधी, दीपिका जोशी, कृष्ण बिहारी, गौतम सचदेव, शैल अग्रवाल, उषा वर्मा, सुमन कुमार घेई, सुरेश राय, राजेश वर्मा, उषा देवी कोल्हटकर, अरूण अस्थाना, हरचरण चावला, राजेंद्र कृष्ण, मनीषा कुलश्रेष्ठ, उषा राजे सक्सेना, पद्मेश गुप्त और और स्वयं संपादक की कहानियां हैं। 

संग्रह की कहानियों से गुज़रते हुए यह सुखद अहसास होता है कि भारत से बाहर भी लोग इतनी अच्छी कहानियां लिख रहे हैं। एक और अच्छी बात ज़्यादातर कहानियों के साथ यह है कि ये कहानियां भारत के बिताए दिनों की याद न होकर स्थानीय समाज और समस्याओं को लेकर लिखी गई हैं, जिससे पाठक को एक ही संग्रह में अलग–अलग देशों में रचनारत कहानीकारों की नज़र से देखे गए उनके मौजूदा समाज की एक झलक मिल जाती है।

सुषम बेदी की कहानी 'चिड़िया और चील' मां–बाप की बंदिशों, सपनों और महत्वाकाक्षाओं से मुक्ति की चाह रखने लड़की की बेहद मैच्योर और सधी हुई कहानी है। किस तरह से बाहर के मुल्कों में रहने वाले भारतीय परिवार इस तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं, एक तरह बच्चों को लेकर उनके खुद के सपने और दूसरी तरफ़ बच्चों का अनंत आकाश को नाप लेने का खुद का सपना। कौन सही है और कौन ग़लत, ये बेदी जी की कहानी हमें बताती है।

तेजेंद्र शर्मा भारत में एक ऐसे कहानीकार के रूप में जाने जाते हैं जिनके पास दुनिया भर के अनुभवों का अकूत ख़ज़ाना है और उनकी कहानियों के विषय हमेशा नयापन लिए होते हैं। संग्रह में शामिल उनकी कहानी 'कोख का किराया' क्रास कल्चर में बड़ी तेजी से सामने आ रही सरोगेट मदर की समस्या को बेहद मनोवैज्ञानिक तरीके से सामने रखती है।

संग्रह में अश्विन गांधी की कहानी 'पिज़ा की पुकार' एक हल्के–फुल्के विषय को भी बहुत समझदारी से सामने रखती है कि दूसरे मुल्कों में पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले के बीच के संबंध हमारी सोच से कितने अलग हो सकते हैं। दीपिका जोशी की कहानी 'सदाफूली' विदेश में बसे भारतीय परिवारों के दोहरे संकट की कहानी कहती है। एक तरफ़ अपने संस्कार और मान–मर्यादा है और दूसरी तरफ़ बच्चों का जीवन जो एक अलग ही समीकरण हमारे सामने रखता है।

पता नहीं, किन वजहों से यू .ए .ई .में अरसे से रह रहे स्थापित कहानीकार कृष्ण बिहारी ने इस संग्रह के लिए अपनी एक मामूली सी कहानी 'दुश्मन से दोस्ती' दी है। वे एक समर्थ कहानीकार हैं और इन दिनों खूब अच्छा लिख रहे हैं।

गौतम सचदेव की कहानी 'आकाश की बेटी' लंदन में बसे आम भारतीय परिवारों की कहानी कहती है, जहां यहां बसने की चाह आदमी से क्या–क्या नहीं करवाती और हाथ क्या लगता है निराशा, हताशा और अकेलापन। शैल अग्रवाल की कहानी 'सूखे पते' विस्तार लिए हुए एकालाप की तरह चलती है और कहानी पाठक को बांधे रखने में असफल रहती है।

जबकि 'रौनी' को लेकर उषा वर्मा की कहानी एक मैच्योर कहानी है। जहां हम एक टूटे परिवार के एक ऐसे निग्रो बच्चे से मिलते हैं जो सबकी घृणा का शिकार है और उसकी टीचर चाहते हुए भी उसके लिए कुछ नहीं कर पाती।

सुमन कुमार घई की कहानी 'स्मृतियां' सचमुच सपाट स्मृतियों से आगे नहीं बढ़ पाती। बेशक वे सारी बातों को ईमानदारी से बयान करते हैं लेकिन कहानी तत्व के अभाव में वे असफल रहे हैं।

राजेश शर्मा की कहानी भारत के बचपन के अनुभवों के आधार पर लिखी गई कहानी है जो एक किस्से की तरह सामने आती है। अरूण अस्थाना की कहानी 'तर्पण' भी बैक होम कहानी है जो एक डरे हुए आदमी का बेहद सधी हुई भाषा में विश्लेषण करती है कि किस तरह उसके मरने के बाद उसका बच्चा उस डर से किस तरह से सहजता से मुक्ति का रास्ता बता देता है।

हरचरण चावला की कहानी 'ढाई आखर' कहानी न होकर एक व्यक्ति का कोलाज सा बन कर रह गया है। एक ऐसा व्यक्ति जो अपने सपने पूरे करके दिखाता है।

राजेंद्र कृष्ण की कहानी 'वह आंगन और लालटेन' विभाजन की त्रासदी से उपजी एक अलग ही शैली में लिखी गई कहानी है जो पाठकों को बांधे रखती है।

उषा राजे सक्सेना की कहानी 'प्रवास में' यू के में रहने वाले एक महत्वाकांक्षी युवक की कहानी है। उषा जी अपनी कहानी को चुनने–बुनने और पेश करने के अपने अलग अंदाज़ के लिए जानी जाती हैं, उनकी कहानियों के पात्र अक्सर उनके सहयात्री होते हैं और वे कोई न कोई कहानी किस्सा उन्हें दे जाते हैं। उन्हीं अनुभवों के आधार पर वे अपने पात्रों में परकाया प्रवेश करती हैं।

पद्मेश गुप्त मूलतः कवि हैं लेकिन इस संग्रह की अपनी कहानी 'कशमकश' में वे संबंधों की पड़ताल करने की कोशिश करते नज़र आते हैं। इतने खूबसूरत विषय पर लिखी गई कहानी बेहतर ट्रीटमेंट की मांग करती हैं।

संपादक सुरेश चंद्र शुक्ल ने अपनी दोनों कहानियों 'दुनिया छोटी है' और 'मंजिल के करीब' के ज़रिए अपने वर्तमान देश नार्वे की झलक दिखाने की कोशिश की है। वहां का समाज, जीवन शैली और संबंधों की ऊष्मा किस तरह से हमारी देखी भाली दुनिया से अलग है, ये कहानियां हमें बताती हैं।

कुल मिलाकर ये संग्रह हमें एक साथ कई देशों की सांस्कृतिक और अंदरूनी सैर कराता है। एक ऐसी सैर जो किसी गाइड बुक या गाइडेड टूर की मदद से नहीं की जा सकती।

हिंदी जगत में इस किताब का स्वागत है।

१६ दिसंबर २००५

सूरज प्रकाश

 
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