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कहानियाँ  

आप्रवासी भारतीय लेखकों की कहानियों के संग्रह वतन से दूर में
कुवैत से दीपिका जोशी संध्या की कहानी— 'सदाफूली'।


सर्दी का मौसम, जाड़े की सुहावनी धूप, बालकनी में बैठकर जुही और राजन चाय का मज़ा ले रहे थे। नवंबर से अच्छे मौसम की जैसे ही शुरुआत हो जाती है, पिकनिकों के मज़े शुरू हो जाते हैं। सुबह–सुबह घर से सैरसपाटे करते हुए किसी पार्क में पहुँचे, मौज मस्ती में दिन बीताकर शाम होते ही घर लौट आए।

पिछले हफ्ते ही पिकनिक हो गई थी इसलिए शायद आज अच्छी ठंड होने के बावजूद भी कोई प्रोग्राम नहीं बना था। सारा दिन कैसे बिताए.....सोचा जा रहा था। जुही घूमने की बड़ी ही शौकिन, राजन को कैसे उकसाया जाय सोच रही थी, मन ही मन और....उसने बहाना खोज ही लिया। थोड़े दिन पहले ही बात हुई थी दोनों में कि इस घर में उब गए हैं, कोई नया घर ढूँढा जाए। आज कुछ और प्रोग्राम न होने के कारण यह घर की खोजबीन का बहाना जुही को अच्छा मिल गया।

निकल पड़े दोनों धूप और ड्राइव का मजा लेते हुए। छुट्टी का दिन, सड़कें थोड़ी खाली–खाली लग रही थीं। सड़क के दोनों किनारों की हरियाली को आंखों में समा रही थी जुही। कहीं जमीं पर बिछी हरियाली तो कहीं पाम, खजूर के पेड़ों की कतारें। रेगिस्तानी प्रदेशों का यह अंदाज़ बड़ा ही अजीब होता है, गर्मियों में सनसनी धूप तो कभीं ठंड का यह सुहावना मौसम। रास्ते में जब बड़े–बड़े बंगले नज़र आते तो लगता, हाय! यदि ऐसे बंगले में रहने का सौभाग्य मिला तो...जुही के खयाली पुलाव पकते रहते और सोचती, 'उम्मीद रखने में किसी का क्या जाता है?' '

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