|
कहानी को कहानी की तरह यानी कि
किस्से की तरह क्यों न सुना और सुनाया जाए... तो भइए ! चाहो तो
हुंकारी भरना और न चाहो तो चुर्पचाप ही खुद को मंथना कि
तुम्हारी चुप्पी का अर्थ क्या है ...तो वक्त वो था कि...
दुनिया बहुत तेज़ी से बदल रही था। घर में भी और बाहर भी।
शायद बाहर का परिवर्तन ही घर में तेज़ी से घुस रहा था और सबकुछ
अपनी मर्ज़ी के अनुसार उठा–पटककर जहाँ चाहता वहाँ रख दे रहा था।
चीज़ों की तरह इनसान भी बेतरतीब नज़र आने लगे थे। यह कोई नई और
अनजान व्यवस्था थी जिसमें लोग खुद को मिसफिट पाने के बावजूद
फिट होते जा रहे थे। हालाँकि, इस तरह किसी ज़बरन घुसपैठ कर क़रीब
ही नहीं आई बल्कि लपेट में ले लेने वाली व्यवस्था में स्वयं को
सहज पाना किसी के लिए भी न तो आसान था और न सामान्य। लेकिन लोग
थे कि बकलोल बने सहज दिखने के प्रयासों में अपनी भद्द उड़ते
देखने के बावज़ूद किसी टूथ पेस्ट कंपनी की विज्ञापनी मुस्कान को
ओठों पर ही नही .चेहरे पर भी चस्पा किए बेगानी शादी में
अब्दुल्ला बने हुए थे।
मैं आपको बताता हूँ। शायद आप भी किसी को बताएं क्योंकि बदलाव
का यह रूप सुविधाओं को देने के साथ बेचैन तो आपको भी किए ही
होगा। तो, भइए! ज़माना वह आ गया था कि लोग कहने लगे थे कि ज़माना
बहुत खराब है। |